मार्च 27, 2023

ज़िंदगी के चार दिन का अर्थ ( नीतिकथा ) डॉ लोक सेतिया

   ज़िंदगी के चार दिन का अर्थ ( नीतिकथा ) डॉ लोक सेतिया 

ज़िंदगी चार दिन की चांदनी होती है कहते हैं ठीक इसी तरह दिन के चार पहर चार पहर रात के बहुत कुछ को चार भाग में बांटने की बात युग युग से चलती आई है । चार लोग क्या कहेंगे चार दिशाएं घर के कमरे के कोने भी चार चार आने से चार युग सत्ययुग कलयुग त्रेता युग द्वापर युग तमाम तरह से चार हिस्सों में बांटा गया है । ये सब कोई बिना आधार नहीं हुआ किया गया बल्कि बड़ी गहराई से सब को ठीक से जांच परख कर सोच विचार कर निर्धारित किया हुआ है । केवल कहने सुनने से नहीं सोचने समझने परखने से पता चलता है अनुभव से बढ़कर कोई ज्ञान विज्ञान नहीं होता है । हमने जिन बातों को अनावश्यक मान कर त्याग दिया वही वास्तव में हमारी जीवन की सभी समस्याओं का हल बताते हैं । हैरानी है या विडंबना या फिर हमारी बड़ी नासमझी कि आज शायद ही उन नीतिकथाओं बोधकथाओं की कोई किताब हम पढ़ते हैं मिलती ही नहीं आसानी से । हैरानी होगी कि मुझे कुछ ऐसी किताबें रद्दी वाले के पास दिखाई दी और मैंने उचित दाम देकर खरीद ली हैं दो चार । बात चार की हो रही थी उस पर आते हैं । 
 
हम सभी की उम्र छोटी बड़ी जैसे भी हो उस को चार भाग में विभाजित करते हैं  बात बचपन जवानी गृहस्थ बुढ़ापा की नहीं कुछ और अलग है । जीवन इक वृक्ष है जिसे बोने से काटने तक फिर चार भाग हैं , पहले ज़मीन को तैयार करते हैं ज़िंदगी का पहला दिन इक हिस्सा यही होता है । उस के बाद दूसरे भाग ज़िंदगी का दूजा दिन बीज बोते हैं सब अपने अपने अनुसार कोई फूल कोई कांटे कोई कुछ और जो अच्छा लगता है । अब ज़िंदगी की दोपहर हमको जो बोया उस को संवारना होता है ये वही अवसर है जब हम अपनी गलती को सुधार सकते हैं बहुत कुछ नासमझी में किया नहीं करना था उसको बदला संवारा जा सकता है तीसरा दिन यही होता है । ज़िंदगी की ढलती शाम जीवन का चौथा दिन या आखिरी पहर हमने जो बोया था उस के अच्छे बुरे परिणाम सामने दिखाई देते हैं तब आपके पेड़ पर खुशियों के फल हैं या दुःख दर्द के कांटे हैं आपको उन को स्वीकार करना होगा अपनी झोली में लेना पड़ता है । बहुत बार बड़े बज़ुर्गों से सुनते रहे हैं कोई आखिरी सांस तक किसी से क्षमा याचना करने को व्याकुल रहता है मांगने पर मौत नहीं आती और जिस किसी से अन्याय किया उस के आने का इंतज़ार रहता है । 
 
आजकल टीवी पर साईं बाबा सीरियल दिखाया जा रहा है पिछले सप्ताह की कहानी में इक रेलवे का टीसी किसी की टिकट किसी दूसरे को रिश्वत लेकर दे देता है जिस से उस व्यक्ति का भविष्य का पूरा जीवन बहुत कठिन और समस्याओं से जूझते हुए बीतता है । उसे नहीं पता होता कि उस की इक गलती का असर किसी पर कितना खराब पड़ सकता है । भले कहानी में साईं बाबा सब ठीक करते हैं मगर ये सच नहीं है केवल समझाने को आखिर में सकारात्मक अंत लिखने वाला करते हैं जबकि हमारी ज़िंदगी में कोई अंत होता ही नहीं है । आपके मेरे निधन के उपरांत भी अपनी दास्तां ख़त्म नहीं होती बस जैसे कहानी में कोई किरदार मरता है तो बाक़ी किरदार कहानी को आगे बढ़ाते हैं यही होता है । नर्क भी यहीं है स्वर्ग भी कुछ लोग सही राह पर चलते हैं हर किसी के सुख दुःख को समझते हैं वो इंसान फ़रिश्ता जैसे होते हैं और उनका होना सुकून चैन देता है जबकि कुछ अपने लोभ लालच स्वार्थ में अंधे ख़ुदग़र्ज़ी में आदमी को नोच कर खाने वाले गिद्ध की तरह होते हैं उनसे संपर्क होना आदमी को डर और चिंता में डालता है वो किसी दैत्य से कम नहीं होते और नर्क बनाते हैं जहां भी उपस्थित होते हैं । धर्म की सही परिभाषा यही है जो गोस्वामी तुलसीदास अपने ग्रंथ श्री रामचरितमानस में लिखा है ,  

             " परहित सरिस धरम नहीं भाई । परपीड़ा सम नहीं अधमाई । " 





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