ये हर दिन का तमाशा है ( ख़ुशी - ग़म ) डॉ लोक सेतिया
सब नाच रहे झूम रहे हैं , हमको भी साथ देना चाहिए क्योंकि हम किसी से कम नहीं । कल योग दिवस था जिधर देखो वही नज़ारा था , इतने दिन हैं कि गिनती करना मुश्किल है साल में 365 दिन लेकिन आयोजन कितने कोई नहीं जानता , खुद अपने अवसर कभी कभी मिलते हैं सार्वजनिक आयोजन ऐसा कोई दिन नहीं जब नहीं होता है । बुरा कुछ भी नहीं अगर मकसद किसी भी उचित आवश्यक लाभदायक कार्य की बात करने का महत्व समझने पर ध्यान केंद्रित हो , लेकिन सिर्फ कहने को दिखाने को रोज़ कुछ आयोजन करने पर संसाधन पैसा ऊर्जा खर्च करना कदापि उचित नहीं है । यहां जब लोग भूखे हैं अभावग्रस्त हैं बदहाल हैं जाने कितनी परेशानियों से जूझते रहते हैं मगर कोई समाधान नहीं करता सरकार से समाज तक सभी निष्ठुर बने तमाशा देखते हैं ऐसे में सिर्फ आडंबर करने पर देश का धन बर्बाद करना अनुचित ही नहीं आपराधिक कृत्य भी है । सभी को फोटो करवाने से सेल्फ़ी लेने का जैसे कोई रोग लग गया है लोग ज़िंदगी को वास्तविकता से कहीं अधिक तस्वीरों में जीना चाहते हैं । मैं खुद ऐसे पागलपन का शिकार रहा हूं कॉलेज के समय स्कूल के साथियों संग फोटो करवाता रहता था जो अभी भी कुछ पुरानी अलबम कुछ किसी लिफ़ाफे में सुरक्षित रखी हैं । इक दिन इक पोस्ट ब्लॉग पर दोस्ती को लेकर लिखी तो कुछ खास करीबी दोस्तों से फोटो मांगे भी जिन के मेरे पास उपलब्ध नहीं थे । आज सोचता हूं सभी से रिश्ते बदल गए बस तस्वीरें नहीं बदली दिल बहलाता हूं कि कभी सभी अपने थे । लगता हैं हम ये जानते हैं जो भी रोज़ करते हैं अगले ही दिन अर्थहीन हो जाता है बस शायद यादों को एकत्र करने का कार्य कर रहे हैं लेकिन जैसे भी हैं अच्छी बुरी उनको सहेजना भी है इसे लेकर सोचते ही नहीं ।
कभी हम सभी खुशियां और ग़म मिलकर सांझा करते थे , अब वास्तव में कोई ख़ुशी में शामिल होता है न ही किसी के ग़म को समझता है । हर अवसर पर औपचरिकता निभाते हैं और फोटो वीडियो बना कर सिर्फ उन पलों की यादें जमा करते रहते हैं कभी कभी तो बाद में उनको देखते ही नहीं क्योंकि देख कर कोई भावना कोई उल्लास जीवित नहीं होते हैं । हमने धन दौलत जमा कर ली मगर उनका उपयोग सही मकसद को लेकर करना हम नहीं जानते हैं , अपनी रईसी का दिखावा करना वास्तव में हमको बड़ा नहीं छोटा करता है । हम ऊंचाई पर खड़े फोटो करवाते हैं तो ऊंचे नहीं बौने लगते हैं । अजीब लगता है जब कोई योग को या आयुर्वेद को ही नहीं बल्कि भगवान को भी आस्था से नहीं विकास और अर्थव्यवस्था से जोड़ता है । कैसी विडंबना है कितने महान उद्देश्य अपनी राह से भटक कर बाज़ार की कोई चीज़ बनने को अभिशप्त हैं , ये कुछ पाना नहीं है जो पुरातन था उसको खोना है जैसे कोई किसी महल को खंडहर बनाकर समझता है उस पर गर्व किया जाना चाहिए कि ऐसा भव्य महल हुआ करता था । सादगीपूर्ण जीवन आजकल किसी को पसंद ही नहीं आता है बस जिन्होंने सादगी से बिना किसी ताम झाम समाज को अपना सर्वस्व अर्पित किया उनके बुत बनवा कर कोई सड़क बनाकर समझते हैं बहुत है । अचानक याद आया अभी खबर पढ़ने को मिली हरिशंकर परसाई के नाम पर जन्मशताब्दी वर्ष में इक सड़क बना रहे उनके नाम पर , अब उनका कोई घर क्या निशान तक जबलपुर में बचा नहीं है । रचनाकार कभी मरता नहीं ज़िंदा रहता है अपनी कालजयी रचनाओं में और ऐसे बड़े कलमकारों को तस्वीर या समाधि स्थल की ज़रूरत नहीं होती है । आजकल लोग अपना नाम खुद ही इधर उधर पोस्टर छपवा कर लगवाते हैं शोहरत हासिल करने की ख़ातिर जबकि वास्तविक जाने माने लोग इस को कभी ज़रूरी नहीं समझते थे , किसी शायर का कहना है :-
बहुत प्यारा लेख है सर...सिर्फ दिखावे को योग हो रहा है फोटोज ने और सेल्फियों में योग हो रहा है पैसे की बर्बादी हो रही है ऐसे आयोजनों में
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