खिलौना नहीं इंसान हूं ( दास्तान ए ज़िंदगी ) डॉ लोक सेतिया
हंसता रहा , मुस्कुराता रहा कभी आंसूं बहाता रहा ,
जैसे कोई बेजान सामान सबकी दुनिया का मशीन सा।
कोई मंज़िल कोई मकसद कोई सपना नहीं था मेरा भी।
फिर भी बहला नहीं पूरी तरह से किसी अपने बेगाने का ,
मुझ से खेल कर भी दिल खिलौना टूटने बिखरने तक भी।
अब तक गया हूं आखिर सदियों लंबे सफर पर चलते हुए ,
नहीं चला जाता थोड़ा तक कर आराम करना चाहता हूं मैं।
सभी अनचाहे खुद बना लिए बंधनों से मुक्त होकर अब ,
बचे हुए कुछ पल जीना चाहता हूं अपनी मर्ज़ी से मैं भी।
भगदौड़ से दुनिया की तक कर चूर हो कर परेशान होकर ,
पल दो पल जीना चाहता हूं अपने साथ अपनी ख़ुशी से।
किस किस को कैसे समझाऊं मैं नहीं बेजान खिलौना कोई ,
दिल जज़्बात संवेदना और एहसास कुछ खालीपन का है।
कुछ भी नहीं चाहत कोई गिला शिकवा आपस में नहीं है ,
बस खुले आसमान में सांस लेना है घुट रहा है दम मेरा।
नहीं आदत औरों की तरह हाथ जोड़ मांगना कुछ कभी ,
इतना चाहता हूं जैसा भी मैं हूं रहने दो मुझे अपनी तरह।
और नहीं जिया जाता हर किसी को खुश रखने को मुझसे ,
थोड़ी आरज़ू बची हुई है आखिरी पल चैन से रहना है अब।
खामोश होकर शायद चिंतन करना चाहता हूं क्या है पास ,
समझना नहीं सब को न ही किसी से कुछ कहना है अब।
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