अगस्त 04, 2024

POST : 1873 इक ख़्वाब सच होने की चाहत ( फ्रैंडशिप डे ) डॉ लोक सेतिया

    इक ख़्वाब सच होने की चाहत ( फ्रैंडशिप डे ) डॉ लोक सेतिया 

ज़िंदगी गुज़ारी है यही ख़्वाब देखते तलाश करते कुछ भी नहीं सिर्फ इक दोस्त हमेशा हर कदम साथ चलने वाला हालात बदलने पर भी कभी नहीं बदलने वाला लेकिन अभी तक कोई भी नहीं मिला तो सोच रहा हूं कब तक वही पुरानी बातें ग़ज़ल गीत कुछ मीठी यादें दोहरा कर इस दिन की ख़ुशी मनाते शुभकामनाएं भेजता रहूंगा । आज तकदीर को स्वीकार करना होगा झूठी तसल्ली से दिल बहलाना छोड़ समझना होगा कि यहां कहीं भी नहीं है कोई दोस्ती प्यार मुहब्बत की दुनिया । जिसे भी अपना दोस्त माना ज़िंदगी की सबसे बड़ी दौलत जिसे समझा वही जाने कब किसी मोड़ से कोई बहाना भी बनाये बगैर चुपचाप अलग राह पर चला गया मुझे उस मोड़ पर खड़ा छोड़कर । नहीं कोई शिकायत कोई गिला नहीं है नाराज़ होने का अधिकार मिला ही नहीं फिर भी इक मधुर एहसास रहता है थोड़ी दूर तक ही सही दोस्त बनकर कुछ लोगों ने साथी समझा तो सही । अब सोचता हूं तो लगता है कितने खुशनसीब होंगे वो लोग जिनको कोई सच्चा दोस्त जीवन में मिला होगा । लोग सुनता हूं खुद अपने आप से प्यार करते हैं मुझसे वो भी हुआ नहीं कभी अब भले आप मुझे निराशावादी ही कहें मंज़ूर है ये तोहमत भी हमको ग़म ही ग़म मिले हैं तो दिखावे को झूठी आशावादिता कहां से लाएं । आपको कैसे समझाएं पहली ही ग़ज़ल कितनी बार दोहराएं , 1973 में कहा था ' किसे हम दास्तां अपनी सुनाएं , कि अपना मेहरबां किस को बनाएं '। पचास साल बाद 2023 में उसे बदल कर बस इतना ही कहा ' सुनो गर दास्तां तुमको सुनाएं , तुम्हें हम मेहरबां अपना बनाएं '। पचास साल में दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है और हम लगता है उसी पुरानी राह पर इक मोड़ पर खड़े ही रह गए हैं । चलना ज़रूरी होता है चलते भी रहे हैं अकेले ही मगर समझ नहीं पाये किधर जाना था किस तरफ़ बढ़ते रहे कि मंज़िल हमेशा दूर होती गई । अब तो विधाता से भी शिकवा करना छोड़ दिया है क्यों हमारे भाग्य में इक शब्द लिखना भूल गए दोस्ती और प्यार । 
 
कभी इक ग़ज़ल में शेर कहा था ' हमें इक बूंद मिल जाती हमारी प्यास बुझ जाती , थी शीशे में बची जितनी पिला हमको वही देता '। दोस्ती की डगर पर हमको हमेशा कांटें ही कांटे बिछे मिले मगर हमने तो उनसे भी हमेशा प्यार से निभाया रिश्ता ज़ख़्म खाकर भी हंसते रहे कभी दर्द की दवा नहीं मांगी किसी से भी । दोस्ती के जाम में मय की जगह विष भी ख़ुशी ख़ुशी पीते रहे यही समझ कर कि ये भी कम नहीं है भला किसको फुर्सत है किसी को ज़हर भी दे आराम की ख़ातिर । आगाज़ से अंजाम तलक दोस्ती की डगर का ये सफ़र सुहाना नहीं भी रहा तो क्या हुआ इक झूठे सपने को हक़ीक़त मानकर ही सही थोड़ा सुकून मिलता तो रहा है ।   उम्र भर की हमने ईबादत जहां कहते हैं सब लोग वहां पर कोई ख़ुदा ही नहीं था । दिल आज भी नहीं मानेगा कि कोई अपना दोस्त हमराज़ हमख़्याल नहीं इस ज़माने में और उन सभी को शुभकामाएं और बधाई संदेश भेजना ही होगा । किसी ने समझा मुझको अपना चाहे नहीं मगर मैंने तो हर किसी को अपना दोस्त ही समझा है क्योंकि इक यही सबक सीखा है दुश्मनी करना रूठना किसी से हमको आता ही नहीं । बस इक ख़्याल है जो जाता ही नहीं , सच बोलना तुम न किसी कभी  । 
 

सच बोलना तुम न किसी से कभी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

सच बोलना तुम न किसी से कभी 
बन जाएंगे दुश्मन , दोस्त सभी । 
 
तुम सब पे यक़ीं कर लेते हो 
नादान हो तुम ऐ दोस्त अभी । 
 
बच कर रहना तुम उनसे ज़रा 
कांटे होते हैं , फूलों में भी ।  

पहचानते भी वो नहीं हमको 
इक साथ रहे हम घर में कभी । 

फिर वो याद मुझे ' तनहा ' आया 
सीने में दर्द उठा है तभी ।
 
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