अगस्त 20, 2024

POST : 1878 ग़ज़ब की बात यही औकात ( विचार-विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

    ग़ज़ब की बात यही औकात ( विचार-विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

 सुबह से शाम तक हम क्या करते हैं सोशल मीडिया पर देखने पर लगता है अमृत की वर्षा हो रही है सभी को सामाजिक संबंधों से देश की घटनाओं पर जानकारी है समझ है और घटने वाली बुरी घटनाओं से गहरी संवेदना सरोकार है । लेकिन ये कोई खबर नहीं शायद कोई इश्तिहार है पढ़ना समझना कौन चाहता है हर शख़्स खुद को समझता समझदार है । खुद नहीं पढ़ते समझते दुनिया को बतलाते हैं ऐसे में चर्चा करना किस काम का समय की बर्बादी है सब कुछ बेकार है दुनिया कहते हैं निस्सार है । ठीक से समझ लेना चाहिए इस व्हाट्सएप्प पर उपचार करने वाला खुद बीमार है । आज कोई खास दिन है कौन सा वार है कोई त्यौहार है शुभकामनाओं का लगा अंबार है लेकिन आपस में ज़िंदगी की वास्तविकता की बात नहीं होती दिखावे का शिष्टाचार है । कल रक्षाबंधन था शुभकामनाओं का दौर था सामाजिक सुरक्षा महिला क्या बड़े क्या बचपन की सुरक्षा पर कोई नहीं चिंतित था सोशल मीडिया का खुद बुना हुआ इक जाल था जी का जंजाल था जीना भी मुहाल था । कौन किसे भेज रहा कैसा संगीत था कोई सुर था न कोई ताल था वीडियो बनाया क्या कमाल था मकसद क्या था मनोरंजन करना या शालीनता का आभाव है इसकी मिसाल था । 
 
टीवी पर सोशल मीडिया पर सैर पर इधर उधर हर दिन घटनाओं की चर्चा करते हैं , लेकिन वास्तविक ज़िंदगी में सामने देख कर बच कर निकलते हैं । हमको क्या कोई कुछ भी करता रहे जब तक अपने तक आंच नहीं आती अनदेखा करते हैं । सरकार समाज धर्म प्रशासन पुलिस सुरक्षा को तैनात स्कूल कॉलेज अस्पताल सभी मनमानी करते हुए नहीं डरते हैं । अच्छाई भलाई सच्चाई कर्तव्य निभाने की बातें सभी करते हैं लेकिन स्वार्थ की खातिर हर हद से गुज़रते हैं झूठ का दामन पकड़े हैं सच से मुकरते हैं । सामने खामोश रहते हैं सोशल मीडिया पर खूब शोर करते हैं । भ्र्ष्टाचार अन्याय नफ़रत तमाम बुराईयों को देख कर विरोध करने का हौसला नहीं करते अर्थात उनको बढ़ने देने में योगदान करते हैं । देश में एकता समानता भाईचारा हो इस को लेकर कभी सोचते ही नहीं ख़ुदगर्ज़ होकर अपनी हर चाहत पूरी करने को बबूल बोने का काम करते हैं । खुद को सभी शानदार समझते हैं अन्य सभी की कमियां बताते हैं अनुचित उचित छोड़ धन दौलत नाम शोहरत पाने को क्या नहीं अपनाते हैं । इक वास्तविकता को क्यों भूल जाते हैं जैसा देश समाज है अच्छा खराब सब हम लोग बनाते हैं अनैतिक अनुचित को बढ़ावा देकर मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे जा कर कुछ नहीं पाते सुनते हैं समझते नहीं हैं नज़रे चुराते हैं । हमने कितने चेहरे लगा रखे हैं आईना नहीं देखते खुद को नहीं समझ पाते हैं ज़िंदगी जितनी लंबी मिले जीते हैं बस बिताते हैं कुछ देश समाज के बेहतर बनाते तो अच्छा था मगर आखिर कुछ हासिल नहीं होता पछताते हैं । हंसना चाहते हैं खुद बस इस खातिर सभी को रुलाते हैं क्या ग़ज़ब के लोग हैं झूठ को सच बताते हैं । आज कुछ सवाल उठाते हैं जिनके जवाब आपको देश समाज की असलियत समझाते हैं । राजनेता धर्मगुरु सरकार का प्रशासन सभी जनता को न्याय क्या अधिकार तक देना ज़रूरी नहीं समझते जनता को ठोकर लगा मुस्कुराते हैं अपराधी संग दोस्ती बढ़ाकर समाज को बदतर बनाते हैं कोई भी कर्तव्य खुद नहीं निभाते आरोप दुनिया पर लगाते हैं । ये सभी अमीर बनते जाते हैं देश को लूट कर घर भरते हैं झूठी शान से इतराते हैं । सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा गाते हैं तिरंगा फहराते हैं ।

सोशल मीडिया: मित्र या शत्रु - पेन2प्रिंट सर्विसेज
 
 

अगस्त 15, 2024

POST : 1877 पिंजरे में कैद रहकर ख़ुश हैं ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

      पिंजरे में कैद रहकर ख़ुश हैं  ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया  

जैसे कोई सोने चांदी के पिंजरे में कैद हो कर भी खुद को किस्मत वाला समझने लगे तमाम लोग ग़ुलाम बन  कर खुश हैं , कभी महसूस होता है जैसे हमको आज़ादी से जीने की आदत ही नहीं । सोच मानसिकता किसी न किसी को अपना मसीहा अपना मालिक समझने की जाती नहीं है । बोलना तो क्या हम जिस को अपना सब कुछ समझते हैं उस की कही हर बात को ख़ामोशी से सर झुकाए स्वीकार करने को अनिवार्य मानते हैं । घर परिवार समाज सरकार से दोस्ती रिश्ते नाते सभी हमको इतने बंधनों में जकड़े रहते हैं कि हम ज़िंदा रहते हुए भी रोज़ जाने कितने समझौते कर खुद को कुचलते हैं । अनुचित लगता है फिर भी साहस नहीं करते विरोध करने का और कोई भी किसी को अपनी आलोचना का अधिकार देने को तैयार नहीं है । सार्थक संवाद और आपसी वार्तालाप में कोई अन्य पक्ष भी है इस पर चिंतन करना भूल गए हैं । टकराव बढ़ते हैं और हम सभी असहमत व्यक्ति को विरोधी नहीं बल्कि दुश्मन मानने लगते हैं । इतनी संकीर्ण मानसिकता बन गई है समाज की जिस से हर कोई घुटन महसूस करता है नतीजा धनवान ताकतवर दहशत फ़ैलाने वाले मनमानी करते हैं और कोई उनसे टकराव लेने का साहस नहीं करता । अन्यायी अत्याचारी लोग समझते हैं वो अपराध कर भी गलत नहीं कर रहे बल्कि अपने अनुचित कार्यों को उचित साबित करने को कोई मकसद बताकर बचना चाहते हैं । कभी हमारे समाज में सच और न्याय के लिए लड़ने मर मिटने वाले लोग हुआ करते थे जो ज़ालिम को खुली चुनौती दे कर इंसाफ़ आज़ादी के लिए जीवन कुर्बान कर देते थे । हम ऐसे महान आदर्शवादी नायकों को लेकर खुद को गौरवशाली समझते हैं लेकिन उनके आदर्श उनकी सिखाई बातों दिखलाई राहों पर चलना नहीं चाहते क्योंकि हमको किसी भी तरह आराम से ज़िंदगी बितानी है । अब हम कहने को आज़ाद देश के नागरिक हैं जबकि हमको गुलामी करते कोई संकोच नहीं होता और ऐसा करने को समझदारी नाम देते हैं । 
 
इक कहानी है पहले भी लिखी थी उसे फिर दोहराता हूं । कोई साधु किसी पहाड़ी की डगर पर जा रहा था कि उसको किसी परिंदे की आवाज़ सुनाई दी मुझे बाहर निकलना है । घाटी में ढूंढते ढूंढते साधु को मिल गया वो परिंदा जो इक पिंजरे में था जबकि पिंजरा खुला हुआ था , साधु ने उसे अपने हाथ से पकड़ बाहर निकाला और खुले आसमान में उड़ने को छोड़ दिया । अगले दिन जब साधु उसी डगर से गुज़र रहा था तब उसको फिर वही आवाज़ सुनाई दी मुझे बाहर निकलना है । साधु उस जगह गया तो देखा वही पक्षी खुद ही उस पिंजरे में वापस लौट आया था । तब साधु को समझ आया कि परिंदे को उस पिंजरे से लगाव हो गया है तभी वो खुले गगन को छोड़ उसी में आकर बैठ गया है । साधु ने फिर से पक्षी को बाहर निकाल कर आसमान में उड़ा दिया और फिर उस पिंजरे को भी उठाया और घाटी में गहराई में फेंक दिया था । अब परिंदा आये भी तो पिंजरा नहीं होगा तभी उसका नाता टूटेगा और आज़ाद रहना सीखेगा । विडंबना ये भी है कि अब जो साधु संत सन्यासी रहनुमा हमको मिलते हैं उनके पास कोई पिंजरा रहता है हमको आज़ाद नहीं रहने देना चाहते बल्कि कैद में रखते हैं । जब तक हम इन गुलामी के पिंजरों से प्यार करते रहेंगे हम कभी आज़ाद नहीं हो सकते भले पिंजरा खुला ही हो हमको वापस उसी में रहना भाता है ।  
 
सवाल ये है कि कैसा पिंजरा है जिस में हम ख़ुशी से कैद रहना चाहते हैं जबकि दरवाज़ा खुला हुआ है । वो है हमारे बड़े बड़े सुनहरे सपनों का खुद बुना जाल और चाहतों का क़ैदख़ाना । धन दौलत नाम शोहरत किसी भी तरह से सफ़लता की ऊंचाई पर पहुंचना चाहते हैं । अधिकांश लोग अपनी मेहनत क़ाबलियत से हासिल किए से संतुष्ट नहीं होते और जैसे भी संभव हो दुनिया से प्रतस्पर्धा में शामिल हो कर आगे बढ़ना चाहते हैं । ऐसे में होता ये भी है कि हम जो जीवन की मूलयवान चीज़ें आदर्श और सामाजिक मूल्य हैं उनका त्याग कर सिर्फ भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को महत्व देते हैं । आडंबर करते हुए सभी को दिखाने को जो नहीं हैं उसका मुखौटा बन जाते हैं अपनी वास्तविकता खो बैठते हैं । गरीब जिनके पास कुछ भी नहीं उन से बढ़कर दरिद्रता उनकी कहलाती है धर्म ग्रंथों के अनुसार जिनको सभी कुछ मिला हुआ होता तब भी और अधिक की हवस रहती है ।कभी छोटे गांव में ख़ुशी मिलती थी आपसी मेलजोल प्यार अपनापन होता था , आजकल महानगर में बड़े घर में सुविधाओं से परिपूर्ण जीवन भी दिल को ख़ुशी नहीं देता बल्कि ख़ालीपन महसूस होता है । लेकिन कोई भी हमारे खुद बनाए पिंजरे को किसी गहरी खाई में फेंक हमको मुक्त नहीं करवा सकता । बंद पिजंरे में कैद रहना नियति बन गई है हमारी ।    
 
 पिंजरा

अगस्त 13, 2024

POST : 1876 शहर शहर गली गली मेले लगे हैं ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया

  शहर शहर गली गली मेले लगे हैं ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया

जितने गुरु हैं देश और दुनिया भर में  
अकेले हमारे नगर में उस से अधिक 
राजनीति के बदलते चेहरे - मुखौटे हैं  
भीड़ है चमचे हैं चाटुकार हैं कुछ चेले हैं । 
 
सबको करना इक यही ही गोरखधंधा है
बाज़ार राजनीति का चढ़ता भाव जाता 
जिसको दिखाई नहीं देता है वो अंधा है 
महंगाई से रिश्ता कभी आता न मंदा है । 
 
सच्ची झूठी पाप पुण्य की जैसी हो कमाई
दयावान कहलाते हों चाहे ज़ालिम कसाई  
दौलत कहते हैं भला किस काम है आई 
गुंडे बदमाश सभी हैं दुश्मन भी और भाई । 
 
भावी विधायक सांसद हैं कितने कहां पर 
कभी भूल से चले गए जो तुम भी वहां पर 
अजब नज़ारा दिखाई देगा आपको तब तो 
तारे ज़मीं पर ख़ाक़ उड़ती होगी आस्मां पर । 
 
लूटना बन गया है धर्म देश समाज की सेवा 
बड़े सस्ते दाम मिलता है जहां हर एक मेवा
सोना उगलती है सत्ता की है जो अपनी देवी  
नशा है सत्ता का छूटता नहीं बेशक जानलेवा । 
 
दीमक यही देश को लग गई है हर इक जगह 
खोखला कर दिया है समाज को लो सब सह
नहीं कोई इनसे बचा सकता है जनता बेचारी 
नया क्या पुराना क्या सब कुछ रहा है अब ढह ।
 
पेड़ राजनीति के आम हैं शाखों पर केले लगे हैं 
शहतूत की जगह बाग़ में बस कड़वे करेले लगे हैं
जिधर देखते हैं सभाएं आयोजित कर रहे हैं चोर 
शहर शहर गली गली अब कितने ही मेले लगे हैं ।     
 
 
 
 

अगस्त 08, 2024

POST : 1875 दर्द ए दिल की दवा करते हैं ( हास्य - कविता ) डॉ लोक सेतिया

 दर्द ए दिल की दवा करते हैं  ( हास्य  - कविता ) डॉ लोक सेतिया

शायद नहीं यकीनन हम असली कम नकली अधिक बन गए हैं  
सोशल मीडिया से टीवी शो , सिनेमा या किसी सभा में जाकर ,
 
भावनाएं जागती हैं , हम अश्क़ बहाते हैं संग नाचते झूमते गाते हैं 
जगह वातावरण बदलते ही भूलकर , फिर पहले जैसे बन जाते हैं ।
 

दोस्ती प्यार रिश्तों का हर दिन कोई बाज़ार सजाते हैं बनाते हैं 
कीमत मिलती है , बिकते हैं मोल चुका कर खरीद कर ले आते हैं ,
 
भरोसा अजीब है कहते हैं करते हैं बार बार मगर उसे आज़माते हैं
जहां कोई किसी साथ मिल के ख्वाबों की दुनिया अपनी बसाते हैं ।  

 
क्यों कहते हैं कि शीशा हो या दिल हो आखिर टूट ही जाता है ,
दिल कोई खिलौना तो नहीं जो इक टूट जाए तो दूसरा ले आए 
 
दिल अपने पास रहता तो हर कोई संभाल कर रखता हमेशा ही 
इश्क़ में दिल कब किस पर फ़िदा हो जाता है बस में नहीं रहता । 
 
 
दिल चीज़ ही ऐसी है जैसे , कोई बेटी इक दिन पराए घर जाना है 
मुहब्बत का यही अफ़साना , दिल से दिल का नाता इक बनाना है ,
 
कहते हैं जिसे प्यार कोई समझा है न कभी जाना , किस पे आना है 
दिल की बस्ती में बर्बाद लोग रहते हैं जिनका नहीं कोई  ठिकाना है ।  
 

कितने पुल बनते ही टूटने को हैं फिर से बनवाए जाते हैं , बीच धारे 
कितनी भी लंबी दूरी हो कितना तेज़ बहाव गहरा पानी बीच बहता हो  ,
 
टूटे बंधन जोड़े जाते हैं इधर से उधर से सभी फिर मिल जाते किनारे 
पहले से चौड़े और मज़बूत दरिया पर पुलों से नाते निभाए ही जाते हैं । 
 

दिल किस ने किसका तोड़ा , ये अजब पहेली इक गेंदा इक चमेली है 
दिल का ऐतबार मत करना कभी प्यार मत करना कहती अलबेली है ,
 
ये खेल है लेकिन बन जाता है तमाशा कोई भी देता नहीं तब दिलासा  
आशा सुनहरे सपने बिखर जाते हैं बचती है सिर्फ हताशा और निराशा । 
 

दुनिया बदल गई है आदमी में दिल ही नहीं है मिलता सीने में सभी के 
किस्से हुए पुराने आशिक़ महबूबा साथ मरते सच्ची उनकी आशिक़ी के ,
 
इक बाज़ार बन गया सच भी कल्पना का सोशल मीडिया पर भी जहां 
झूठा है आसमान भी फरेब का जहां अकेला हर आशिक़ का है कारवां । 
 
 
टूटे हुए दिल का अंबार लगा है बाज़ार में इक ऐसा इक संसार बना है 
नाकाम मुहब्बत वालों की महफ़िल खूब जमती है जश्न हो जैसे कोई ,
 
पुरानी इक दिन तस्वीर बदलती है अपनी सबकी तकदीर बदलती है 
रांझा मजनू लैला सोहनी महीवाल बदलते हैं जूलियट हीर बदलती है ।  
 

बेवफ़ाई भी कभी कभी ज़रूरी होती है बिछुड़ना कोई  मज़बूरी होती है 
हर प्रेम कहानी लाजवाब लगती है , दास्तां अगर आधी अधूरी होती है ,
 
उसने बदला अपना रास्ता क्या हुआ हम भी नई इक और राह करते हैं
खुद तबाह नहीं होते किसी की चाहत में , दर्द ए दिल की दवा करते हैं । 
 

 साहित्य दुनिया | क़लक़ मेरठी का मशहूर शेर.. तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर  सही तू नहीं और सही और नहीं और सही | Instagram
 
 

 

अगस्त 06, 2024

POST : 1874 एक था लोकतंत्र ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया

             एक था लोकतंत्र ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया 

खरी बात तो ये है कि हमको उसकी याद भी नहीं आती अब , कौन ढूंढता उस को जो संविधान ने स्थापित किया है । सालों तक जैसे बूढ़े बज़ुर्गों की खैर ख़ैरियत नहीं लेने पर किसी को खबर नहीं होती की कब वो जो इधर उधर दिखाई देते थे हर राह चलते से दुआ सलाम किया करते थे , अचानक खो गए या शायद हमारी दुनिया को छोड़ चले गए । जब किसी के होने नहीं होने का आभास भी नहीं होता , ऐसे में अनचाहे लोग या फिर चाहे लोकतंत्र की व्यवस्था हो , गायब होना अचरज की बात नहीं है । बड़ी अजीब बात है हमको खुद ही अपनी खबर नहीं और ज़माने की खबर रखने की बात करते हैं । अजीब नहीं हमको पड़ोसी देश चाहे पाकिस्तान हो या बंगलादेश या लंका से रूस अमेरिका कोरिया तक में क्या क्यों घट रहा है समझते हैं , खुद अपने घर आंगन में जो भी होता रहे हमको दिखाई ही नहीं देता । हर किसी की गलतियां ढूंढते हैं खुद कभी सही राह पर चलते ही नहीं , जागो अब नींद से और सपनों को हक़ीक़त समझना छोड़ जो वास्तविकता है उस को समझो पहचानो । 
  
  एक था लोकतंत्र , सोचो याद है कैसा था , उसका क्या हुआ कभी किसी ने उसे बंधक बना लिया , कभी किसी ने उसको ज़िंदा ही दफ़्न कर उसकी जगह कोई झूठा नकली लोकतंत्र ला कर सामने खड़ा कर हमको विवश कर दिया उसे ही वास्तविक लोकतंत्र स्वीकार करने को । राजनेता और अधिकारी धनवान लोगों और साहित्य कला समाज का दर्पण अख़बार टीवी सिनेमा से गठजोड़ कर हम सभी को छलिया बन ठगने में सफल नहीं होते अगर हमने अपनी समझ अपने विवेक से काम लेना छोड़ कभी इस कभी उस पर भरोसा नहीं किया होता । 
 
आज आपको हमारे खुद अपने ही देश के विधि द्वारा स्थपित संविधानसम्मत लोकतंत्र की व्यथा कथा बताते हैं । हम 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस का जश्न मनाते हैं लेकिन ख़ुशी मनाने में मकसद को भूल कर सिर्फ आडंबर करते हैं झूमते गाते हैं केवल इक रस्म निभाते हैं । देश को गुलामी से मुक्त करवाया था लोकतंत्र को अपनाया था हम सभी भारतवासी हैं धर्मनिरपेक्ष समाज हैं को आदर्श बनाया था ।   शायद इक सबक हमको किसी ने नहीं पढ़ाया था हम ने भी कर्तव्य निभाना है इस बात को भुलाया था हम अलग अलग समझने लगे खुद को एकता की शपथ को सभी ने भुलाया था । धोखा हमने हमेशा ही खाया था चिकनी चुपड़ी बातों से प्रभावित होकर फरेबी लोगों को अपनाया था , बिना देखे समझे रहनुमा झूठे मक्क़ार लोगों को बनाकर जो बोया था वही पाया था । मतलबी लोगों को देश सेवा करना नहीं भाया है सत्ता का नशा इस हद तक चढ़ा था जिसे भी अवसर मिला भ्र्ष्टाचार किया ज़ुल्म ढाया था । आज़ाद हो गए थे फिर भी उन विदेशी शासकों की रिवायतों को छोड़ा नहीं बदला नाम रंग ढंग उनका दोहराया था । नवाब राजा साहब  सरदार बहादुर  राय बहादुर खान बहादुर के ख़िताब देते थे अंग्रेजी शासक अपने चाटुकारों को आज़ाद देश की सरकार ने उनका उपयोग जारी रखा नामकरण कर बदलाव कहने को मगर भावना और मकसद वही रहा । 
 
सत्ता ने राजनेताओं अधिकारियों सुरक्षा तंत्र को निरंकुश बना दिया और जनता द्वारा निर्वाचित चयनित नियुक्त लोग खुद को जनसेवक नहीं राजा और देश का मालिक समझ बैठे । इसकी शुरुआत अलग अलग नाम से राजनैतिक दल बनाने से हुई जैसे लोग कोई भी एक ही सामान अपने अपने लेबल से बेचते हैं और कहते हैं हमारा सामान शुद्ध है मिलावटी नहीं । लेकिन विडंबना की बात है कि किसी भी राजनैतिक दल के पास ख़ालिस लोकतंत्र था ही नहीं बल्कि सभी ने कुछ भी अपनी साहूलियत से मिश्रण बना कर घोषित कर दिया गुणवत्ता का अपना पैमाना अपनाते हुए । जैसा बाज़ार में देखते हैं किसी शहर गांव राज्य में कोई वस्तु खूब बिकती है और उसकी पहचान बन जाती है , बिल्कुल उसी तरह सभी दलों की दुकानें चल निकलीं और सभी जमकर कमाई करने लगे । कुछ ही दिन में भिखारी का राजा बनना देख कर पैसे वाले उनके धंधे में निवेश कर मालामाल होते गए । राजनेता चुनाव जीते या हारे कारोबारी लोग कभी भी घाटे में नहीं रहे उनको समझ होती है बाज़ार में झुकाव किधर है जिसका पलड़ा भारी हो उस तरफ चले जाते व्यौपारी हमेशा यही करते हैं । 
 
कुछ साल पहले लोकतंत्र ऐसा खोटा सिक्का बन गया जो किसी काम का साबित नहीं होने पर भी सबसे अधिक बिक्री वाला कमाई का माध्यम साबित हुआ । किसी के पास भी लोकतंत्र था ही नहीं फिर भी सभी ने बड़े आलीशान शोरूम खोलकर उसे बेचना शुरू किया , आयात भी निर्यात भी होने लगा उस का जिस को बनाना कोई जानता तक नहीं । भाषण में लोकतंत्र की हत्या उसकी गंभीर हालत पर चिंता जताकर खूब तालियां बजवाई गईं पहले उसका नाम निशान मिटा कर । ऐसा अजूबा भारत देश में ही संभव है हर कोई संविधान लोकतंत्र की बात करता है बिना कोई परिचय उनसे किए ही । अपनी पीठ थपथपाना अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनना अब क्या कहते हैं इसे कौन समझता है । गिनती करते हैं 140 करोड़ जनसंख्या 77 साल होने को हैं आज़ाद हुए लेकिन हासिल क्या हुआ है ध्यान से समझते हैं । 
 
सभी अधिकार सभी सुख सुविधाएं साधन संसाधन ऊपर वाले ख़ास सांसद विधायक मंत्री अधिकारी विशेषाधिकार प्राप्त वीवीआईपी धनवान नाम शोहरत वाले अभिनेता खिलाडी पत्रकार से लेकर धर्म और सामाजिक संगठन बनाकर मनमानी करने वालों की खातिर आरक्षित हैं । साधरण जनता से सभी कुछ ही नहीं जीने की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक छीन कर उनको गुलामी से बुरी दशा में पहुंचा कर भी शासक वर्ग रत्ती भर भी शर्मसार नहीं हैं । पुलिस प्रशासन किसी बंदर के हाथ तलवार की तरह है जनता का दमन करने को न्याय और न्यायपालिका तमाशाई बने खड़े हैं । भारत लोकतांत्रिक देश था लेकिन वो जो एक था लोकतंत्र उसका क्या हुआ इक पहेली बन गया है । गायब है अपहरण हुआ है या किसी कैदखाने में तड़प रहा है किसी शाहंशाह की महलनुमा हवेली में । आपको रौशनियां नज़र आती हैं शानदार इमारतें सड़कें क्या क्या नहीं इतना ही नहीं चांद को छूने की बात करते हुए इस असलियत को भुला दिया है कि वो घर मकान वो इक आशियाना 77 साल बाद नहीं 60 प्रतिशत जनता बेघर है और 20 प्रतिशत के पास बहुत अधिक है जिसे वो बर्बाद कर रहे हैं ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए हमको । 
 
 एक था लोकतंत्र | Facebook
 

अगस्त 04, 2024

POST : 1873 इक ख़्वाब सच होने की चाहत ( फ्रैंडशिप डे ) डॉ लोक सेतिया

    इक ख़्वाब सच होने की चाहत ( फ्रैंडशिप डे ) डॉ लोक सेतिया 

ज़िंदगी गुज़ारी है यही ख़्वाब देखते तलाश करते कुछ भी नहीं सिर्फ इक दोस्त हमेशा हर कदम साथ चलने वाला हालात बदलने पर भी कभी नहीं बदलने वाला लेकिन अभी तक कोई भी नहीं मिला तो सोच रहा हूं कब तक वही पुरानी बातें ग़ज़ल गीत कुछ मीठी यादें दोहरा कर इस दिन की ख़ुशी मनाते शुभकामनाएं भेजता रहूंगा । आज तकदीर को स्वीकार करना होगा झूठी तसल्ली से दिल बहलाना छोड़ समझना होगा कि यहां कहीं भी नहीं है कोई दोस्ती प्यार मुहब्बत की दुनिया । जिसे भी अपना दोस्त माना ज़िंदगी की सबसे बड़ी दौलत जिसे समझा वही जाने कब किसी मोड़ से कोई बहाना भी बनाये बगैर चुपचाप अलग राह पर चला गया मुझे उस मोड़ पर खड़ा छोड़कर । नहीं कोई शिकायत कोई गिला नहीं है नाराज़ होने का अधिकार मिला ही नहीं फिर भी इक मधुर एहसास रहता है थोड़ी दूर तक ही सही दोस्त बनकर कुछ लोगों ने साथी समझा तो सही । अब सोचता हूं तो लगता है कितने खुशनसीब होंगे वो लोग जिनको कोई सच्चा दोस्त जीवन में मिला होगा । लोग सुनता हूं खुद अपने आप से प्यार करते हैं मुझसे वो भी हुआ नहीं कभी अब भले आप मुझे निराशावादी ही कहें मंज़ूर है ये तोहमत भी हमको ग़म ही ग़म मिले हैं तो दिखावे को झूठी आशावादिता कहां से लाएं । आपको कैसे समझाएं पहली ही ग़ज़ल कितनी बार दोहराएं , 1973 में कहा था ' किसे हम दास्तां अपनी सुनाएं , कि अपना मेहरबां किस को बनाएं '। पचास साल बाद 2023 में उसे बदल कर बस इतना ही कहा ' सुनो गर दास्तां तुमको सुनाएं , तुम्हें हम मेहरबां अपना बनाएं '। पचास साल में दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है और हम लगता है उसी पुरानी राह पर इक मोड़ पर खड़े ही रह गए हैं । चलना ज़रूरी होता है चलते भी रहे हैं अकेले ही मगर समझ नहीं पाये किधर जाना था किस तरफ़ बढ़ते रहे कि मंज़िल हमेशा दूर होती गई । अब तो विधाता से भी शिकवा करना छोड़ दिया है क्यों हमारे भाग्य में इक शब्द लिखना भूल गए दोस्ती और प्यार । 
 
कभी इक ग़ज़ल में शेर कहा था ' हमें इक बूंद मिल जाती हमारी प्यास बुझ जाती , थी शीशे में बची जितनी पिला हमको वही देता '। दोस्ती की डगर पर हमको हमेशा कांटें ही कांटे बिछे मिले मगर हमने तो उनसे भी हमेशा प्यार से निभाया रिश्ता ज़ख़्म खाकर भी हंसते रहे कभी दर्द की दवा नहीं मांगी किसी से भी । दोस्ती के जाम में मय की जगह विष भी ख़ुशी ख़ुशी पीते रहे यही समझ कर कि ये भी कम नहीं है भला किसको फुर्सत है किसी को ज़हर भी दे आराम की ख़ातिर । आगाज़ से अंजाम तलक दोस्ती की डगर का ये सफ़र सुहाना नहीं भी रहा तो क्या हुआ इक झूठे सपने को हक़ीक़त मानकर ही सही थोड़ा सुकून मिलता तो रहा है ।   उम्र भर की हमने ईबादत जहां कहते हैं सब लोग वहां पर कोई ख़ुदा ही नहीं था । दिल आज भी नहीं मानेगा कि कोई अपना दोस्त हमराज़ हमख़्याल नहीं इस ज़माने में और उन सभी को शुभकामाएं और बधाई संदेश भेजना ही होगा । किसी ने समझा मुझको अपना चाहे नहीं मगर मैंने तो हर किसी को अपना दोस्त ही समझा है क्योंकि इक यही सबक सीखा है दुश्मनी करना रूठना किसी से हमको आता ही नहीं । बस इक ख़्याल है जो जाता ही नहीं , सच बोलना तुम न किसी कभी  । 
 

सच बोलना तुम न किसी से कभी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

सच बोलना तुम न किसी से कभी 
बन जाएंगे दुश्मन , दोस्त सभी । 
 
तुम सब पे यक़ीं कर लेते हो 
नादान हो तुम ऐ दोस्त अभी । 
 
बच कर रहना तुम उनसे ज़रा 
कांटे होते हैं , फूलों में भी ।  

पहचानते भी वो नहीं हमको 
इक साथ रहे हम घर में कभी । 

फिर वो याद मुझे ' तनहा ' आया 
सीने में दर्द उठा है तभी ।
 
 Happy Friendship Day 2023: best wishes shayari messages and quotes to  cherish relationships among true friends Happy Friendship Day 2023: फ्रेंडशिप  डे पर दोस्तों को भेजें ये प्यार भरे मैसेज, दिन बन

अगस्त 02, 2024

POST : 1872 लोग ही सारे बुरे हैं ( तरकश के तीर ) डॉ लोक सेतिया

          लोग ही सारे बुरे हैं ( तरकश के तीर ) डॉ लोक सेतिया  

यही होने लगा है सभाओं में , धार्मिक उपदेश देने वाले आलीशान भवन में उपस्थित भीड़ को जैसे लताड़ लगा रहे होते हैं । कहते हैं लोग धार्मिक तौर तरीके भूल गए हैं ऊपरवाले की पूजा इबादत नहीं करते सब अपने स्वार्थ को महत्व देते हैं । सबको ही जैसे सभी को कटघरे में गुनहगार साबित करने का प्रयास किया जाता है , शायद कोई इस पर विचार नहीं करता कि अगर ऐसा वास्तव में है तो फिर मंदिर मस्जिद गिरजाघर और गुरूद्वारे में धार्मिक अनुष्ठान आयोजन में इतनी संख्या में कौन दिखाई देते हैं । क्या जो लोग ऐसा कहते हैं बस वही अच्छे हैं बाक़ी सभी लोग ख़राब हैं , ये कैसे नवाब हैं । कुछ ऐसा ही धनवान लोग शासक बनकर सत्ता पर बैठे लोग ख़ुद को महान और जनता को नासमझ नादान समझते हैं शोहरत की बुलंदी पर शैतान भी अपने को भगवान समझते हैं । अपनी लूट को भी तमाम लुटेरे किसी का दिया वरदान समझते हैं , फ़र्ज़ निभाने को सरकार गरीबों पर एहसान समझते हैं । 
 
सोशल मीडिया पर भेजते हैं अधिकांश संदेश प्रचारित करते हुए कि कोई भी दोस्ती घर परिवार समाज के प्रति कर्तव्य नहीं निभाता है लेकिन कभी किसी भी ऐसे संदेश को नहीं सांझा करते कि जीवन में कितने लोगों ने कितनी बार बिना स्वार्थ भलाई करने का कार्य किया अपने पराये सभी की ख़ातिर । मतलब ये कि कोई जीवन भर भलाई करता रहे दुनिया को दिखाई नहीं देता लेकिन सभी औरों में बुराई तलाश करने का अवसर ढूंढते रहते हैं । जहां एक तरफ अवगुण तलाश करते हैं अपने करीब नाते रिश्ते दोस्त और गली मोहल्ले में वहीं जो धनवान या राजनेता कितने ही अपराध कर किसी न किसी ढंग से सज़ा से बच निकलते हैं कानून से खिलवाड़ कर उनकी आयोजित सभाओं में सब जानते हुए भी लोग तालियां बजाते हैं । तब किसी को उन में अपराधी बलात्कारी दिखाई नहीं देता है , हद तो ये है कि जो धर्मगुरु उपदेशक बनकर सभी को धर्म का उपदेश देते हैं ऐसे गुनहगार को अपना शिष्य बनाकर उसकी बढ़ाई करते हैं । 
 
सत्ताधारी शासक ऐसे अपराधी से गठजोड़ कर राजनीति को गंदा कर जाने कैसे किसी धर्म और संविधान की न्याय की बात कर सकते हैं । कभी कभी महसूस होता है इस आधुनिक समाज में अच्छाई और सच्चाई कोई अभिशाप हैं भलेमानुष बनकर किसी को दुनिया जीने क्या चैन से रहने तक नहीं देती है । शायद तभी इसको कलयुग कहते हैं क्योंकि कलयुग में पापी अपराधी बदमाश आदरणीय कहलाते हैं जबकि शराफ़त से आचरण करने वाले अपमानित होते हैं । क्या यही आसपास नहीं होता है हर दिन सोचना ।  
 
इस युग में पैसा ही भगवान बन गया है , पैसे की खतिर धनवान और शासक ही नहीं धर्मउपदेशक से लेकर तमाम बड़े आदरणीय कहलाने वाले शिक्षक डॉक्टर वकील न्यायधीश समाजसेवा का दम भरने वाले तथा सच का झंडाबरदार खुद को घोषित करने वाले अपना ईमान तक त्याग कर झूठ के दरबार में खड़े मिलते हैं । जनता का धन सरकारी संसाधन सभी ऐसे ही लोगों को खैरात में मिलता हैं । वास्तव में इनका गुज़ारा अपनी ईमानदारी से मेहनत से की कमाई से हो ही नहीं सकता है । इन सबका जैसे संगठित कोई गिरोह है जिसने अपने नियम कायदे ही नहीं नैतिकता के मूल्य तक बदल कर अपनी व्याख्या कर अनुचित को उचित करार कर दिया है । भगवान और धर्म को इक बाज़ार बनाकर ये सभी अपने अधर्म अन्याय अनाचार को छिपाना चाहते हैं , सभी को बुरा साबित कर खुद महान कहलाना चाहते हैं । 1970 में गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने गोपी फ़िल्म में बिल्कुल यही भविष्यवाणी की थी । एक एक शब्द सच साबित हुआ है ध्यान से पढ़ना इसको ।

रामचंद्र कह गये सिया से ऐसा कलयुग आयेगा , हंस चुगेगा दाना दुनका कव्वा मोती खायेगा । 

सुनो सिया कलयुग में काला धन और काले मन होंगे , चोर उच्चके नगरसेठ और प्रभु भक्त निर्धन होंगे। 

जो होगा लोभी और भोगी वो जोगी कहलायेगा , हंस चुगेगा दाना दुनका कव्वा मोती खायेगा ।

 रामचंद्र कह गए सिया से - Ramchandra Keh Gaye Siya Se Lyrics