फ़रवरी 02, 2017

बजट के पिटारे में ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         बजट के पिटारे में ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

इंतज़ार की घड़ियां लंबी बहुत थीं , पर जनता ने काट ही लीं। पिया ने वादा किया था इस बार गरीब जनता की बारी है। सब की गरीबी दूर की जाएगी। तीन लाख आमदनी वाले गरीबों से कोई आयकर नहीं लिया जायेगा। पांच लाख की आय वालों को पांच प्रतिशत की छूट दे दी गई है। किस किस को कितनी आमदनी वाले को कितना फायदा हिसाब बताया है। शायद फिर भूल गये उस बदनसीब को जिस की आमदनी है ही नहीं , जगह नहीं तो घर बनाने को कर्ज़ मिलने का क्या करें। जिनकी ज़मीन है उनको कृषि करने को सहयोग की बात की , मगर जो खेतिहर दिहाड़ीदार मज़दूर वो किधर जायें। उनको कैसे इतना मिलेगा कि ज़िंदा रह सकें , मनरेगा की बात लगता भूल गये किनको मिलता काम , ठेकेदार इंसान से नहीं मशीनों से तालाब खुदवाते कम पैसे से। कागज़ पर अंगूठा ही तो लगा दिखवाना है , फोटो भी बना ली जाती हैं। याद आया अब मज़दूरी बैंक के खाते में सीधे मिलेगी , मगर बैंक में खाता कैसे खुलेगा। पैन कार्ड कहां से बनवायें , अब ज़रूरी है। चलो किसी तरह सौ दिन मज़दूरी मिल ही गई तो क्या सब ठीक हो जायेगा।  आज़ादी का मतलब क्या दो वक़्त पेट भरना है , बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य उसका क्या होगा। वो तो आपने निजि कारोबारियों को पूरी छूट दे रखी है लूट की। कोई नियम कायदा ही बना देते डॉक्टर या हॉस्पिटल अथवा प्राइवेट स्कूल कितनी फीस ले सकते। ये दोनों पेशे सेवा का दम भरते हैं उनको लूट की इजाज़त नहीं दी जा सकती। सब बाकी बातों को भूल कर ज़रा इतना तो देखते जो पिछले साल बताया कितना वास्तव में किया है।

                       सब की नहीं इक योजना की मिसाल सामने है।  कहते हैं  पका है  देखने को इक चावल निकाल कर देख लेते हैं सब का पता चल जाता है। पिछले साल आठ लाख तालाब बनाये गये उनकी बात है। काफी तो अधूरे हैं जिनको पूरा बताया गया है। बहुत कुछ लोगों ने अनुदान लेकर अपने खेत में बनाये जो उनकी निजि ज़रूरत को काम आयेंगे।  मगर असली मकसद किसी से पूरा नहीं होगा , जल को संचित करने का ताकि भूमि के नीचे के जल का स्तर ऊंचा हो सके। सब तालाब ज़मीन पर ऊंचे बने हैं जिनमें पानी बाहर से जमा हो ही नहीं सकता , उनको भरने को नीचे से ही पानी निकाल भरा गया है। जिस से ज़मीन के नीचे का जल और नीचे जायेगा। यही हर सरकारी योजना का सच है। राजधानी के दफ्तर में बैठकर यही किया जाता रहा है हमेशा से।
                       आखिर में दो शेर :-

             हक नहीं खैरात देने लगे ,
             इक नई सौगात देने लगे !
             रौशनी का नाम देकर हमें
             फिर अंधेरी रात देने लगे।

             (  डॉ लोक  सेतिया )

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