दिसंबर 11, 2024

POST : 1926 दौर ही आज का निराला है ( हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया

     दौर ही आज का निराला है ( हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया  

आज का विषय महत्वपूर्ण है सामाजिक वास्तविकता हम सभी की , पहले इक ग़ज़ल पढ़ते हैं । 

जिससे अनभिज्ञ पीने वाला है 

ज़िन्दगी वो विषाक्त हाला है । 

प्यार फूलों से था जिसे बेहद 

चित्र पर उसके फूलमाला है । 

था स्वयं जो अजातशत्रु , उसे 

क्या खबर किसने मार डाला है । 

दिन दहाड़े ही लुट रहा कोई

मूकदर्शक बना उजाला है । 

मधु प्रतीकों का घोर आलोचक 

पीनेवालों का हम-पियाला है । 

बेठिकाने को मिल गई मंज़िल 

उसने फुटपाथ जा संभाला है । 

हों निराले न तौर क्यों ' महरिष '

दौर ही आज का निराला है । 

( नागफनियों ने सजाई महफिलें - ग़ज़ल संग्रह से साभार शायर : आर पी शर्मा ' महरिष ' )  

  बिना किसी भूमिका अब सीधे आज के दौर की बात करते हैं , दुनिया जहान की नहीं खुद अपनी बात करते हैं । हमारे समाज में बड़ा छोटा बीच का जो भी हो सभी को पहले इक सवाल खुद से पूछना चाहिए कि हमने क्या किया है अपने देश समाज को बेहतर बनाने की खातिर । पहले उनकी बात जो समझते हैं हम देश समाज के सेवक हैं देशभक्त हैं बड़े पदों पर बैठ लोकतंत्र संविधान की बातें करते हैं शासक प्रशासक मंत्री से सरकारी महासचिव से छोटे से पद पर आसीन कर्मचारी सभी शामिल हैं कार्यपालिका न्यायपालिका तक । इक अंदाज़ा लगाते हैं कि दस से बीस प्रतिशत जनसंख्या का भाग हैं , इनको जितना चाहिए किसी से मांगना नहीं पड़ता अपने आप निर्धारित करते हैं जब चाहे साधन सुविधाएं अधिकार विशेषाधिकार । शायद साधरण नागरिक से लाख गुणा उनको हासिल है लेकिन क्या तब भी जिस कार्य के लिए उनको नियुक्त निर्वाचित किया उस कार्य को करने में सफल हुए हैं । वास्तव में उनके रहते गरीबी भूख अन्याय शोषण नागरिकों की मूलभूत सुविधाएं मुहैया करवाना इत्यादि सभी की दशा बिगड़ती गई है अर्थात उनको जो करना था नहीं किया तब भी सबसे शानदार ज़िंदगी जीते हैं और उनको कोई खेद कभी नहीं होता कि उन्हें जैसा करना था नहीं किया है । 
 
उनके बाद आते हैं कुछ उद्योगपति कारोबारी कुछ ख़ास शिक्षा स्वास्थ्य जगत में कार्यरत सभ्य वर्ग के लोग जिनको समाज को सुंदर भविष्य और नैतिकता का मार्ग समझाना था लेकिन इतने पावन कार्य में होते हुए भी अधिकांश भटक गए धन दौलत और नाम शोहरत ऐशो-आराम की मृगतृष्णा में जिसका कोई अंत नहीं है । ऐसे सभी लोगों ने कभी उचित अनुचित की चिंता नहीं कि न ही सोचा समझा कि इंसान को कितनी ज़मीन चाहिए । इक हवस में पागल होकर उन्होंने इंसानियत को लेकर समझना छोड़ दिया । उनको सभी को मेहनत से हज़ारों गुणा अधिक मूल्य मिलता है और इस को देखने समझने वाला कोई नहीं है , पैसे को भगवान बनाया तो पैसे से खुद बिकने ही नहीं बल्कि न्याय कानून सभी कुछ खरीदने लगे । शराफ़त और नफ़ासत से तमाम लोगों को इतना लूटा कि किसी की बेबसी बदहाली पर कभी विचार नहीं किया अगर कुछ किया भी तो किसी मतलब से कुछ हासिल करने को बदले में । कितनी विडंबना है उच्च शिक्षा पाकर भी मानसिकता बेहद संकीर्ण ही रहती है । तथाकथित धार्मिक उपदेश देने वाले , कलाकार फ़िल्मकार टेलीविज़न पर अख़बार में वास्तविक तस्वीर नहीं दिखला कर दर्शकों को घटिया मनोरंजन के नाम पर इतनी गंदगी परोसने लगे हैं जिन से देश समाज को कुछ नहीं हासिल होता बल्कि पतन की राह चलने को प्रेरित करते हैं । 
 
देश की राजनीति जाने कब से किसी तरह सत्ता पाने की सीढ़ी बनती गई जिस में खुद सभी कुछ अपने लिए हासिल करने को बिना कुछ सोचे समझे रेवड़ियां बांटने का चलन हो गया है । कभी किसी नाम पर कभी कोई योजना बनाकर कुछ खास लोगों को फायदा देने के लिए ताकि अपनी नाकामी को ढका जाये किया गया । अब जैसा विज्ञापन है सरकारी 80 करोड़ लोगों को खाने को मुफ़्त राशन देने का , क्या शर्म की बात नहीं है कि आज़ादी के 75 साल बाद ऐसी हालत क्यों है । लेकिन ये कोई देश की जनता की भलाई नहीं है कि सरकारें उनको भिखारी बनाकर खुद शासक बनकर राजाओं शहंशाहों की तरह रहें । इस तरह ऊपर के बीस प्रतिशत और निचले 55 वास्तव में मध्यमवर्ग के 25 प्रतिशत पर इक बोझ हैं जिनके पास कोई विकल्प नहीं है सिवा इसके कि बीच का वर्ग नीचे आते आते आधा रह गया है और शीघ्र ही उसका कोई निशान नहीं बचेगा । बड़ी चिंताजनक तस्वीर होगी जिस में कोई बगैर परिश्रम सभी कुछ पायेगा तो बाकी मेहनत करने के बावजूद भी हाथ में कटोरा लिए दिखाई देंगे , ऐसा होगा इसलिए क्योंकि सभी ने समाज देश को बेहतर बनाने को कुछ करना ज़रूरी नहीं समझा बल्कि उस को बर्बाद करने में लगे हुए हैं । 
 
ऐसा आसान तो नहीं है फिर भी कभी कोई इन सभी सरकारों से हिसाब मांगे कितने राजनेताओं को कितने लाखों हज़ारों करोड़ की खैरात मिलती है जाने किस किस नाम से । पेंशन मुफ्त आवास मुफ्त सुविधाएं उम्र भर कोई क़र्ज़ चुकाना है जनता ने इनका सांसद विधायक अथवा अन्य किसी सार्वजनिक सेवा के पद पर शोभा बढ़ा कर खूब शान से सुःख सुविधाएं उपयोग करने का उपकार करने का । यकीन करना ये 80 करोड़ को मुफ्त राशन उस के सामने राई जैसा प्रतीत होगा , ये पहाड़ जैसा बोझ देश की जनता को किस जुर्म में ढोना पड़ता है और कब तक ढोते रहना है । अर्थशास्त्री समझा सकते हैं कि अधिकांश लोग बदहाल हैं सिर्फ इन कुछ ख़ास लोगों को दी जाने वाली भीख जिस को उन्होंने अपनी विरासत बना लिया है लोकतंत्र की आड़ में इक लूट तंत्र है ।  
 
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