समाज के और कानून के दोहरे मापदंड ( विडंबना ) डॉ लोक सेतिया
सामाजिक आदर्श और मूल्य तथा नियम कानून व्यक्ति या लोगों की सुविधा के अनुसार नहीं होने चाहिएं। कोई जाना पहचाना नाम हो या कोई अजनबी हादिसा ख़ुदकुशी या क़त्ल होने पर विचलित हर किसी को दोनों ही सूरत में होना चाहिए मगर ऐसा लगता नहीं है। समस्या ये है कि जिस की अनुमति कानून देता है समाज उसको ख़ास वर्ग को लेकर स्वीकार करता है सामन्य वर्ग को लेकर नहीं। विशेष वर्ग ख़ास समझे जाने वाले लोग सामाजिक बंधनों की परवाह नहीं करते जब जिस से रिश्ते बनाते तोड़ते हैं यहां तक कि कोई कानून विरोधी कार्य करते हैं हथियार रखते हैं गुंडागर्दी करते हैं नशे के आदी होते हैं और बिना सोचे समझे खुले आम नग्नता का प्रदर्शन करते हैं बेहद आपत्तिजनक बेहूदा हरकते करते हैं और हम इन सभी में कोई खराबी नहीं मानते बल्कि उनके चाहने वाले होने कादम भरते हैं। हमने इक बात को भुला दिया है कि बबूल बोकर आम नहीं खा सकते हैं और अच्छे बुरे कर्मों का फल सामने आता ही है।
आजकल लगता है जैसे सुशांत राजपूत के साथ जो भी घटना हुई देश में किसी और से कभी नहीं होती है। सब जानते हैं रोज़ कितने लोग इस सब का शिकार होते हैं मगर उनको लेकर कोई सोचता नहीं विचलित होने की तो बात ही क्या। क्या वो लोग इंसान नहीं होते हैं और सुशांत जैसे लोग क्या वास्तव में बड़े नादान और मासूम होते हैं जिनको कोई अपने जाल में फंसा सकता है। अपनी ज़िंदगी में बहुत कुछ उन्होंने खुद अपनी मर्ज़ी से किया होगा और मुमकिन है सब उनकी चाहत के हिसाब से नहीं रहा हो। मगर हम सभी को ज़िंदगी में खट्टे मीठे अनुभव को स्वीकार करना पड़ता है। बेशक किसी की मौत के बाद उसकी निजि जीवन की बातों की चर्चा से बचना चाहिए लेकिन बिना सच सामने आये किसी और को कटघरे में खड़े करना भी उतना ही अनुचित होगा। दो लोग साथ रहते हैं अपनी मर्ज़ी से उनके बीच कितनी बातें हो सकती हैं और ऐसे रिश्ते जिस तरह बनते हैं उसी तरह बिखर भी सकते हैं। आपसी संबंध को सही बनाना दोनों पर निर्भर करता है।
मुझे रिया चक्रवर्ती से कोई मतलब नहीं है सुशांत की मौत या ख़ुदकुशी अगर क़त्ल हुआ तो और भी दिल को झकझोरता है ये सोच कर कि क्या प्यार मुहब्बत का ये अंजाम होना था या फिर आजकल इश्क़ मुहब्बत खेल बन गया है जब तक चाहा खेले दिल भर गया तो अलग अलग हो गए। लेकिन जब हम उनके रिश्ते की चर्चा करते हैं और किसी को दोषी मानते हैं तब क्या उन रिश्तों की भी बात सोचते हैं जो अच्छे समय और पैसे होने या ज़रूरत पड़ने पर याद आते हैं मगर खराब वक़्त में गरीबी में निराशा में किनारा कर लेते हैं। क्या आपको नहीं लगता जब किसी की ज़िंदगी में कोई परेशानी चिंता होती है तब ऐसे दोस्त वास्तव में रिश्ता निभाते तो बहुत हादिसे या अनहोनी हो ही नहीं। पर हम बड़े अजीब लोग हैं ज़िंदा इंसान को प्यार नहीं देते उसको बदहाली में छोड़ देते हैं मगर मरने के बाद उस पर फूल चढ़ाते हैं। सुशांत के अपने या दोस्त शायद पहले उसके साथ होते तो उसको रिया की चाहत की ज़रूरत नहीं होती या किसी नाते के रहने बिगड़ने से ज़िंदगी दांव पर नहीं लगती।
कुछ दिन बाद ये घटना भी पुरानी होकर यादों की गर्द में खो जाएगी और हम शायद सोचेंगे भी नहीं कि उस का अंजाम क्या हुआ कोई मुजरिम साबित हुआ कोई गुनहगार था कोई जुर्म किसने किया। जाने कितने मुकदमे सही अंजाम तक पहुंचते नहीं कभी। पुलिस न्याय व्यवस्था की बात सब जानते हैं पैसे और ताकत रसूख से क्या नहीं होता है अभी भी सामने है कि परिवार की ताकत और पहचान कितना महत्व रखती है। लेकिन समाज को आपको मुझे सभी को क्या इस घटना दुर्घटना या हादिसे से कोई सबक मिलता है सोचा नहीं होगा। आपको अच्छे लोगों की संगत और दोस्ती हमेशा रखनी चाहिए और खराब लोगों से हमेशा बचकर रहना चाहिए। मगर सच उल्टा है हर कोई शोहरत दौलत के पीछे भागता है जाने माने लोग अभिनेता खिलाड़ी राजनेता अधिकारी कितने बदचलन हों हम जानते हुए भी उनसे करीब होने को व्याकुल रहते हैं उनसे बचना तो दूर की बात है। हमने क्या सीखा है धर्म नैतिकता की बातों से क्या यही कि बुराई नफरत करने की जगह हम किसी को बुरा साबित करने को तर्क घड़ते हैं खराब व्यक्ति से मतलब आने पर रिश्ते बनाने की बात करते हैं।
सटीक
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