अंधेर नगरी चौपट राजा ( सूरत-ए-हाल ) डॉ लोक सेतिया
रात को राज्य सभा में भी लोकसभा में पास हो चुका संविधान में आरक्षण को जिनको पहले नहीं हासिल हो सकता था उन तथाकथित उच्च जाति वर्ग को भी आर्थिक आधार पर दस फीसदी आरक्षण देने का संशोधन बिल दो तिहाई बहुमत से पास हो गया। सबसे पहली बात सभी जानते थे इसका मतलब देश की भलाई तो कदापि नहीं है सत्ताधारी वोटों की खातिर ला रहे हैं और बाकी दल इसी डर से साथ देने को विवश हैं। सही मायने में जैसे हुआ और किया जाता रहता है कई बार कि सांसद अपना मत पक्ष अथवा विरोध में विवश हो कर अथवा स्वार्थ का ध्यान रखकर करते हैं जो विचार की आज़ादी को बंधक बनाने की बात है। आंखों पर मोह की पट्टी बांध कर संविधान की व्यवस्था से इक खिलवाड़ किया जाता है। आरक्षण शुरू किया गया था दस साल के समय के लिये ताकि जो सदियों से दलित वंचित रहे हैं कुचले गये हैं और कमज़ोर हैं सामान्य वर्ग का सामना बराबरी से नहीं कर सकते उनको सक्षम बनाया जाये। मगर बाद में इसको समाप्त करने की जगह हर सरकार ने अपने मतलब को बढ़ावा देकर ये साबित किया है कि उनके लिये सब को समानता की बात कोई मायने नहीं रखती है बल्कि वो चाहते हैं कि लोग इसी तरह से बैसाखियों के सहारे चलते रहे और कभी भी स्वालंबी बन नहीं सकें। खेद की बात है कि अधिकांश लोग अपने वर्ग के लिए स्वाभिमान को दरकिनार कर आरक्षण के सहारे की बैसाखी की चाहत करते रहे हैं। हम बहुत कुछ बदलते हैं जब लगता है उससे कोई फायदा नहीं हो रहा है नियम कानून क्या सरकार तक बदलते हैं जब वो नाकाम साबित होती है। तब क्यों उस व्यवस्था को जो सत्तर साल में अपने उद्देश्य को पाने में असफल रही है बदलते नहीं उसको हटाते नहीं बनाये रखते हैं जबकि आरक्षण से अमीर गरीब की खाई मिटी नहीं है और कुछ और लोग जिनको सहारे की ज़रूरत नहीं है उसका उपयोग कर केवल खुद की भलाई करते जाते रहे हैं। राजनेता और राजनैतिक दल तो सत्ता के मद में अंधे होकर देश समाज को खाई में धकेल सकते हैं मगर कब तक हम इनके झांसे में आते रहेंगे और अपने स्वार्थ की खातिर वोट देते रहेंगे। क्या संविधान देश हित की बात हमारे लिए स्वार्थ से ऊपर है।
आज इस आलेख में बात केवल आरक्षण की ही नहीं की जानी है , राजनीति सरकार संगठन से लेकर आम नागरिक तक सभी को लेकर सवाल हैं जिनका जवाब तलाशना ज़रूरी है। मेरी इक ग़ज़ल के शेर हैं :-
हल तलाशें सभी सवालों का
है यही रास्ता उजालों का।
तख़्त वाले ज़रा संभल जायें
काफिला चल पड़ा मशालों का।
प्यास बुझती नहीं कभी उनकी
दर्द समझो कभी तो प्यालों का।
बेच डालें न देश को इक दिन
कुछ भरोसा नहीं दलालों का।
राज़ दिल के सभी खुले "तनहा"
कुछ नहीं काम दिल पे तालों का।
आज सभी राजनेताओं से पहला सवाल यही है कि अगर आरक्षण से समानता लानी संभव है तो संसद में महिला आरक्षण इसी तरह क्यों नहीं पास किया गया अभी तक। राजनेता खुद अपने लिए लाखों नहीं करोड़ों रूपये की सुविधाएं और साधन एवं विशेषाधिकार क्यों नहीं छोड़ते अगर उनको देश की जनता की सेवा और भलाई करनी है। आम नागरिक को भीख और आपको विशेषाधिकार इसको लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता है। जिस देश में तीस से चालीस करोड़ लोग भूखे सोते हैं उसके सांसद विधायक राजसी शान से देश के खज़ाने की लूट के दम पर रहते हैं तो वो अपराधी हैं अनुचित व्यवस्था अपने स्वार्थ की बनाये रखने के। वास्तव में आरक्षण इक रोग है जिसको मिटाने का समय कब का बीत चुका है मगर नेता लोग उसको बनाये हुए हैं जनता को बहलाये रखने की खातिर। अभी इस को कानून बनना है और सर्वोच्च अदालत की चौखट को भी लांगना है। उसके बाद भी इक दौड़ खुद को अधिकारी होने का दावा साबित करने की जिस में जैसे हर योजना में हुआ है असली वंचित छूट जाते हैं और जो अधिकारी नहीं उनके हिस्से में मलाई आती है। काश देश के नेताओं को ज़रा भी चिंता देश और समाज की होती तो देश के खज़ाने पर कुंडली मार कर बैठे नेताओं और अधिकारियों के बेतहाशा फज़ूल खर्चे बंद कर सब को मूल भूत सुविधाएं देने का कार्य किया जाता। आज आम नागरिक को शिक्षा स्वास्थ्य देना सरकार की प्राथमिकता नहीं है और खुद अपने लिए कोई सीमा नहीं है कितना अधिक चाहिए। देशसेवा के नाम पर सब अपने पर खर्च करना आखिर कब तक।
अब बात हमारी आम नागरिक की। हम नियम कानून का पालन करना ज़रूरी नहीं मानते हैं और जब नियम तोड़ने पर जकड़े जाने की बात होती है तब किसी भी तरह से बचने को नेताओं अधिकारियों से मिल कर अनुचित को उचित साबित करवाना चाहते हैं। फिर उन्हीं को दोष भी देते हैं। संगठन के नाम पर मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे के नाम पर धर्मशाला के नाम पर सरकारी ज़मीन और किसी सांसद से कल्याण राशि जो वास्तव में गरीब लोगों के लिए है आबंटित करवा लाभ उठाते हैं। ऐसे अपने मतलब और स्वार्थ की खातिर हम भी उनकी तरह से ही सरकारी संपदा की लूट के भागीदार बन जाते हैं। आज विचार करना चाहिए कितने लोग इस में सहभागी हैं और बाद में इस लिए खामोश समर्थन देते हैं सरकार और अधिकारी वर्ग की गलत बात पर।
जिसकी मर्ज़ी हड़ताल करे बंद करे विरोध करने का अधिकार है , मगर आपको हड़ताल का अधिकार किसी और के हड़ताल नहीं करने के अधिकार का हनन करने को नहीं हो सकता है। किसी को डरा धमका कर बंद करने या रास्ता रोकने या आगजनी लूट करने को अराजकता कहते हैं और अराजक समाज बनाना उचित नहीं है। जब भी जिसको अपनी मांग मनवानी होती है आम नागरिक को बंधक बनाने का आपराधिक कार्य किया जाता है। भीड़ बनकर बेकसूर लोगों को परेशान करना किसी सूरत में स्वीकार किया नहीं जा सकता है। आज इस देश में सबसे अधीक ज़रूरत सभ्य आचरण और सब के जीने के अधिकार का आदर करने की बात सीखने की है। कोई पुलिस वाला किसी को थाने में मार नहीं सकता है अदालत है सज़ा देने को मगर हर पुलिस वाला खुद को कानून से ऊपर मानता है। अभी इक डीएम दफ्तर में किसी को थप्पड़ मरते हुए दिखाई दिए और ऐसा बहुत बार होता है। ये इस देश की सबसे बड़ी विडंबना है कि न्याय व्यवस्था को बनाये रखने को नियुक्त अधिकारी सरकार खुद अन्यायकारी आचरण करते हैं। बाड़ खेत को खा रही है और अंधेर नगरी चौपट राजा की सी हालत है।
कोई भी सरकार देश के संविधान से ऊपर नहीं हो सकती है। इधर कुछ सालों से इक अघोषित नियम पुलिस अधिकारी लागू किये हुए हैं। नागरिक को अपनी बात कहने का और शांतिपूर्वक विरोध करने का अधिकार है मगर जब कहीं किसी सत्ताधारी नेता को आना होता है तब सड़क पार्क सब पर एकाधिकार कायम रखकर नगरिक को वंचित किया जाता है कहीं आने जाने से सुविधानुसार। लगता है सरकार को हर आम नागरिक अपराधी नज़र आता है। और जब किसी सभा में नेता को भाषण देना हो तो कोई काला कपड़ा दिखला कर शांतिपूर्वक विरोध नहीं कर सके इसके लिए हर किसी की तलाशी ली जाती है और काले रंग की कमीज़ स्वेटर क्या जुराब तक पहनने की इजाज़त नहीं होती है। जब सरकारी अधिकारी ही जनता के अधिकारों का हनन करने लगते हैं तो पुलिस प्रशासन विश्वास नहीं इक भय पैदा करता है जनता में। अगर यही उचित है तो आज़ादी और उससे पहले अंगेरजी हकूमत में अंतर क्या बाकी रह जाता है। जवाब खोजना है और अब काले अंग्रेज़ों से निपटना होगा अपने अधिकार अपनी आज़ादी की खातिर , उनके रहमोकरम पर देश की जनता नहीं है ये समझना और समझाना ज़रूरी है।
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