सितंबर 16, 2023

ख़ुद को बदला नहीं हमने ( हाल-ए-दिल ) डॉ लोक सेतिया

       ख़ुद को बदला नहीं हमने ( हाल-ए-दिल ) डॉ लोक सेतिया 

ये नहीं हुआ हमसे ख़ुद को बदलना दुनिया को देख कर , जाने लोग कैसे कर लेते हैं ध्यान से देखा कहीं सब एक साथ तालियां बजा रहे थे कहीं ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगा रहे थे , कहीं किसी के निर्देश पर जैसा वो समझाता उसी तरह हाथ पांव चला रहे थे । महफ़िल में साथ निभाने को जैसा सब करते हैं आपको भी उनकी तरह करने की आदत डालनी होगी । सब नाच रहे हों तो आपको नाचना आये न आये आपको नाचने की चाह हो या नहीं नाचना ही पड़ेगा जैसे कोई कठपुतली नाचती है किसी के इशारे पर जिस ने डोर अपने हाथ में पकड़ी होती है । हमको महफिलों का तौर तरीका नहीं आया और हम जीवन भर चलते रहे अकेले ही ख़ुद जिस राह पर ज़िंदगी ले जाती रही । सोचते थे कोई कारवां नहीं कोई भीड़ का मेला नहीं कम से कम कोई दो चार साथी ही मिलते तो मुमकिन था सफ़र की थकान महसूस नहीं होती । हुआ कितनी बार कुछ दोस्त कुछ अपने संग संग चले लेकिन हमेशा बार बार एक एक कर हर कोई साथ छोड़ता रहा बिछुड़ता रहा फिर भी हमने चलना नहीं छोड़ा उसी राह पर किसी अनदेखी मंज़िल की तलाश को बढ़ते ही रहे । लहरों से टकराकर उस पार जाना चाहा तो मांझी ने साथ छोड़ दिया कहकर कि उस पार कुछ भी नहीं बस इक वीराना इक जंगल कोई रेगिस्तान है जिस में हमको उम्मीद है किसी सुखदायक जगह या शाद्वल के मिलने की । 
 
अपनी तन्हाइयों से हमको कभी कोई परेशानी नहीं हुई हां महफ़िलों की आबो-हवा हमको कभी रास नहीं आई अक़्सर ख़ुद ही उकताकर उठ कर चले आए या फिर महफ़िल से निकाला गया ख़ुद ही बुलाने वालों द्वारा । अदब वालों की बेअदबी भला कौन समझा है जाने कितनों को ये ज़िल्ल्त सहनी पड़ती है अक़्सर साहित्य की सभाओं में लिखने वाले अपमानित महसूस करते हैं जब मंच पर असभ्य आचरण करने वाले क्या क्या उपदेश देते हैं । ईनाम - पुरुस्कार धनवानों की कसौटी पर परखे जाते हैं और जिन्होंने कभी साहित्य को पढ़ा नहीं जाना नहीं समझा नहीं साहित्यिक सभाओं में जाने किस से लिखवा कर लाते हैं शानदार बातें जिनका अर्थ खुद उनको शायद ही मालूम होता है । जहां सामाजिक सरोकार की चर्चा होनी होती है तमाम तरह की चाटुकारिता और राजनीति की छोटी बातें की जाती हैं । 
 
जब भी लोग मिल बैठते हैं सार्थक संवाद नहीं बल्कि अनावश्यक इधर उधर की बुराई की अथवा किसी की झूठी गुणगान की बातें होती हैं । मुझ जैसे व्यक्ति को जिसे व्यर्थ की बहस में उलझना पसंद नहीं दोनों ही पक्ष की बात करने वालों को समस्या होती है ख़ामोशी का अर्थ उनको आलोचना या विरोध से बढ़कर लगता है । बस कुछ इस तरह से भीड़ भरी महफिलों से बचकर अलग रहना सीख लिया है लेकिन तब भी बहुत लोग शिकायत करते हैं कि मैं उनकी अहमियत नहीं समझता । कभी कभी कोई समझाता है बड़े महान लोगों की बातों को लेकर लिखना छोड़ आधुनिक युग के आस-पास के लोगों की बातों को महत्व दिया करूं तभी मुझे भी बहुत कुछ हासिल हो जाएगा । अपना ईमान बेच कर जागीर बनाना , मुझे तो सबसे बड़े मुफ़लिस वही लोग लगते हैं जो ऐसा कर शानो-शौकत से रहते हैं । अपने आप अपने साथ रहना अकेलापन नहीं लगता मुझे तो महफिलों में अजनबीपन का एहसास होता है तन्हाई में सोचना समझना ख़ुद से मुलाकात करना सुकून देता है । आखिर में दो पुरानी कविताएं लिख कर बात को विराम देता हूं । 
 
   

सफ़र ज़िंदगी का ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

ख़्वाबों में ख्यालों में जिए हैं हम 

ख़ुशी नहीं कोई न है कोई ग़म 

आरज़ू करते करते मुरझाए फूल 

दिन ख़िज़ाओं के न हो सके कम ।

हर किसी पर ऐतबार किया है 

हम सबके हैं अपने सभी यहां पर 

किसी को आना था न आया कोई 

जाने क्यों किस का इंतज़ार किया है ।

सब को चांदनी नहीं कभी भी मिलती 

नादानी वो चांद को छूने की कोशिश 

यही यूं ही हमने कई बार किया है पर

ज़िंदगी ठहरी नहीं कहीं रही चलती । 

 

नये चलन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

छोड़ गये डूबने वाले का हाथ

लोग सब कितने समझदार हैं

हैं यही बाज़ार के दस्तूर अब

जो बिक गये वही खरीदार हैं ।

जीते थे मरते थे उसूलों पर

जाने होते कैसे वो इंसान थे

उधर कर लेते हैं कश्ती का रुख

जिधर को हवा के अब आसार हैं ।

किया है वादा निभाना भी होगा

कभी रही होंगी ऐसी रस्में पुरानी

साथ जीने और मरने की कसमें

आजकल लगती सबको बेकार हैं ।

लोग अजब हैं अजब शहर अपना

देखते हैं सुनते हैं बोलते नहीं हैं

सही हुआ गलत हुआ सोचकर

न होते कभी भी लोग शर्मसार हैं ।


 

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