सितंबर 25, 2023

उपयोग करने लगे नायकों का ( शहीदों की चिताओं पर ) डॉ लोक सेतिया

उपयोग करने लगे नायकों का ( शहीदों की चिताओं पर ) डॉ लोक सेतिया 

किसी एक की बात नहीं है गांधी सुभाष भगत सिंह सभी को हम लोगों ने अपने अपने मतलब की खातिर उपयोग करना शुरू कर दिया है । उनके विचार उनके आदर्श पीछे छूट गए हैं और उनके नाम उनकी तस्वीरें उनके बुत महत्वपूर्ण लगने लगे हैं । उनको पढ़ने की फुर्सत नहीं कोई चाहत भी नहीं कोई ज़रूरत भी नहीं महसूस होती किसी को । इधर लोगों ने अपने अपने नायक चुन लिए हैं हर साल जिनका कोई दिवस मनाते हैं लेकिन असली मकसद उनकी राह पर चलना नहीं उनके नाम का इस्तेमाल अपने खुद की उन्नति के लिए करना हो गया है । पहली बार स्थानीय कॉलेज में इक कवि गोष्ठी आयोजित हुई थी जब हमारा शहर ज़िला बनाया गया था पचीस साल पहले उस अवसर पर अपनी जो रचना पढ़ी थी उसी से शुरुआत करता हूं ।  
 

जश्न ए आज़ादी हर साल मनाते रहे ( कविता ) 

जश्ने आज़ादी हर साल मनाते रहे
शहीदों की हर कसम हम भुलाते रहे ।

याद नहीं रहे भगत सिंह और गांधी 
फूल उनकी समाधी पे बस चढ़ाते रहे ।

दम घुटने लगा पर न समझे यही 
काट कर पेड़ क्यों शहर बसाते रहे ।

लिखा फाइलों में न दिखाई दिया
लोग भूखे हैं सब नेता झुठलाते रहे ।

दाग़दार हैं इधर भी और उधर भी
आइनों पर सभी दोष लगाते रहे ।

आज सोचें ज़रा क्योंकर ऐसे हुआ
 बाढ़ बनकर रहे खेत भी खाते रहे ।

यह न सोचा कभी आज़ादी किसलिए
ले के अधिकार सब फ़र्ज़ भुलाते रहे ।

मांगते सब रहे रोटी , रहने को घर
पांचतारा वो लोग होटल बनाते रहे ।

खूबसूरत जहाँ से है हमारा वतन
वो सुनाते रहे सब लोग भी गाते रहे ।
 
 
हम सभी अक्सर कोई न कोई दिन मनाते हैं , अधिकांश लोग मंच से बड़ी गूढ़ भाषा में गहराई की बातें किया करते हैं जो उस दिन या जिस की बात की जा रही होती है उन की शख़्सियत को वर्णित करती हैं । लेकिन कभी सोचा है कि  सभा ख़त्म होने के बाद किसी को कुछ याद ही नहीं रहता असर की बात तब होगी जब आप उस पर चिंतन करेंगे । इसलिए मुझे लगा भगत सिंह जी को लेकर वही रटी रटाई बातों से अलग सरल शब्दों में सार की बात कही जाए ।  

मुझे ऐसा महसूस होता है कि जिन भी महान देश के नायकों से हम प्रभावित होते हैं उनकी बनाई राह पर चलना चाहते हैं उन सभी का कुछ न कुछ अंश हमारे भीतर समाया रहता है । भगत सिंह महात्मा गांधी या अन्य क्रन्तिकारी या आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों से देश की आज़ादी के बाद देश समाज को बेहतर बनाने में योगदान देने वाले कितने आदर्शवादी लोग हमारे दिल दिमाग़ पर सोच समझ पर असर छोड़ जाते हैं । मैं मानता हूं की नानक कबीर से लेकर दुष्यंत कुमार तक मेरे भीतर समाये हुए हैं । आधुनिक काल के तथाकथित नायक महानायक इतने बौने हैं कि उनको कोई छाप शायद किसी पर रहेगी तभी उनको अपनी महिमा का गुणगान प्रचार प्रसार करोड़ों रूपये खर्च कर करवाना पड़ता है मीडिया टीवी अखबार पर इश्तिहार छपवाकर बैनर लगा कर सड़कों चौराहों पर ।  
 
  थोड़ा अलग ढंग से बात कहना चाहता हूं जिसे आलोचना या कटाक्ष नहीं समझना ये निवेदन है । हम सभी देशवासी खुद को देशभक्त कहते हैं मानते हैं किसी ख़ास दिन देशभक्ति का खूबसूरत नज़ारा हर जगह दिखाई देता है । और मुझे पूर्ण विश्वास है सभी में ये भावना सच्ची होती है । अंतर इस तरह से समझ सकते हैं कि कोई तस्वीर कितने रंगों से मिलकर बनाई गई होती है या किसी परिधान को कितनी अलग अलग चीज़ों से सजाया जाता है तब भी कोई इक रंग तस्वीर का या डिज़ाईन परिधान का अधिक आकर्षित करता है । अधिकांश लोगों की सोच और जीवन के आचरण में देशभक्ति का रंग यदा कदा दिखाई पड़ता है अन्यथा उनके लिए खुद अपने स्वार्थ सबसे महत्वपूर्ण होते हैं । देशभक्ति की बात उनके लिए किसी की तस्वीर किसी बुत किसी समाधि पर पुष्प अर्पित करने तक सिमित होती है किसी तरह से कोई बदलाव सभी देशवासियों की समानता या अनुचित के विरोध में मुखर होने का उनको ज़रूरी नहीं लगता है । जिस देश को अपनी जान से बढ़कर प्यार करने की बात करते हैं उसकी बदहाली पर खामोश होकर पल्ला झाड़ने वालों की देशभक्ति नेताओं अधिकारियों  के किसी अवसर पर दिये भाषण से लगता है जैसे किसी तस्वीर या परिधान के उस रंग को कोशिश कर पॉलिश कर चमकदार बनाया गया है कुछ क्षणों के लिए । देशभक्ति का रंग कभी भी फ़ीका नहीं पड़ना चाहिए तभी भगत सिंह गांधी की विचारधारा पर चल सकते हैं । स्वतंत्रता आंदोलन में भले उनके ढंग अलग अलग हों तब भी उनका मकसद एक था देश को आज़ाद करवाना लेकिन जैसा अब सामने है ऐसी आज़ादी की कल्पना उन लोगों ने नहीं की थी उनकी लिखी बातों को पढ़ेंगे समझेंगे तो शर्मसार होंगे कि क्या सोचा था क्या हुआ है और होता ही रहता है । 

आज़ाद भारत का ख़्वाब ( कविता ) 

इंसां सब हों बराबर जहां , बनाना है मिलकर वो जहां 

फूल प्यार के खिलें चहुंओर , झूमे नाचे सबका मनमोर । 

कहीं न हो किसी पर अत्याचार , जनसेवा नहीं हो कारोबार 

शिक्षा स्वास्थ्य सबका हो अधिकार , नहीं चले कोई लूटमार । 

हो सब के लिए जीने की आज़ादी , हो हर बेटी  इक शहज़ादी 

नहीं दहेज़ नहीं शोषण बालमज़दूरी , ख़त्म हो भेदभाव की बर्बादी । 

सरकारी दफ़्तर नहीं हों बदहाल , नहीं जनता के लिए बिछा कोई जाल 

अपनी ढपली अपना राग नहीं  , जनता और शासन का हो इक सुर ताल ।  

ख़त्म करेंगे जनधन की चोरी बेईमानी , हो जनता की ख़त्म हर परेशानी 

देशसेवा सबका होगा एक ही धर्म , सत्ता की नहीं होगी कभी मनमानी । 


                   समाज की हक़ीक़त  ( कविता )

सदियों की कश-म-कश में , शहीदों ने अपना ख़ून देकर दिलाई 

ज़ालिम के ज़ुल्म सहकर , कुर्बानियां जान की दे हमको आज़ादी

हमको देशभक्ति का सबक था पढ़ाया ,  कोई ख़्वाब था सजाया 

अपने घर को किस चिराग़ ने क्यों जलाया , समझ नहीं कोई पाया 

अब अपने घर का हर कोना सुलग रहा है , क्या दौर चल रहा है 

धुंवा धुंवा है बस्ती बस्ती दम सबका घुट रहा है , तनमन जल रहा है 

मज़बूत थी जो नीवें उनको हिला रहे हैं , गड़े मुर्दे उखाड़ कर ज़िंदा जला रहे है 

नाम पर धर्म के होने लगे हैं क़त्ल और , एकता के नाम पर टुकड़े बना रहे हैं  

 


 

 

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