सपनों का पहला इक आखिरी सौदागर ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया
फ़िल्मजगत का शोमैन कहलाता था जो उसकी जन्म शताब्दी मनाने को आधुनिक काल के सबसे बड़े तमाशेबाज़ से बढ़कर कौन हो सकता था घर बुलाने को । सोशल मीडिया पर उनकी चर्चा से महत्वपूर्ण कोई विषय संभव नहीं है सभी खुश होते हैं तालियां बजाते हैं कारण सोचने समझने की ज़रूरत क्या है । ये मिलन ज़रूरी था क्योंकि राजनीति और सिनेमा का वास्तविक चेहरा अलग और मुखौटा अलग होता है । उन की आपस में क्या चर्चा हुई सामने दिखाई दिया खबरों में तस्वीरों में वीडियो में बहुत ही मनमोहक अंदाज़ में बड़ी दिलकश बातों और फूलों से खिले शालीन वातावरण में । कभी किसी भूखे गरीब के साथ कोई ऐसा मज़ाक़ नहीं कर सकता अगर आपको लगता है उनको देश की समस्याओं की बदहाली की चिंता छोड़ खुद अपनी फिल्म जगत की और राजनीति के हुए पतन की भी रत्ती भर चिंता होगी । ऐसी होती है आबाद लोगों की दुनिया जिसका विस्तार होता है साधारण लोगों को बर्बाद कर के ही । वीडियो देखा आपस में इक दूजे की बढ़ाई और महानता पर बातें हुई कोई सामाजिक विषय नहीं था विचार विमर्श करने को जैसे खास वर्ग ही सबसे महत्वपूर्ण है ये लोकतंत्र ये साधरण नागरिक होते ही हाशिये पर रहने को हैं । समस्या अजीब है ख़ास वर्ग का गुज़ारा बिना आम जनता नहीं हो सकता वर्ना उनको बाहर धकेल दिया जाता ।
सभी पर जिनका जादू सर चढ़कर बोलता है जिनसे मिलकर लोग समझते हैं भगवान के साक्षात दर्शन हो गए हैं और उनकी फ़िल्मी डायलॉग उनकी भाव भंगिमाएं लगता है जैसे उस से बढ़कर कोई दौलत कोई खज़ाना क्या होगा । किसी ईमानदार का सच की राह चलने वाले का गरीबों के मसीहा का किरदार निभाने वाले अपने वास्तविक जीवन में अधिकांश विपरीत आचरण वाले होते हैं । फ़िल्मी कहानियों में धन दौलत को ठोकर लगा कर प्यार मुहब्बत दोस्ती पर ज़िंदगी न्यौछावर करने वाले कभी किसी से प्यार नहीं करते सिर्फ खुद से करते हैं और अपने लिए सभी कुछ पाने को शरीर आत्मा ज़मीर क्या ईमान क्या सभी गिरवी रख छोड़ते हैं । कोई पुराना ज़माना हुआ करता था जब फ़िल्में किसी सार्थक संदेश को लेकर बनाई जाती थी , सिनेमा को भी बांट दिया गया था प्रमुख धारा जिस में मकसद केवल पर्दे पर सफलता और दौलत हुआ करता था , और इक और जिस में मनोरंजन भी शालीनता की सीमा का पालन करते हुए और मकसद किसी सामाजिक अथवा पारिवारिक विषय पर गहराई से कहानी कभी कभी झकझोरती थी । दबदबा और रुतबा उनका होता था जो बाज़ार में बिकते थे और बिकने को चमकदार आवरण रखते थे ।
आज जो मिल रहे हैं दोनों ने अपने पास देश की कुल संपत्ति का आधे से अधिक हिस्सा सच कहें तो कमाया नहीं बल्कि हड़पा हुआ है । राजनीति और सिनेमा दोनों ने साधरण लोगों की भावनाओं उनकी परेशानियों को अपने फायदे के लिए बेचा ही है कोई समाधान नहीं ढूंढा न कभी कोशिश की है निदान करने की । झूठे ख्वाब काल्पनिक दुनिया से अब तो सिनेमा इक गंदगी का गटर बन गया है जिस की फ़िल्में टीवी पर अलग अलग तरीके से समाज को गुमराह कर कीचड़ में धकेलने लगे हैं और उधर राजनीति में कोई नैतिकता कोई भी विचारधारा कोई आदर्श नहीं बचे सिर्फ नग्नता और घटिया स्तर का मनोरंजन परोस करोड़ों की कमाई पर इतराते रहते हैं । आजकल जिनको सूरज समझते हैं खुद घने अंधकार का शिकार हैं देश समाज को उनसे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए क्योंकि रौशनी उजाला उनका काम नहीं उनको अंधकार का कारोबार करना हैं क्योंकि अब मुनाफ़ा उसी में है । राजनेताओं की और फिल्म वालों की दुनिया हमारी आपकी दुनिया से बिल्कुल अलग है जिस में धन दौलत चकाचौंध और मैं चाहे जो करूं मेरी मर्ज़ी का चलन है । समाज से उनसे कुछ नहीं मिलता न कभी मिलना संभव है क्योंकि यही लोग हैं जो सबसे दरिद्र हैं , ऐसा कहते हैं कि जिनको सभी कुछ हासिल हो तब भी अधिक पाने की हवस रहती है वही सबसे दरिद्र हुआ करते हैं । परिवारवाद पर भाषण देने वाले किसी ख़ानदान की कितनी पीढ़ियों से मिलना चाहते थे उनको मलाल था अभी इक और से मिलना नहीं हुआ उम्मीद ले कर आये थे । आपस में दोनों समाज को योगदान देने की महानता बता रहे थे कौन पूछता समाज कहां खड़ा कितना आगे बढ़ा और आप दोनों क्या से क्या हो गए हैं । आदमी थे जो कभी अब सभी ख़ुदा हो गए हैं ।
...साधारण नागरिक होते ही हाशिये पर रहने को हैं.👍 सच कहा...अब फिल्मों में कोई सामाजिक संदेश नही होता
जवाब देंहटाएं