सबको जीने की आज़ादी कब ( अमृत या ज़हर ) डॉ लोक सेतिया
इक सवाल बार बार दोहराया जाता रहा है कि क्या जैसी देश की दशा है आज़ादी के लिए लड़ने अपनी जान न्यौछावर करने वाले सवंत्रता सेनानियों ने कभी इस की कल्पना की थी । जवाब सही है कि कोई दो राय नहीं हैं कि ऐसा उन्होंने कदापि नहीं चाहा था , सोचा ही नहीं था कि देश को आज़ादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था संविधान सब मिलने से सामान्य नागरिक को कुछ भी नहीं हासिल होगा । विदेशी शासकों की गुलामी की जंज़ीरें टूटने से सभी इक समान अधिकारों के हकदार बन जाएंगे परिकल्पना थी जो साकार नहीं हुई । आज 75 साल बाद अमृतमहोसव का जश्न मनाते हुए शायद ज़रूरी ही नहीं समझा गया कि आत्मचिंतन आत्मनिरीक्षण किया जाए की कितनी पीढ़ियां बदल जाने पर भी समाज से भूख गरीबी बदहाली शिक्षा का अधिकार न्याय पाने की उम्मीद और स्वस्थ्य सेवाओं का आसानी से सभी को उपलब्ध होना , सामाजिक कुरीतियां खत्म होनी तो क्या और भी चिंताजनक हाल सभी जगह दिखाई देता है । पाया क्या है खोया क्या है को लेकर सच ये है कि अधिकांश जनता ने सब खोया है और चंद लोगों घरानों राजनेताओं अधिकारियों उद्योगपतियों धनवान उच्च पदों पर बैठे लोगों को जितना उनके हिस्से का मिलना चाहिए उस से सैंकड़ो हज़ारों नहीं लाखों करोड़ों गुणा मिला है । जनता जो निचले पायदान पर है उसको बेबस मज़बूर और शोषण का शिकार होने को छोड़ दिया है उस व्यवस्था ने अपनी खुदगर्ज़ी और ऐशो आराम की खातिर कमज़ोर और अकेला कर के । हमारी सरकारी शासन प्रणाली न्याय की व्यवस्था किसी अपाहिज की तरह बेकार साबित हुई है जो खुद अपना बोझ नहीं उठा पाती और सारा बोझ गरीब जनता पर लादा जाता है जैसे आदमी इंसान नहीं गधा है उस सभी को अपनी पीठ पर ढोने को अभिशप्त । आज़ादी का वरदान बीस तीस प्रतिशत लोगों को मिला और अभिशाप सतर अस्सी प्रतिशत की किस्मत नहीं सत्ता धन ताकत की लूट का नतीजा है ।
हमारी अर्थव्यवस्था अमीर को अमीर और गरीब को गरीब बनाती है , राजनेता अपना ईमान संविधान के प्रति कर्तव्य ताक पर रख कर चुनाव जीतने सत्ता पाने और शासक बनते ही खुद को जनसेवक नहीं देश का मालिक समझने लगते हैं । जनता के नौकर सेवक नियुक्त होने वाले जनता को अपना गुलाम समझते हैं और कुर्सियों पर बैठ कर सभ्य नागरिक से अहंकार से पेश आते हैं उनके उचित कार्य जो प्रशासन को कर्तव्य समझ खुद करने चाहिएं करते समय जतलाते हैं जैसे दया की भीख देते हैं । शासक राजनेताओं से सरकारी अफ्सरों कर्मचारियों के अनुचित आचरण गुनाहों का हिसाब नहीं है और उनके प्रचार के विज्ञापन हर तरफ दिखाई देते हैं घोषित करते हुए कि उन्होंने क्या क्या किया जनता की खातिर । कितना सच है ये बिल्कुल छल है जनता को जो मिलना चाहिए और जो जनता का ही है किसी नेता अधिकारी उद्योगपति की तिजौरी से नहीं आया है उस हक को खैरात कहते लज्जा नहीं आती है ।
देश की जनता की भलेमानस की खामोश रहने की आदत और झूठे वादों में फंसने से और सबसे अधिक आपस में भाईचारा भूलकर राजनैतिक दलों के चंगुल में फंसने से ये दशा होती गई है । शायद हम नहीं जानते कि हमने जो संविधान देश को सौंपा है उस में राजनैतिक दलों की कोई भूमिका नहीं है । देश की जनता को अपने प्रतिनिधि सांसद विधायक चुनने थे जो काबिल ईमानदार जनसेवक हों लेकिन हमने राजनीतिक समर्थक अथवा निजी स्वार्थ तमाम अन्य कारणों से समाज को बांटने वालों से अपराधी तत्वों तक को चुनकर अपना भविष्य गलत हाथों में देकर पछताते रहे हैं । क्या कभी विचार किया खुद किसी सही व्यक्ति को अपना उमीदवार बनाकर चुन कर भेजें । जो खुद किसी दल या राजनेता के बंधक हों उनसे आपको क्या हासिल होगा ऐसे लोग राजधानी पहुंचते ही अपने इलाके में दिखाई तक नहीं देते अपने को चुनने वालों से मिलते ही नहीं तो समस्याओं का समाधान क्या करेंगे ।
कड़े शब्दों में कहा जाए तो देश की दुर्दशा है जो कुछ लोगों के संगठित गिरोह संविधान की भावना को अनदेखा कर मनमानी पूर्वक शासन का गलत उपयोग कर रहे हैं । चिंता की बात ये है कि कोई भगत सिंह कोई गांधी कोई लोकनायक जयप्रकाश नारायण आज नहीं है जो अंधेरी कोठड़ी में इक रौशनदान कहलाये । भेड़चाल आदमी की फितरत बन गई है , जिसे देखो 75 - 75 का आंकड़ा साथ जोड़ कर टीवी शो से कवि शायर कविता पाठ करने लगे हैं कहीं 75 लेखकों की रचनाएं कहीं 75 किताबों की बात कहीं कोई अपने शायर के 75 ख़ास लोगों को किताबों की श्रृंखला प्रकाशित कर रहे है । राम नाम जपने की तरह ये संख्या इक पावन शब्द समझा जाने लगा है जिस से मनवांछित फल मिलते हैं । कभी समझते थे कोई बार बार इक बात पर अटका वही रटने लगे तो व्यक्ति मंदबुद्धि है पगला गया है , साठ वर्ष में सठियाना सुनते थे 75 का होने पर ऐसा होता है नहीं जानते थे जो देखा उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी । सरकार ने कुछ करना था और कुछ करने को बाकी नहीं रहा सब लाजवाब बढ़िया है शासक वर्ग के लिए तो साल भर खेल तमाशे उत्सव मनाने की फुर्सत ही फुर्सत है पर आपको अभी ज़िंदगी की आज़ादी से बसर करने की हसरत को लेकर चलना है । सफर चलता है हसरत अधूरी ही नहीं शायद मरने के कगार पर खड़ी है । 100 साल का इंतज़ार करने तक जिनको ज़िंदा रहने की उम्मीद नहीं उनको 75 साला जश्न मनाने का अवसर मिला यही बहुत है । सोचा इसी संख्या से अंदाज़ा लगाते हैं 75 करोड़ जनता को ख़ाली पेट फुटपाथ पर खुले आसमान तले सर्द रातें गर्म दोपहरी आंधी बरसात सब को झेलना है उनकी आज़ादी बंधक रखी है कुछ ख़ास लोगों के पास । जीने का संघर्ष उनका मौत से पहले खत्म नहीं होता है और अफ़सोस उनकी उम्र 75 की कभी नहीं होती बचपन से जवानी में उनकी सांसों की लड़ी टूट जाती है । क्षमा करना जश्न की चर्चा करने वाले किसी के दुःख दर्द या परेशानी की बात नहीं सुनना चाहते पर लिखने वाला हर तरफ बदहाली को देख कर ख़ुशहाली है इतना बड़ा झूठ कैसे लिखे कलम साथ नहीं देती । इसलिए सच सच लिख दिया है कड़वा लगे या मीठा आप की तकदीर । जिस गांव शहर के 75 घरों में बदहाली को अनदेखा कर 25 घर वाले मस्ती में झूमते नाचते हैं उस पर कोई गर्व नहीं किया जा सकता है । हमदर्द होना धर्म है खुदगर्ज़ होना अधर्म और बेदर्द होना गुनाह पाप अपराध ऐसी परिभाषा है सोचने की ज़रूरत है ।
आदमी...गधा...अभिशप्त..👍 75 के अंक के माध्यम से बढ़िया तंज👌
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