आधा सच है आधा झूठ ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
सदा सच बोलो । ये तीन शब्द बेहद खतरनाक हैं । जो इनको मान ले उसकी दशा खराब हो जाती है । सच बोलने का सबक पढ़ाने वाले खुद सच ही बोलें ये लाज़मी नहीं है । एक बार झूठ को बेनकाब करने वाले भी झूठे साबित हो गये मगर तब भी उन्होंने अपने झूठ को झूठ मानने से इनकार कर दिया , कहने लगे ये उनका अपना नज़रिया है । इस तरह सच की इक और परिभाषा बना दी उन्होंने । सच वही जिसे आप माने । इस बात से अभिप्राय यूं निकला कि सच और झूठ परस्पर विरोधी नहीं हैं । दो जुड़वां भाई हैं , बस ये पता नहीं चलता कौन बड़ा है कौन छोटा । एक जैसे दिखते हैं हमशक्ल भाईयों की तरह , देखने समझने वाला धोखा खा जाता है । अंतर केवल रंग का है सच गोरा है झूठ सांवला सलौना सब का मन मोह लेता है । चाल ढाल दोनों की अलग अलग है , सच फटेहाल है झूठ सूटेड-बूटेड है चमक दमक लिये है । सब उसी को पसंद करते हैं सच को लोग दूर से देख कतरा कर निकल जाते हैं बचकर । सच अभी कुंवारा है बेघर है , भटकता रहता है किसी ऐसे की तलाश में जो उसको अपना बना ले । झूठ को हर दिन कोई न कोई वरमाला पहना देता है , उसके कितने ठिकाने हैं , बहुत घर हैं उसके । सच फुटपाथ पर रहता है तब भी खुश है इस बात पर लोग आचंभित हैं । झूठ का कुनबा दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है , खूब फल फूल रहा है । सच के भूखे मरने की नौबत आ गई है , इस ज़माने में उसका साथी कोई भी नहीं है । सच पर इल्ज़ाम है कि उसने बहुत लोगों की नींद उड़ा रखी है जिससे उनका जीना मुहाल है , वो चाहते हैं सच को सूली पे लटका दिया जाये । सच पर तमाम मुकदमें दायर हैं ।इक और दुकान खुली है सच बेचने का धंधा करने वालों की बस्ती में , जो दावा करती है असली सच उन्हीं की दुकान से मिलता है । जिसे ज़रूरत हो उनसे जब जितना सच चाहे खरीद सकता है , मुंहमांगे दाम चुकाकर । कीमत बाक़ी की दुकानों से थोड़ी अधिक है मगर उनका सच प्रमाणित है गारंटी वाला । सब लोग उनसे प्रमाणपत्र वाला सच खरीद अपने ड्राइंगरूम की दीवार पर टांग रहे हैं सच्चे कहला रहे हैं । किसी किसी ने तो घर के बाहर प्रवेशद्वार पर ही सच को टंगवा लिया है ताकि सब देख सकें । सच को हर कोई नहीं खरीद सकता , जिसकी हैसियत है वही मोल चुका सकता है । आजकल सच अमीर लोगों का रईसी शौक बन गया है , हर महंगी वस्तु की तरह । महंगा कालीन , महंगे शोपीस , बहुमूल्य पेंटिंग की तरह ही सच सजावटी सामान बन गया है । सच अब बोलता नहीं है उसके होंठ सिल चुके हैं , पिंजरे वाले तोते और गमले के पौधे के साथ इक कोने में शोभा बढ़ा रहा घर के मालिक की । आजकल सजावट में सूखा ठूंठ या कैक्टस का कांटेदार पौधा , मिट्टी के बर्तन घड़े जाने क्या क्या ऊंचे दाम खरीद लेते हैं ।
सच बेचने वाले कमाल के अदाकार लोग हैं । झूठ के पांव नहीं हैं तो सच के पैर काट उन पे झूठ का बदन लगा बहुत तेज़ी से भगा सब को खुश कर देते हैं । उनको ये कला आती है तभी इस धंधे में उनका नाम है , उनके दफ्तर से निकल छोटे से कस्बे से चलता झूठ राजधानी पहुंच जाता है । सच हर जगह कत्ल किया जा रहा है , सभाओं में , बाज़ारों में , सरकारी भवनों में , अदालतों की चौखट पर , सब कहीं उसी के लहू की लाली है । मगर कोई स्वीकार करना नहीं चाहता कि सच को मार दिया गया है । सब कहते हैं सच ज़िंदा है , उनकी तिजोरी में अलमारी में या दफ्तरी फाइल में सुरक्षित है । अभी उसकी ज़रूरत नहीं है जब भी ज़रूरत हुई निकाल लेंगे । सच का दम घुटता रहे तब भी उसकी मौत नहीं हो सकती , सच कभी नहीं मरता ये मान्यता है । झूठ की जय-जयकार हो रही है , सच पर मुकदमा चल रहा है । कटघरे में खड़े सच को झूठ साबित किया जा रहा है । झूठ दावा कर रहा है बहुमत उसी के साथ है । शासन करने का अधिकार उसी को है । अदालत बेबस है उसको सबूत नहीं मिले सच को कैद करने अपहरण करने या मार दिये जाने के । जांच करने वाले सभी झूठ के साथी हैं , निष्पक्ष जांच हो सकती ही नहीं । अदालत जांचकर्ता को चेतावनी देती रही है कितनी बार मगर उस पर कोई असर नहीं होता है । झूठ किसी की परवाह नहीं करता , वो सच बनकर वातानुकूलित घर दफ्तर में रहता है । कोई भी मौसम हो उसको कुछ फर्क नहीं पड़ता , हर तरह के मौसम से ज़ेड केटगरी की सुरक्षा उसको मिली हुई है ।