सितंबर 30, 2023

जीवन-कथा लिखवाने का शौक ( खरी बात ) डॉ लोक सेतिया

   जीवन-कथा लिखवाने का शौक ( खरी बात ) डॉ लोक सेतिया  

इधर आजकल सोशल मीडिया पर तमाम लोगों की पिछली बातों और किस्सों की बातें पढ़ने को मिलती हैं । पता नहीं उनसे क्या हासिल होता है मुझे तो कोई सुनाता है तो सोचता हूं इन का महत्व क्या है क्या उनके जीवन से कुछ सबक सीख सकते हैं । किसी ने मुझसे पूछा क्या अगर मैं आपको अपने बारे में कुछ बताऊं तो आप मेरी जीवनी लिख सकते हैं । मैंने सीधा साफ़ जवाब दिया कि मैं ऐसा कुछ नहीं लिखता हूं मुझे जो वास्तविकता सामने दिखाई देती है अपने समाज की उसको लेकर लिखना होता है भले किसी को पसंद आए या नहीं भी आए । वहां बैठे अन्य लोगों से मुख़ातिब होकर कहने लगे की हमने ये ये कर लिया क्या इतना काफ़ी नहीं है , फिर मुझसे सवाल किया आपको क्या लगता है । मैंने वही कहा जो कभी मैंने सरिता पत्रिका के संपादक विश्वनाथ जी इक बात से समझा सीखा और अपनाया था , उनका कहना था कि आप पढ़े लिखे हैं किसी पद पर हैं या कोई कारोबार करते हैं अपना परिवार अपने बच्चे को लेकर कर्तव्य निभाते हैं तो कोई विशेष कार्य नहीं है बिना किसी पद शिक्षा के भी कितने लोग यही करते हैं । संतान तो पशु पक्षी जानवर भी पैदा कर लेते हैं घौंसले भी बना लेते हैं , पढ़ लिख कर साधन संपन्न सुविधाएं पाने का नाम सार्थक जीवन जीना नहीं होता है । आपको देश समाज से बहुत मिलता है आपको समाज को कुछ लौटाना भी चाहिए ये इक कर्तव्य है सामाजिक दायत्व है । अचानक यूं ही मैंने उनसे लोकनायक जयप्रकाश नारायण को लेकर पूछा तो उनको कोई जानकारी नहीं थी तब मैंने उनको सलाह दी उनको लेकर अवश्य पढ़ना , ऐसे भी लोग हुए हैं जिन्होंने कभी किसी भी पद को चाहा ही नहीं बल्कि कभी स्वीकार ही नहीं किया और जीवन भर देश समाज और लोकतंत्र की रक्षा करते रहे । बात चली थी अपने बच्चों की परवरिश की तो मुझे शायर अल्लामा इक़बाल की इक नज़्म याद आई जो उन्हने अपने पुत्र जावेद के नाम लिखी थी जब उनको लंदन से उसका भेजा पहला ख़त मिला था । आईए उस नज़्म को पढ़ते हैं समझते हैं । 
 
दयारे इश्क़ में अपना मुक़ाम पैदा कर , नया ज़माना नए सुब्ह - शाम पैदा कर । 
 
ख़ुदा अगर दिले - फ़ितरत - शनास दे तुझको , सुकूते लाल-ओ -गुल से कलाम पैदा कर ।  
 
उठा न शीशा-गराने - फ़िरंग के एहसां , सिफाले हिन्द से मीना ओ जाम पैदा कर । 
 
मैं शाख़े - ताक हूं मेरी ग़ज़ल है मेरा समर , मिरे समर से मय - ए - लालफ़ाम पैदा कर । 
 
मिरा तरीक़ अमीरी नहीं फ़कीरी है , ख़ुदी न बेच गरीबी में नाम पैदा कर ।  
 
कुछ बातें जो आपकी पहचान करवाती हैं वो आपका ओहदा नाम शोहरत नहीं आपका सभ्य व्यवहार और समाज में आपका आचरण तौर तरीका होता है । कोई किसी डॉक्टर से अपनी बिमारी की बात कहने आया हो या किसी अधिकारी के पास कोई समस्या लेकर , उनका फ़र्ज़ होता है सही ढंग से उनकी बात सुनना न कि उनके साथ असभ्य व्यवहार कर खुद को विशेष साबित करना आपकी ख़ासियत यही है जिस काम को नियुक्त हैं उसे करना न कि अपना रुतबा जतलाना रौब जमाना । अधिकांश ऊंचे पद पर बैठे लोग शिष्टाचार भूल जाते हैं उनको अपनी भाषा वाणी पर कोई अंकुश नहीं लगाना आता है उनको नहीं समझ होती कि हर व्यक्ति का अपना महत्व होता है और कोई बड़ा छोटा नहीं होना चाहिए । दुष्यंत कुमार ऐसे लोगों को लेकर कहते हैं :-
 
             ज़िन्दगानी का कोई मक़सद नहीं है , एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है ।  
 
हमारे देश की विडंबना है कि जिनको जनता की सेवा करनी है उनको लगता है जनता उनकी गुलाम है और वो खुद शासक हैं । और अक़्सर अधिकांश बड़े अधिकारी असंवेदनशील और अहंकारी होते हैं उनको कोई उनका कर्तव्य याद दिलाए तो उसकी कमियां निकलने और दोषी साबित करने लगते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि अपने दफ़्तर में उनकी मनमानी को कोई रोकने वाला नहीं है लेकिन कोई राजनेता या उन से बड़ा कोई अधिकारी आकर कुछ कहे तो सर झुकाए जीहज़ूरी को तैयार होते हैं तब कोई सही गलत कोई नियम कानून आड़े नहीं आता है । ऊपरवाले का आदेश है तो कुछ भी कैसे भी करने को तरीका ढूंढ लिया जाता है । बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर ,  पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर । अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात है कि हमारी आधुनिक शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था से सरकारी तंत्र में अच्छे राष्ट्रीय चरित्र का बेहद अभाव है धन दौलत मान सम्मान यदि अपने उचित ढंग से महनत और ईमानदारी से अर्जित नहीं किए और उनको पाने को अपनी अंतरात्मा अपने विवेक को ताक पर रख छोड़ा है तो आपने बड़ी कीमत चुकाई है अपने खुद के स्वाभिमान का त्याग कर कितना भी खज़ाना भर लिया वास्तव में आप मानसिक तौर पर दरिद्र हैं । 
 

 

सितंबर 26, 2023

ख़ुद अपनी आवारगी का चर्चा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   ख़ुद अपनी आवारगी का चर्चा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

टीवी पर प्रसारित हर शो में ये दिखाई देता है जिसे देखो महिला पुरुष को सिर्फ एक ही संबंध की नज़र से देखता है । खुले-आम सार्वजनिक मंच पर लोग अपनी जवानी में किसी के लिए आकर्षित होने का इज़हार करते हैं । टीवी सीरियल सिनेमा और कॉमेडी शो वालों को तो बेशर्मी मनोरंजन लगती है और घटिया चुटकुले हंसने हंसाने का माध्यम कोई साफ सुथरी कॉमेडी जो हुआ करती थी उनको नहीं आती है । जब इक अधेड़ उम्र की महिला या पुरुष टीवी पर अपने पति या पत्नी की उपस्थिति में किसी अभिनेता या फ़िल्मी नायिका को लेकर अपनी धड़कन बढ़ने की ख्वाबों की और जाने क्या क्या महसूस करने की बात बताते हैं तब सोचता हूं कभी वही घर में किसी अन्य जान पहचान वाले को लेकर अपनी भावनाएं बतलाए तो अंजाम क्या होगा । जिस समाज में बिना बात शक की निगाह से देखते हैं आसपास सभी को अपने परिजन की ऐसी आशिक़ी पर मुमकिन है मामला बढ़ते बढ़ते अदालत की चौखट तक पहुंच जाए । 
 
हमने अपने बचपन से युवावस्था तक ये नहीं देखा था बल्कि सुनते थे समझते थे कि जो भी इक दूजे को चाहते हैं उसको लेकर सार्वजनिक तो क्या किसी से भी बात करना अपने प्यार की रुसवाई मानते थे । तब अपने मन की बात होंटों पर नहीं आती थी । लेकिन जो वास्तव में होता था वो बड़ा ही पावन और बहुत शानदार रिश्ता नाता हुआ करता था , किसी को भाई किसी को बहन किसी को मौसी चाची नानी ऐसे कितने बंधनों से अपना समझते ही नहीं थे मानते भी थे और निभाते भी थे जीवन भर । आजकल टीवी सीरियल फिल्मों ने हिंसा और शारीरिक आकर्षण और जिस्मानी संबंध को मनोरंजन के नाम पर दर्शकों को बेहद गलत संदेश देना शुरू कर समाज का बेड़ा गर्क किया है ये निर्माता निर्देशक फ़िल्मकार बीमार मानसिकता के शिकार लोग हैं । अब तो अधिकांश लोगों का मोहभंग होने लगा है लेकिन सार्थक सिनेमा बनाने वाले गुरुदत्त जैसे लोग कहां हैं अभिनेता ओम प्रकाश और अन्य कितने हास्य कलाकार अपनी अभिनय क्षमता और अपनी कल्पनाशीलता से दर्शकों को लोट पोट कर देते थे । ये माध्यम जितना आधुनिक हुआ है उतना ही इसकी ऊंचाई घटते घटते रसातल तक इनको ले आई है । पहाड़ पर खड़े हैं लेकिन और भी बौने लगते हैं ये बड़े कद वाले ऊंचे लोग । 
 
हमने कोशिश की चुप चाप ऐसे लोगों की असलियत पता करने की तो पाया अधिकतर ऐसे महिला पुरुष अपने बचपन से जवानी तक ही नहीं बुढ़ापे तक भी सब से छुपकर बहुत कुछ बार बार करते हैं लेकिन सब के सामने बड़े ही आदर्शवादी बने रहते हैं । निदा फ़ाज़ली जी की इक ग़ज़ल मशहूर है चलो पढ़ते हैं :- 
 
मन बै-रागी तन अनुरागी कदम कदम दुश्वारी है 
जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फ़नकारी है ।   
 
औरों जैसे हो कर भी हम बा-इज्ज़त हैं बस्ती में  
कुछ लोगों का सीधा-पन है कुछ अपनी अय्यारी है । 
 
जब जब मौसम झूमा हम ने कपड़े फाड़े शोर किया 
हर मौसम शाइस्ता रहना कोरी दुनिया-दारी है । 
 
ऐब नहीं इस में कोई लाल-परी ना फूल-कली 
ये मत पूछो वो अच्छा है या अच्छी नदारी है । 
 
जो चेहरा देखा वो तोड़ा नगर नगर वीरान किए 
पहले औरों से ना-खुश थे अब खुद से बे-ज़ारी है ।  
 

 

सितंबर 25, 2023

उपयोग करने लगे नायकों का ( शहीदों की चिताओं पर ) डॉ लोक सेतिया

उपयोग करने लगे नायकों का ( शहीदों की चिताओं पर ) डॉ लोक सेतिया 

किसी एक की बात नहीं है गांधी सुभाष भगत सिंह सभी को हम लोगों ने अपने अपने मतलब की खातिर उपयोग करना शुरू कर दिया है । उनके विचार उनके आदर्श पीछे छूट गए हैं और उनके नाम उनकी तस्वीरें उनके बुत महत्वपूर्ण लगने लगे हैं । उनको पढ़ने की फुर्सत नहीं कोई चाहत भी नहीं कोई ज़रूरत भी नहीं महसूस होती किसी को । इधर लोगों ने अपने अपने नायक चुन लिए हैं हर साल जिनका कोई दिवस मनाते हैं लेकिन असली मकसद उनकी राह पर चलना नहीं उनके नाम का इस्तेमाल अपने खुद की उन्नति के लिए करना हो गया है । पहली बार स्थानीय कॉलेज में इक कवि गोष्ठी आयोजित हुई थी जब हमारा शहर ज़िला बनाया गया था पचीस साल पहले उस अवसर पर अपनी जो रचना पढ़ी थी उसी से शुरुआत करता हूं ।  
 

जश्न ए आज़ादी हर साल मनाते रहे ( कविता ) 

जश्ने आज़ादी हर साल मनाते रहे
शहीदों की हर कसम हम भुलाते रहे ।

याद नहीं रहे भगत सिंह और गांधी 
फूल उनकी समाधी पे बस चढ़ाते रहे ।

दम घुटने लगा पर न समझे यही 
काट कर पेड़ क्यों शहर बसाते रहे ।

लिखा फाइलों में न दिखाई दिया
लोग भूखे हैं सब नेता झुठलाते रहे ।

दाग़दार हैं इधर भी और उधर भी
आइनों पर सभी दोष लगाते रहे ।

आज सोचें ज़रा क्योंकर ऐसे हुआ
 बाढ़ बनकर रहे खेत भी खाते रहे ।

यह न सोचा कभी आज़ादी किसलिए
ले के अधिकार सब फ़र्ज़ भुलाते रहे ।

मांगते सब रहे रोटी , रहने को घर
पांचतारा वो लोग होटल बनाते रहे ।

खूबसूरत जहाँ से है हमारा वतन
वो सुनाते रहे सब लोग भी गाते रहे ।
 
 
हम सभी अक्सर कोई न कोई दिन मनाते हैं , अधिकांश लोग मंच से बड़ी गूढ़ भाषा में गहराई की बातें किया करते हैं जो उस दिन या जिस की बात की जा रही होती है उन की शख़्सियत को वर्णित करती हैं । लेकिन कभी सोचा है कि  सभा ख़त्म होने के बाद किसी को कुछ याद ही नहीं रहता असर की बात तब होगी जब आप उस पर चिंतन करेंगे । इसलिए मुझे लगा भगत सिंह जी को लेकर वही रटी रटाई बातों से अलग सरल शब्दों में सार की बात कही जाए ।  

मुझे ऐसा महसूस होता है कि जिन भी महान देश के नायकों से हम प्रभावित होते हैं उनकी बनाई राह पर चलना चाहते हैं उन सभी का कुछ न कुछ अंश हमारे भीतर समाया रहता है । भगत सिंह महात्मा गांधी या अन्य क्रन्तिकारी या आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों से देश की आज़ादी के बाद देश समाज को बेहतर बनाने में योगदान देने वाले कितने आदर्शवादी लोग हमारे दिल दिमाग़ पर सोच समझ पर असर छोड़ जाते हैं । मैं मानता हूं की नानक कबीर से लेकर दुष्यंत कुमार तक मेरे भीतर समाये हुए हैं । आधुनिक काल के तथाकथित नायक महानायक इतने बौने हैं कि उनको कोई छाप शायद किसी पर रहेगी तभी उनको अपनी महिमा का गुणगान प्रचार प्रसार करोड़ों रूपये खर्च कर करवाना पड़ता है मीडिया टीवी अखबार पर इश्तिहार छपवाकर बैनर लगा कर सड़कों चौराहों पर ।  
 
  थोड़ा अलग ढंग से बात कहना चाहता हूं जिसे आलोचना या कटाक्ष नहीं समझना ये निवेदन है । हम सभी देशवासी खुद को देशभक्त कहते हैं मानते हैं किसी ख़ास दिन देशभक्ति का खूबसूरत नज़ारा हर जगह दिखाई देता है । और मुझे पूर्ण विश्वास है सभी में ये भावना सच्ची होती है । अंतर इस तरह से समझ सकते हैं कि कोई तस्वीर कितने रंगों से मिलकर बनाई गई होती है या किसी परिधान को कितनी अलग अलग चीज़ों से सजाया जाता है तब भी कोई इक रंग तस्वीर का या डिज़ाईन परिधान का अधिक आकर्षित करता है । अधिकांश लोगों की सोच और जीवन के आचरण में देशभक्ति का रंग यदा कदा दिखाई पड़ता है अन्यथा उनके लिए खुद अपने स्वार्थ सबसे महत्वपूर्ण होते हैं । देशभक्ति की बात उनके लिए किसी की तस्वीर किसी बुत किसी समाधि पर पुष्प अर्पित करने तक सिमित होती है किसी तरह से कोई बदलाव सभी देशवासियों की समानता या अनुचित के विरोध में मुखर होने का उनको ज़रूरी नहीं लगता है । जिस देश को अपनी जान से बढ़कर प्यार करने की बात करते हैं उसकी बदहाली पर खामोश होकर पल्ला झाड़ने वालों की देशभक्ति नेताओं अधिकारियों  के किसी अवसर पर दिये भाषण से लगता है जैसे किसी तस्वीर या परिधान के उस रंग को कोशिश कर पॉलिश कर चमकदार बनाया गया है कुछ क्षणों के लिए । देशभक्ति का रंग कभी भी फ़ीका नहीं पड़ना चाहिए तभी भगत सिंह गांधी की विचारधारा पर चल सकते हैं । स्वतंत्रता आंदोलन में भले उनके ढंग अलग अलग हों तब भी उनका मकसद एक था देश को आज़ाद करवाना लेकिन जैसा अब सामने है ऐसी आज़ादी की कल्पना उन लोगों ने नहीं की थी उनकी लिखी बातों को पढ़ेंगे समझेंगे तो शर्मसार होंगे कि क्या सोचा था क्या हुआ है और होता ही रहता है । 

आज़ाद भारत का ख़्वाब ( कविता ) 

इंसां सब हों बराबर जहां , बनाना है मिलकर वो जहां 

फूल प्यार के खिलें चहुंओर , झूमे नाचे सबका मनमोर । 

कहीं न हो किसी पर अत्याचार , जनसेवा नहीं हो कारोबार 

शिक्षा स्वास्थ्य सबका हो अधिकार , नहीं चले कोई लूटमार । 

हो सब के लिए जीने की आज़ादी , हो हर बेटी  इक शहज़ादी 

नहीं दहेज़ नहीं शोषण बालमज़दूरी , ख़त्म हो भेदभाव की बर्बादी । 

सरकारी दफ़्तर नहीं हों बदहाल , नहीं जनता के लिए बिछा कोई जाल 

अपनी ढपली अपना राग नहीं  , जनता और शासन का हो इक सुर ताल ।  

ख़त्म करेंगे जनधन की चोरी बेईमानी , हो जनता की ख़त्म हर परेशानी 

देशसेवा सबका होगा एक ही धर्म , सत्ता की नहीं होगी कभी मनमानी । 


                   समाज की हक़ीक़त  ( कविता )

सदियों की कश-म-कश में , शहीदों ने अपना ख़ून देकर दिलाई 

ज़ालिम के ज़ुल्म सहकर , कुर्बानियां जान की दे हमको आज़ादी

हमको देशभक्ति का सबक था पढ़ाया ,  कोई ख़्वाब था सजाया 

अपने घर को किस चिराग़ ने क्यों जलाया , समझ नहीं कोई पाया 

अब अपने घर का हर कोना सुलग रहा है , क्या दौर चल रहा है 

धुंवा धुंवा है बस्ती बस्ती दम सबका घुट रहा है , तनमन जल रहा है 

मज़बूत थी जो नीवें उनको हिला रहे हैं , गड़े मुर्दे उखाड़ कर ज़िंदा जला रहे है 

नाम पर धर्म के होने लगे हैं क़त्ल और , एकता के नाम पर टुकड़े बना रहे हैं  

 


 

 

सितंबर 21, 2023

शांति की कामना प्रार्थना और संदेश ( दिन मनाने का चलन ) डॉ लोक सेतिया

    शांति की कामना प्रार्थना और संदेश ( दिन मनाने का चलन ) 

                                    डॉ लोक सेतिया  

आज विश्व शांति दिवस है तो पहले उसी की चिंता करते हैं । शांति क्या और कैसी शांति मन की शांति या इक ऐसी शांति जो तूफ़ान से पहले की शांति होती है । हम तो कमाल करते हैं जिसे चैन से इक पल जीने नहीं देते उसकी मौत पर शांति शांति शांति की रट लगाते हैं शोक सभाओं में शोक कम दिखावा अधिक होता है । अभी तक कोई पढ़ा लिखा ज्ञानवान शांति का पता ठिकाना नहीं तलाश सका है जाने कितने साधु संत महात्मा शांति की ख़ातिर भटकते रहे और बेचैन रहे शांति के साक्षात दर्शन नहीं संभव हुए । बाद में उनके उपदेश सुनकर पढ़कर लोग किसी कल्पनालोक की कल्पनाओं में खोये रहते हैं । देशों में आपसी विवाद शांति से हल करने की बात जिस ने की थी पंचशील समझौता की बात कर उसको सभी ने दोषी अपराधी जाने क्या क्या नहीं साबित करने का जतन किया , उनकी भावना उनकी कोशिश उनकी समझ उनकी भविष्य की सोच , सब को इक जंग ने जो पड़ोसी देश ने पीठ में छुरा घोपने का कार्य कर सरहद पर विश्वास दोस्ती भाईचारे का खून बहाकर छेड़ दी थी उस ने व्यर्थ साबित कर दिया । अभी भी हम उसी ज़हरीले सांप को दूध पिलाने की परंपरा निभाते चले आते हैं । हर बार उसकी बातों में आते हैं अपना सब लुटाते गंवाते हैं फिर पाछे पछताते हैं । चिड़िया चुग गई खेत और हम कबूतर उड़ाते हैं ये सफ़ेद रंग वाले पंछी आशिक़ों के बड़े काम आते हैं बड़ी गोपनीयता से संदेश सोशल मीडिया की तरह पहुंचाते हैं । सभी देशों के शासक शांति दिवस का महत्व समझाते हैं हम अब कितने बलशाली हैं क्या क्या साज़ो-सामान बनाते हैं दुश्मनों को धूल चटाते हैं । दोस्ती का किसी से नाता नहीं है दुश्मनी का हिसाब बराबर रखते हैं बड़े बड़ी बातें करते इतराते हैं । शांतिदिवस कोई मकसद नहीं है बस इक औपचरिकता है जो जाने कितने अन्य भी अलग अलग नाम से मनाकर निभाते हैं ।  
 
  अभी फिर देश को पुराना भूला किस्सा याद आया संसद नई बनाकर नया ढंग आज़माया , पर महिला दिवस नहीं है ये चुनाव का है इक घना काला साया । शर्तों की बात लाज़िम है तीसरा हिस्सा मिले क्या कम है इक यही औरत पर सितम है उसका अधिकार नहीं सिर्फ रहम है हाय फिर भी कितना मातम है । अभी काफ़ी इंतज़ार करना होगा उनको जीने से पहले मरना होगा , ये सवाल बेमानी है जिस का कहना है मेहरबानी है कब उसने अपनी पत्नी को न्याय दिया सारी दुनिया की फ़िक्र नादानी है । आईए इक राह बनाते है इस आरक्षण को जड़ से मिटाते हैं आपको जनसंख्या की ज़रूरत है आधा-आधा फ़िफ्टी -फ़िफ्टी फार्मूला बनाते हैं । जितने भी दल हैं पचास फ़ीसदी पुरुष पचास फ़ीसदी महिला उम्मीदवार खड़े कर दिखाते हैं कि हम बराबर हैं महिलाओं से नहीं घबराते हैं । शिक्षा रोज़गार स्वास्थ्य सेवा इन सभी में बड़े फासले हैं अमीर और गरीब के लिए सही आज़ादी और समान विकास के लिए समानता लाते हैं ये अंतर ये ज़ुल्म देश पर इक कलंक है उसको मिटाते हैं । चांद से क्या लेना देना अपनी धरती को सुरक्षित बचाते हैं पेड़ जंगज काट काट कर पर्यावरण को बर्बाद किया है अब कसम खाते हैं सही राह लौट जाते हैं । अन्यथा मरघट की शांति की आहट सुनाई देने लगी है मानवता की खैर मनाते हैं इंसानियत को ज़िंदा रखते हैं सब फ़ज़ूल की बातें भूल जाते हैं । झूठ और सच को इक तराज़ू पर रख कर देख लिया है किस तरफ़ झुका पलड़ा क्यों थोड़ा समझते हैं समझाते हैं सत्ता वाले झूठ वाले पलड़े पर इक चुंबक लगाते हैं और अपनी सफलता पर इतराते हैं ये बहुमत की सियासत है जिस में इंसान नहीं बेजान तोले जाते हैं । 
 

 

सितंबर 18, 2023

ज़हर हंस कर के पीना आ गया है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 ज़हर हंस कर के पीना आ गया है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

ज़हर हंस कर के पीना आ गया है 
रोज़ मर मर के जीना आ गया है । 
 
ज़ख़्म देने हैं जितने आप दे लो 
हम को ज़ख़्मों को सीना आ गया है । 
 
जिस जगह भी कदम थक कर रुके हैं 
बस वहीं घर का ज़ीना आ गया है ।  
 
ज़िंदगी आख़िरी दम तक लड़ेगी 
मौत को क्यों पसीना आ गया है । 
 
थी कभी सब शरीफ़ों की ये बस्ती
दौर अब जामो मीना आ गया है । 
 
दफ़्न जिसको किया था आपने ख़ुद 
है खबर फिर कमीना आ गया है । 
 
साल ' तनहा ' नया आना था लेकिन 
एक गुज़रा महीना आ गया है । 
 

  

सितंबर 16, 2023

ख़ुद को बदला नहीं हमने ( हाल-ए-दिल ) डॉ लोक सेतिया

       ख़ुद को बदला नहीं हमने ( हाल-ए-दिल ) डॉ लोक सेतिया 

ये नहीं हुआ हमसे ख़ुद को बदलना दुनिया को देख कर , जाने लोग कैसे कर लेते हैं ध्यान से देखा कहीं सब एक साथ तालियां बजा रहे थे कहीं ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगा रहे थे , कहीं किसी के निर्देश पर जैसा वो समझाता उसी तरह हाथ पांव चला रहे थे । महफ़िल में साथ निभाने को जैसा सब करते हैं आपको भी उनकी तरह करने की आदत डालनी होगी । सब नाच रहे हों तो आपको नाचना आये न आये आपको नाचने की चाह हो या नहीं नाचना ही पड़ेगा जैसे कोई कठपुतली नाचती है किसी के इशारे पर जिस ने डोर अपने हाथ में पकड़ी होती है । हमको महफिलों का तौर तरीका नहीं आया और हम जीवन भर चलते रहे अकेले ही ख़ुद जिस राह पर ज़िंदगी ले जाती रही । सोचते थे कोई कारवां नहीं कोई भीड़ का मेला नहीं कम से कम कोई दो चार साथी ही मिलते तो मुमकिन था सफ़र की थकान महसूस नहीं होती । हुआ कितनी बार कुछ दोस्त कुछ अपने संग संग चले लेकिन हमेशा बार बार एक एक कर हर कोई साथ छोड़ता रहा बिछुड़ता रहा फिर भी हमने चलना नहीं छोड़ा उसी राह पर किसी अनदेखी मंज़िल की तलाश को बढ़ते ही रहे । लहरों से टकराकर उस पार जाना चाहा तो मांझी ने साथ छोड़ दिया कहकर कि उस पार कुछ भी नहीं बस इक वीराना इक जंगल कोई रेगिस्तान है जिस में हमको उम्मीद है किसी सुखदायक जगह या शाद्वल के मिलने की । 
 
अपनी तन्हाइयों से हमको कभी कोई परेशानी नहीं हुई हां महफ़िलों की आबो-हवा हमको कभी रास नहीं आई अक़्सर ख़ुद ही उकताकर उठ कर चले आए या फिर महफ़िल से निकाला गया ख़ुद ही बुलाने वालों द्वारा । अदब वालों की बेअदबी भला कौन समझा है जाने कितनों को ये ज़िल्ल्त सहनी पड़ती है अक़्सर साहित्य की सभाओं में लिखने वाले अपमानित महसूस करते हैं जब मंच पर असभ्य आचरण करने वाले क्या क्या उपदेश देते हैं । ईनाम - पुरुस्कार धनवानों की कसौटी पर परखे जाते हैं और जिन्होंने कभी साहित्य को पढ़ा नहीं जाना नहीं समझा नहीं साहित्यिक सभाओं में जाने किस से लिखवा कर लाते हैं शानदार बातें जिनका अर्थ खुद उनको शायद ही मालूम होता है । जहां सामाजिक सरोकार की चर्चा होनी होती है तमाम तरह की चाटुकारिता और राजनीति की छोटी बातें की जाती हैं । 
 
जब भी लोग मिल बैठते हैं सार्थक संवाद नहीं बल्कि अनावश्यक इधर उधर की बुराई की अथवा किसी की झूठी गुणगान की बातें होती हैं । मुझ जैसे व्यक्ति को जिसे व्यर्थ की बहस में उलझना पसंद नहीं दोनों ही पक्ष की बात करने वालों को समस्या होती है ख़ामोशी का अर्थ उनको आलोचना या विरोध से बढ़कर लगता है । बस कुछ इस तरह से भीड़ भरी महफिलों से बचकर अलग रहना सीख लिया है लेकिन तब भी बहुत लोग शिकायत करते हैं कि मैं उनकी अहमियत नहीं समझता । कभी कभी कोई समझाता है बड़े महान लोगों की बातों को लेकर लिखना छोड़ आधुनिक युग के आस-पास के लोगों की बातों को महत्व दिया करूं तभी मुझे भी बहुत कुछ हासिल हो जाएगा । अपना ईमान बेच कर जागीर बनाना , मुझे तो सबसे बड़े मुफ़लिस वही लोग लगते हैं जो ऐसा कर शानो-शौकत से रहते हैं । अपने आप अपने साथ रहना अकेलापन नहीं लगता मुझे तो महफिलों में अजनबीपन का एहसास होता है तन्हाई में सोचना समझना ख़ुद से मुलाकात करना सुकून देता है । आखिर में दो पुरानी कविताएं लिख कर बात को विराम देता हूं । 
 
   

सफ़र ज़िंदगी का ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

ख़्वाबों में ख्यालों में जिए हैं हम 

ख़ुशी नहीं कोई न है कोई ग़म 

आरज़ू करते करते मुरझाए फूल 

दिन ख़िज़ाओं के न हो सके कम ।

हर किसी पर ऐतबार किया है 

हम सबके हैं अपने सभी यहां पर 

किसी को आना था न आया कोई 

जाने क्यों किस का इंतज़ार किया है ।

सब को चांदनी नहीं कभी भी मिलती 

नादानी वो चांद को छूने की कोशिश 

यही यूं ही हमने कई बार किया है पर

ज़िंदगी ठहरी नहीं कहीं रही चलती । 

 

नये चलन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

छोड़ गये डूबने वाले का हाथ

लोग सब कितने समझदार हैं

हैं यही बाज़ार के दस्तूर अब

जो बिक गये वही खरीदार हैं ।

जीते थे मरते थे उसूलों पर

जाने होते कैसे वो इंसान थे

उधर कर लेते हैं कश्ती का रुख

जिधर को हवा के अब आसार हैं ।

किया है वादा निभाना भी होगा

कभी रही होंगी ऐसी रस्में पुरानी

साथ जीने और मरने की कसमें

आजकल लगती सबको बेकार हैं ।

लोग अजब हैं अजब शहर अपना

देखते हैं सुनते हैं बोलते नहीं हैं

सही हुआ गलत हुआ सोचकर

न होते कभी भी लोग शर्मसार हैं ।


 

सितंबर 10, 2023

इंडिया को भारत बनाएं ऐसे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        इंडिया को भारत बनाएं ऐसे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

  ये मौसम कितना सुहाना है किसी से प्यार जतलाना है , आई लव यू लिखा था मिटाना है , मुझको तुम से प्यार है कहलवाना है । बड़ा खूबसूरत इक गाना है ना-ना-ना-ना बोलना छुड़वाना है बस हामी भरवाना है । क ख़ ग घ याद रखना है ए बी सी डी को भूल जाना है ये किस्सा नया है सदियों पुराना है । जिसको याद रखना था उसी को भूल जाना है बिगड़ी हुई तकदीर को इस तरह से बनाना है नहीं कोई भी हम जैसा ज़माने को दिखाना है । क़र्ज़ लेकर घी पियो का सबक फिर दोहराना है अभी तो जीना है कल का क्या इक दिन सबको मर जाना है । उधार मिलता है जितना ले लो चुकाएगा कोई जिस को इतिहास बनाना है ये सब कागज़ के खेल हैं खिलाड़ी हम खेल हमारा दुनिया को खिलाना है । 
 
  हिंदी पढ़ना लिखना ज़रूरी है  , यही सबसे बड़ी मज़बूरी है । कॉलेज विश्वविद्यालय नहीं गुरुकुल बनाएंगे , संस्कृत भाषा अपनाएंगे हिंदी को तब भी बोलते हुए घबराएंगे । शहर महानगर विदेशी आचरण सबकी बारी आएगी बकरे की मां आखिर कब तक खैर मनाएगी । अपनी पुरानी विरासत वेश भूषा खेत खलियान पुराने गांव और सीधे सच्चे भोले भाले लोग यही पहचान होगी भारतवासी हैं और जो भी आधुनिकता की बात करेगा इक पाप या अपराध करेगा । हमको फिर वापस जाना है अपना सब कुछ बहुत पुराना बनाना है जो सच है सामने समझना ये इक अफ़साना है । हमने असंभव को संभव कर दिखाना है सदियों का लिखा इतिहास मिटाना है सागर का सारा का सारा पानी वापस नदियों को लौटना है । सरकारी बही खाते में रुपया पैसा नहीं कौड़ी अशर्फी दमड़ी धेला पाई का चलन चलाना है डॉलर वॉलर पाउंड को उनकी औकात दिखाना है मॉम डैड अंकल आंटी पर प्रतिबंध लगाना है माता पिता चाचा ताऊ दादा नाना दादी नानी बच्चों से कहलाना है । ये चुनावी खेल की राजनीति जिस ने हमको बर्बाद किया इस लोकतंत्र की लाश को दफ़नाना और जलाना है । जनता जनता है राजा राजा है किस बात को फिर शर्माना है हम शासक हैं शानो शौकत है बादशाही का लुत्फ़ उठाना है जो मनमर्ज़ी करने का ऐलान कितना पुराना है । हमने बनाने ताजमहल अपनी मुहब्बत वाले और जिन हाथों ने बनाया उनको तलवार से कटवाना है मुहब्बत और जंग में सब जायज़ है क्या क्या नहीं दिखलाना है । सभी झूठे हैं चालाक है चोरी करना चाहते हैं मगर अदालत में सभी को निर्दोष ईमानदार का सर्टिफिकेट लाकर सबको उल्लू बनाना है । देशभक्ति का कारोबार करना सीखना और सिखाना है सबको खुद सभी चाहिए नहीं समाज को कुछ भी लौटाना है ।
 
जो भी होगा अच्छा होगा ज़ुल्म सहना चुप रहना है ये कच्ची मिट्टी की दीवार ही तो है बारिश में जिस को ढहना है । निराश होने की ज़रूरत नहीं है आपको उम्मीद कुछ रहती है होता जो है कभी सोचा नहीं था क्या होना था क्या होने की बात है यही उजाला है यही काली अंधियारी रात है भारत के सामने इंडिया की क्या औकात है । अभी तलक  सब तरफ इंडिया का मचा हुआ शोर था भूल जाओ कैसा अजब दौर था आने वाली इक सुहानी भौर है बिजली कड़क रही है चमक रही है बड़ा शोर है । भारत क्या है इंडिया किसे कहते हैं बस ऐसे सवालों ने देश को बढ़ने नहीं दिया है हम जो चाहते थे नहीं बन सके और जो थे हमको वो रहने नहीं दिया । कुछ लोगों को मंज़ूर ही नहीं लोग चैन से ज़िंदा रहें । प्राण जाए पर वचन न जाए इक पुरानी फिल्म है आशा भोंसले जी की आवाज़ में इक गीत है , चैन से हमको कभी अपने जीने न दिया । चांद के रथ पर रात की दुल्हन जब जब आएगी , याद हमारी आपके दिल को तड़पा जाएगी  , इक पल हंसना कभी दिल की लगी ने न दिया । प्यार से जलते ज़ख्मों से जो दिल में  उजाला है अब तो बिछड़ के और भी ज़्यादा बढ़ने वाला है
आपने जो भी दिया वो तो किसी ने न दिया ज़हर भी चाहा अगर पीना तो पीने न दिया । शहंशाहों की चाहत का हासिल यही होता है उनके पसंदीदा डायलॉग हुआ करते हैं जीने भी नहीं देंगे मरने भी नहीं देंगे । चलो बहुत कुछ बदलने वाले थे बदला भी मगर हासिल कुछ भी नहीं हुआ तो अब नाम ही बदलते हैं इंग्लिश से हिंदी की तरफ कदम बढ़ाते हैं इस हिंदी दिवस पर यही आज़माते हैं ।     

शायर सुदर्शन फ़ाख़िर कहते हैं :-

कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया

और कुछ तल्ख़ी-ए-हालात ने दिल तोड़ दिया

हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब

आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया

दिल तो रोता रहे ओर आँख से आँसू न बहे

इश्क़ की ऐसी रिवायात ने दिल तोड़ दिया

वो मिरे हैं मुझे मिल जाएँगे आ जाएँगे

ऐसे बेकार ख़यालात ने दिल तोड़ दिया

आप को प्यार है मुझ से कि नहीं है मुझ से

जाने क्यूँ ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया


 


सितंबर 07, 2023

आज का सोशल मीडिया ज्ञान ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

 आज का सोशल मीडिया ज्ञान ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

बात असली है , जैसे पेड़ से सेब गिरा तो न्यूटन को गुरुत्व आकर्षण की बात समझ आई , मुझे किसी ने व्हाट्सएप्प पर इक संदेश भेजा और  मैंने उस खूबसूरत काल्पनिक संदेश की बात करनी चाही तो फोन पर कॉल मिलाने पर आवाज़ सुनाई दी इस नंबर पर इनकमिंग कॉल की सुविधा नहीं है । इस इक घटना को ठीक से समझने की कोशिश की है , बहुत कारोबारी लोग यही करते हैं , अपना विज्ञापन भेजते हैं कोई उनसे संपर्क नहीं कर सकता है । हो सकता है उपरवाले को इस का खयाल पहले आया हो तभी मंदिर मस्जिद गिरजा घर गुरूद्वारे से उपरवाले का संदेश सुनते हैं सभी दुनिया वाले लेकिन लगता है सबकी प्रार्थनाएं दुआएं विनती उस तक नहीं पहुंचती है । मुझे इक दिन लगा था तभी मैंने इक कविता लिखी थी आगे की पोस्ट बाद में अभी उस कविता को पढ़ कर समझते हैं ।

      सिसकियां ( कविता ) 

वो सुनता है
हमेशा
सभी की फ़रियाद
नहीं लौटा कभी कोई
दर से उसके खाली हाथ ।

शोर बहुत था
उसकी बंदगी करने वालों का वहां
तभी शायद 
सुन पाया नहीं
आज ख़ुदा भी वहां
मेरी सिसकियों की आवाज़ ।  
 
सोशल मीडिया से मिली जानकारी सही गलत कुछ भी हो सकती है लेकिन ये इक ऐसा जाल है जिस को कोई नहीं समझ सकता है बल्कि अधिकांश खुद इस में फंसते हैं और मतलब की खातिर कोई जाल बुनते हैं दुनिया को फंसाने को । हर शख़्स ख़ुद को खिलाड़ी समझता है और हर कोई कभी न कभी किसी न किसी के बिछाए हुए जाल में फंस भी जाता है । सरकारी उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों की फ़ोन कॉल मिलती है , मैं अमुक व्यक्ति बोल रहा हूं आपको अमुक अवसर की बधाई शुभकानाएं देता हूं । कभी कोई घोषणा कभी समर्थन कभी मन की बात आपको देशवासियों को सुनाई देती है लेकिन आपको आवाज़ उधर नहीं पहुंचती कभी आपको केवल सुन कर उनकी हां में हां मिलाना है । इधर इक विकल्प देते हैं किसी नंबर पर मिस कॉल कर सकते हैं और आप उनकी हर बात से सहमत समझे जाते हैं । 
 
हमारे समाज में अजीब अजीब बातें होती हैं कुछ लोग आपके घर आना चाहते हैं जब आवश्यकता पड़ती है पूछ कर या बिना बताए भी लेकिन कभी उनकी नगरी उनकी बस्ती जाते हैं तो तरीका सलीका बिल्कुल अलग होता है । आपको सभाओं में बुलाते हैं मगर ध्यान नहीं रहता बुलावा भेजा था और ऐसा जतलाते हैं कोई बिना बुलाए महमान हैं । राजनेताओं को तो चलो भीड़ जमा करनी होती है मगर साहित्य की सभा का आयोजन करने वाले भी जब अदबी शिष्टाचार और सभ्य आचरण करना नहीं जानते तब आपत्तिजनक लगता है । हर साल हिंदी दिवस पर इक तमाशा दिखाई देता है कुछ लेखकों को सम्मानित करने को आमंत्रित किया जाता है लेकिन सभा में उनकी तरफ नहीं कुछ साहूकार चंदा देने वालों किसी धनवान दानवीर किसी राजनेता या किसी अधिकारी की तरफ ध्यान रखते हैं । सम्मानित होने वाले वास्तव में अपमानित होते हैं और साहित्य की सभा में धनपशु आदरणीय हो जाते हैं । 
 
व्हाट्सएप्प फेसबुक की बदहाली का आलम है कि हर कोई अनावश्यक इधर उधर से मिले संदेश आगे सबको भेजता है खुद नहीं पढ़ता किसी भी सार्थक संदेश को क्योंकि परखता नहीं क्या सार्थक है क्या निरर्थक । ये क्या है समझदार होने का इतना भरोसा कि पागलपन बन गया है । आजकल आपस में मिलकर या फोन पर बातचीत चर्चा कम बहस अधिक होती है और सोशल मीडिया और अखबार टीवी चैनल से यूट्यूब तक इक अखाड़ा बन गया है । कागज़ी शेर कागज़ की तलवारों से जंग लड़ते हैं लगता है कागज़ की नाव पर सवार हैं भवसागर पार करने को व्याकुल हैं । आधुनिकता ने इतना मतलबी बना दिया है कि कोई बिना कारण किसी से मेलमिलाप नहीं रखता है सभी सामाजिक होने का दावा करते हैं पर संवाद अपनी सुविधा और ज़रूरत के अनुसार करते हैं । हम समझते हैं कौन किस मकसद से संवाद स्थापित कर रहा है लेकिन ख़ामोश रहते हैं इसलिए कि किसी दिन हम भी ऐसे ही कोई नकाब ओढ़कर किसी से मुलाक़ात करने जाएंगे ।   
 

 

सितंबर 05, 2023

आगे-आगे देखिए होता है क्या ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     आगे-आगे देखिए होता है क्या ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

असली बात धंधे की है बाकी पढ़ाई लिखाई सब बेकार की सरखपाई है आज शिक्षक दिवस है आपको वही सीखना है जिस में पलक झपकते ही 615 करोड़ का निवेश 31000 करोड़ का कारोबार कर सके । हमने कर दिखाया है चंद्रयान 3 से झंडा फहराया है दुनिया का सर चकराया है । इक स्याने ने सोचा है समझ कर गणित लगाया है सुना है युगों पहले सूरज को किसी ने निगला था अंधियारा छाया था उसने सबकी विनती सुन कर सूरज को छोड़ दिया था दुनिया को मिटने से बचाया था । उसकी तलाश है इक उसी की आस है फिर से दिखलाना है दोहराना है और सूरज को अपना बंदी बनाकर विश्वगुरु से सबसे बड़ी ताकत बन कर अपना सिक्का चलाना है ।  दुनिया सोना चांदी पट्रोल हवाई जहाज़ बेचे हमको तो सूरज की धूप और उजाला बेचना है और हर घड़ी मुनाफ़ा बनाना है दुनिया के सभी देशों को अपने घर बुलाना है ज़िंदगी क्या है छांव क्या धूप क्या करिश्मा दिखलाना है । बेचना आता है जिस को वो सब बेच सकता है यहां तो राजनेता पत्रकार ज़मीर बेच कर मालामाल होते जाते हैं । बिकने को हर कोई तैयार है कीमत मिलने का बस इंतज़ार है । इक कहानी है सूरज भी चांद को अपने से नीचा समझता था और उस से कहता तुम्हारे होने नहीं होने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है । किसी नगरी वालों का अनुरोध सुनकर दिन रात दिखाई देने लगा मगर कुछ ही दिन में लोग बेहाल हो गए और चांद से विनती की उनकी परेशानी दूर कर रात को फिर से उगने लगा तभी जीवन संभव हो पाया । 
 
कोई खुद को सूरज जैसा अहंकार लिए कभी नहीं अस्त होने की ज़िद करने लगा है । दुनिया को अपनी गर्मी अपनी तपिश से झुलसाने का भय दिखला खुद को सबसे महत्वपूर्ण घोषित करने को खुद ही राख होने लगा है । सपनों की ज़िंदगी जीते जीते मदहोश होने लगा है अपने ही को देख कर दृष्टि खोने लगा है । धरती पर छाई घनी काली अंधियारी रात है सूरज नहीं मानता उसके लिए रात भी दिन है रात की क्या औकात है । धरती से उसका दूर का नाता है उसको जलाना आता है बादलों से छिप कर रहना नहीं भाता है । इक आग है जिस में नहीं पानी है सूरज को नहीं याद नानी की कहानी है जो भी करीब आता है बाद में पछताता है । सूरज का अपना निज़ाम है जिस किसी को गले लगाता है उसका निशां तक नहीं नज़र आता है । धरती वालों की अजब माया है धरती को नहीं संवारा चांद से दिल लगाया है ये सारी सच में इक झूठी मोह माया है इन सुनहरे ख्वाबों ख्यालों ने बड़ा सितम ढाया है । ये धूप है लगती है साया है दुष्यंत कुमार कभी ये राज़ कोई नहीं समझा है क्या झूठ की नगरी है क्या खोया क्या पाया है । 
 

 

सितंबर 02, 2023

करीब होकर भी दूरियां ( कहानी ) डॉ लोक सेतिया

      करीब होकर भी दूरियां ( कहानी ) डॉ लोक सेतिया 

कहानी शीर्षक देने से ये कहानी नहीं बन सकती है ये बताना लाज़मी है कि ये किसी की कहानी नहीं लेकिन हम सभी की ज़िंदगी की हक़ीक़त ज़रूर है । कविता ग़ज़ल या व्यंग्य निबंध कुछ भी इस विषय को पूर्णतया समझा नहीं सकता और उपन्यास बन नहीं सकता इसलिए यही विकल्प बचता है कहानी कह दिया जाए । मगर इस को कहानी बनाना चाहता नहीं क्योंकि तब कितने किरदार बनाने पड़ते हैं और पाठक उन सभी किरदारों में वास्तविक संदेश को अनदेखा कर सकते हैं । आप इस को चर्चा समझ सकते हैं और बिना किसी को मुजरिम ठहराए विमर्श कर सकते हैं कौन सही कौन गलत है इस का निर्णय करना व्यर्थ है । कुछ गलतियां अपनी कुछ सामने वाले साथी की हो सकती हैं मगर समझना इस बात को है कि परिवार में दोस्ती में प्यार में कैसे मधुरता बनाई और कायम की जा सकती है ताकि अनावश्यक टकराव की नौबत ही नहीं आये । 
 
अधिकांश लोग चाहते हैं जिनसे प्यार का रिश्ता है भाई बहन पिता माता अथवा पति - पत्नी का उनको बदल सकें और जैसा हम चाहते हैं उस तरह से आचरण करना सिखला सकें । यही सबसे बड़ी समस्या है किसी को प्यार करते हैं तो उसको आज़ादी से क्यों नहीं जीने देना चाहते हैं । बेशक अपनों की भलाई को देख किसी बात पर मार्गदर्शन किया जाना उचित है लेकिन समझाने के बाद क्या सही है क्या नहीं ये निर्णय तो उस पर छोड़ना होगा अन्यथा विवश करना किसी को कैद में गुलामी के पिंजरे में रखना प्यार नहीं खुदगर्ज़ी होगी ।  कोई वास्तव में किसी को चाहता है तो ऐसा कभी नहीं कर सकता है जिस से उस को ख़ुशी नहीं दर्द और तकलीफ़ मिले जिस से प्यार करने का दम भरते हैं । ख़ासकर पति - पत्नी दो अलग अलग परिवेश से बड़े होते हैं और बचपन से दोनों की अपनी अपनी समझ पसंद विकसित होती है , लेकिन ऐसा होता है कि दोनों में कोई स्वीकार नहीं करता कि दूसरा उसकी बात को नहीं माने जबकि खुद वो उसकी भावनाओं की कदर नहीं करता है । सामान्यतय: हम अनचाहे मन से स्वीकार कर लेते हैं और किसी भी तरह रिश्ता निभाते रहते हैं । लेकिन ऐसा जीवन कभी कोई वास्तविक ख़ुशी नहीं दे सकता है और मन के भीतर इक असंतोष दबाए रहते हैं । सही नाते में इक दूसरे को समझना भी ज़रूरी है और आपस में इक दूजे की भावनाओं का आदर करना भी । मतभेद होने पर स्वस्थ संवाद किया जा सकता है मगर उस के बाद उचित अनुचित का निर्णय अपना अपना होना चाहिए और इतना ही नहीं हमें अपने पति पत्नी प्रेमी प्रेमिका दोस्त पर विश्वास करना चाहिए कि वो कुछ भी ऐसा नहीं करेगा जिस से आपको ठेस पहुंचे और यही आपको भी समझना ज़रूरी है ।
 
अजीब बात है इधर हम कहने को बेहद करीब होते हैं पर असल में हम में दूरियां बढ़ती जाती हैं । कैसी विडंबना है कभी फासले हुआ करते थे मिलना जुलना कठिन होता था तब भी दिलों में चाहत रहती थी और आज जब आने जाने के साधन अच्छे हैं हम आपस में मिलने की चाहत नहीं रखते बल्कि समय पैसा होने पर कोई जगह ढूंढते हैं सैर करने को कुछ दिन ख़ुशी से बिताने को । घूमना फिरना बुरी आदत नहीं है लेकिन जब अपने दोस्तों परिजनों से मिलने को छोड़ अनजान अजनबी जगहों पर जाते हैं तो कुछ दिन की ख़ुशी मिलती है लेकिन अगर अपने मित्रों संबंधियों से मिलने जाते तो इक स्थाई ख़ुशी हमेशा हमको भी उनको मिलती । सोचा ही नहीं था कभी चिट्ठी का इंतज़ार किया करते थे फिर फोन पर हालचाल पूछते थे और अब हर किसी के पास स्मार्ट फोन है तब भी बिना मतलब कोई किसी से बात करना नहीं चाहता है । फेसबुक वहट्सएप्प ने तो ऐसा कमाल कर दिया है कि गैर से रिश्ते बनाते हैं और अपनों से फासले बढ़ाते हैं । किस किस को किसी ने क्यों ब्लॉक किया है ये किसी पहेली से कम नहीं , कारण कुछ और हैं और कहते हैं उनकी सोच हमारी सोच से नहीं मिलती या फिर फुर्सत नहीं का बहाना है जबकि दिन भर व्यर्थ की बातों में समय बर्बाद किया करते हैं । इधर ज़िंदगी भर किसी से मिलते नहीं लेकिन मौत होने पर शोक-सभा में अवश्य जाते हैं इक तस्वीर पर फूल चढ़ाने जिस को मुमकिन है हमेशा कांटे ही मिलते रहे हों जीवन भर । 
 

 
 
    

सितंबर 01, 2023

किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते ( अफ़साना ) डॉ लोक सेतिया

किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते ( अफ़साना ) डॉ लोक सेतिया 

मुनीर नियाज़ी जी के अश्यार से बात शुरू करता हूं । शायर कहता है सवाल सारे गलत थे जवाब क्या देते । मुझे अपना अफ़साना सुनाना तो नहीं दुनिया ज़माने को फिर भी अक्सर ख़्याल आता है कोई पूछे तो बताएं क्या । कितनी ग़ज़ल कितने अल्फ़ाज़ ज़हन में चले आते हैं उन में खो जाता हूं सभी अपनी बातों को भुलाकर लगता है हर किसी को हर किसी की मन की बात समझ आये ये मुमकिन ही नहीं । यहां हर शख़्स वही देखता है जो उसको देखना है आत्ममुग्ध हैं सभी कहां फुर्सत किसी को कोई जाने समझे । कुछ भी नहीं मांगा कभी किसी से चाहा भी तो थोड़ा सा प्यार अपनापन जो नहीं मिला जीवन भर इक यही प्यास रही है । मेरे भीतर इक सागर है प्यार का किसी को प्यार मुहब्बत का सबक पढ़ना ही नहीं हर कोई नफरतों का जंगल अपने अंदर लिए ख़ुद भी आग में जलता है और सब को जलाकर राख करना चाहता है । ऐसे में किस किस को क्या बताऊं मैं कौन हूं और क्या हूं किधर से आया किस तरफ जाना है । कोई ठौर है न कोई ठिकाना है चार दिन का आबोदाना है इक नाता है जिसे निभाना है सब नया है कुछ है पास अभी बड़ा पुराना है । ख़ामोश हो जाता हूं तो लोग कोई और मतलब निकाल लेते हैं सवालात ख़त्म नहीं होते नये नये सवाल निकाल लेते हैं । मुझे शतरंज खेलना नहीं आया कभी सामने वाले खुद मेरी जगह खिलाड़ी बन कर मुझे हमेशा हराते हैं जब जैसा चाहे चाल निकाल लेते हैं । मैं बहता शीतल पानी और लोग तपती लू की तरह किसी अनदेखी आग की तरह तपिश लिए हुए हैं लाख कोशिश की उनकी गर्मी को ठंडक देने की लेकिन मेरा अस्तित्व पानी का क्षण भर में ख़त्म होता गया और मिट कर भी उनकी नफ़रत की गर्मी को कम नहीं कर पाया । 
 
कितनी बार सोच लिया यहां कोई नहीं अपना फिर क्यों किसी से कोई गिला शिकवा करना । अजीब लोग हैं दुनिया वाले न अपनाते हैं न छोड़ते हैं अपने हाल पर जब चाहा पास बुलाया जब चाहा दूरियां बनाते रहते हैं । इतनी जल्दी मौसम भी नहीं बदलते जितनी जल्दी लोग किरदार बदल लिया करते हैं । अब दिल को कोई मलाल नहीं होता आदत हो गई लोगों की बदलती बातों को देखने की समझना ज़रूरी ही नहीं लगता और कब कोई अपना पराया हो जाता है समझना मुश्किल है । जिस का कोई नहीं उसको उपरवाले का आसरा होता है ये सोच कोशिश की उसी से रिश्ता निभाने की पर कितना कैसे कोई कब तक निभाये किसी पहेली की तरह है । अच्छा हूं या बुरा हूं उस से छुपा नहीं अब उसकी मर्ज़ी मुझे समझे अपना या छोड़ दे अकेला सब की तरह । हम दुआ करते हैं उस तक पहुंचती है सदा कि नहीं क्या खबर । आखिर में दो रचनाएं पुरानी इक कविता और इक ग़ज़ल से बात को छोड़ते हैं कुछ आधी अधूरी कभी होगी पूरी क्या ये है ज़रूरी कुछ होती है सबकी अपनी अपनी मज़बूरी ।

प्यार की आरज़ू ( कविता ) 

बहार की करते करते आरज़ू
मुरझा गए सब चमन के फूल
खिज़ा के दिन हो सके न कम 
यूं जिए हैं उम्र भर हम ।

हमने तो इंतज़ार किया
उनके वादे पे एतबार किया
हम हैं उनके और वो हमारे हैं
पर इक नदी के दो किनारे हैं ।

सब को हर चीज़ नहीं मिलती
नादानी है चाँद छूने की तमन्ना
हमीं न समझे इतनी सी बात
कि ज़िंदगी है यूं ही चलती ।

प्यार की जब कभी बात होती है
आती हैं याद बातें तुम्हारी
इक खुशबू सी महकती है
चांदनी जब भी रात होती है । 
 
 

नहीं साथ रहता अंधेरों में साया ( ग़ज़ल )  

 

नहीं साथ रहता अंधेरों में साया
हुआ क्या नहीं साथ तुमने निभाया ।

किसी ने निकाला हमें आज दिल से
बड़े शौक से कल था दिल में बिठाया ।

कभी पोंछते जा के आंसू उसी के
था बेबात जिसको तुम्हीं ने रुलाया ।

निभाना वफा तुम नहीं सीख पाये 
तुम्हें जिसने चाहा उसी को मिटाया ।

चले जा रहे थे खुदी को भुलाये
किसी ने हमें आज खुद से मिलाया ।

खड़े हैं अकेले अकेले वहीँ पर
जहाँ आशियाँ इक कभी था बसाया ।

उसे याद रखना हमेशा ही "तनहा"
ज़माने ने तुमको सबक जो सिखाया ।