जनवरी 09, 2019

ये खतरनाक सचाई नहीं जाने वाली ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

     ये खतरनाक सचाई नहीं जाने वाली ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

       सरकार की राजनीति की संवेदनाएं जब सर्दी से ठंडी होकर जमने लगती हैं तो बुझती हुई आग को फिर से हवा देकर चिंगारी को सुलगा कर शोला बना देते हैं। उनकी सत्ता की राजनीति की रोटियां सिक कर तैयार हो जाती हैं। दस साल को शुरू हुआ था आरक्षण नीचे वालों को ऊपर उठाने को ताकि सब बराबर हो जाएं मगर हुआ ऐसा कि ऊंचाई और नीचे का फासला बढ़ते बढ़ते पहाड़ और ज़मीन नहीं ज़मीन और आसमान की तरह होता गया है जो कम होने की जगह और अधिक होता जाता लग रहा है। मगर चारगर की ज़िद है इसी से रोग का ईलाज करेगा , मरीज़े इश्क़ पे लानत खुदा की मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की। मुझे आज तलक इक राज़ की समझ नहीं आई कोई भी दल हो किसी भी राज्य की सरकार हो किसी न किसी को आरक्षण का झुनझुना देकर और इक लॉलीपॉप देकर खुश करना चाहती है मगर कितने सालों से जिन की बात सब करते हैं उन महिलाओं का आरक्षण लटका हुआ है संसद में क्यों। इक तिहाई महिलाओं के आने से हर दल वाला इतना घबराता है कि आने देना नहीं चाहता जबकि पंचायत या बाकी जिन निकाय चुनावों में महिला आरक्षण है उनसे बदला कुछ भी नहीं। बस किसी सरपंच को पढ़ी लिखी बहु लानी पड़ी है जब बेटा अनपढ़ हो तब ताकि उसके नाम पर बाप बेटा दोनों सरपंची का मज़ा उठा सकें। सरपंच जी वही हैं गांव के लोगों के लिए कागज़ पर पढ़ी लिखी बहु हस्ताक्षर करने को रखी है। 
 
               इक जाने माने शायर का शेर है। हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन , ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक। कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक , आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक। चिराग़ की बात अक्सर होती है और दुष्यंत कुमार के साये में धूप का पहला शेर ही यही है। कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए , कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। मगर जैसे सरकार को पांचवे साल याद आती है जनता की बात उसी तरह से जनाब दुष्यंत कुमार जी को भी पांचवीं ग़ज़ल में बात समझ आई थी। ज़रा मुलाहज़ा फरमायें आप भी ग़ज़ल पेश है। 

देख , दहलीज से काई नहीं जाने वाली , 

ये खतरनाक सचाई नहीं जाने वाली। 

कितना अच्छा है कि सांसों की हवा लगती है ,

आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली। 

एक तालाब सी भर जाती है हर बारिश में ,

मैं समझता हूं ये खाई नहीं जाने वाली। 

चीख निकली तो है होटों से , मगर मद्धम है ,

बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली। 

तू परेशान बहुत है , तू परेशान न हो ,

इन खुदाओं की खुदाई नहीं जाने वाली। 

आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा ,

चंद ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली।

        हर शेर सारी कहानी कहता है अगर ध्यान से समझा जाये तो। आखिरी सवाल है सड़कों पर चले आने की बात का तो कोई सड़क पर नहीं आता है देश की खातिर आता है तो बस अपनी मांगों की खातिर। हर कोई भिखारी की तरह झोली फैलाए हुए है और सत्ता वालों को यही सुविधाजनक लगता है। जिस दिन लोग भीख नहीं अपने अधिकार पाने को सड़कों पर आने लगे राजनेताओं की राह मुश्किल हो जाएगी। बात छूट नहीं जाए कहीं चिराग़ की , इक चिराग़ रौशनी करने को जलाया जाता है कोई घर को बस्ती को आग लगाने को माचिस का उपयोग करता है। इस दौरे सियासत का इतना सा फ़साना है , बस्ती भी जलानी है मातम भी मनाना है। ये पहले कत्ल करवाते हैं फिर घर जाकर संवेदना जताते हैं। इक नज़्म मेरी भी पढ़ लो ज़रा। 

बड़े लोग ( नज़्म ) 

बड़े लोग बड़े छोटे होते हैं
कहते हैं कुछ समझ आता है और
आ मत जाना इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं ।

इन्हें पहचान लो ठीक से आज
कल तुम्हें ये नहीं पहचानेंगे
किधर जाएं ये खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं ।

दुश्मनी से बुरी दोस्ती इनकी
आ गए हैं तो खुदा खैर करे
ये वो हैं जो क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं ।

              राजनेतओं ने देश की बांटना सीखा है एक करना आता नहीं उनको। कभी धर्म कभी वर्ग कभी जाति कभी अमीर गरीब कभी कोई और दीवार खड़ी करते हैं। खुश करने को रेवड़ियां बांटना साहित्य कला से लेकर मीडिया वालों को विज्ञापन की बंदरबांट के साथ किसी को पेंशन देने का कार्य मीडियाकर्मी को अख़बार वालों को तमाम ढंग हैं। उनकी जेब से कुछ भी नहीं जाता है सरकारी धन की लूट का धंधा चलता रहता है और हर हिस्सा पाने वाला इसको अपनी शान समझता है। जिनको ज़रूरत नहीं वो भी पेंशन लेकर खुश हैं , अभी फेसबुक पर इक दोस्त जो लिखते हैं डॉक्टर हैं अपनी पोस्ट पर पूछ रहे थे मेरी आयु बुढ़ापा पेंशन की हो गई है आवेदन करना चाहिए कि नहीं साथ में लिखा लेकर दान पुण्य करना है। अधिकतर ने लेने की राय दी थी , इक कहावत सुनी हुई है कि सरकारी घी मुफ्त बंट रहा हो तो बर्तन पास नहीं हो तब भी अपने अंगोछे या गले में लपेटे कपड़े में ले लेना चाहिए , अर्थात बेशक उस से निकल कर बिखर कर नीचे गिर जाये तब भी जो चिकनाहट बची रहेगी घर पर चुपड़ने मालिश करने को काम आएगी। सवाल ज़रूरतमंद का नहीं है वास्तव में जिनको सहायता मिलनी चाहिए वो साबित ही नहीं कर सकते और जिनको ज़रूरत नहीं उनको मालूम है कैसे साबित करना है कुछ पाने को। जिस दिन इस सड़ी गली व्यवस्था को बदला कर ठीक कर देंगे किसी को हाथ फैलाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। आरक्षण किस किस को कितना और कब तक इसकी कोई हद नहीं है दर्द बढ़ता गया दवा करने से। दुष्यंत की बात अभी बाकी है।

      भूख है तो सब्र कर , रोटी नहीं तो क्या हुआ , आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दआ। 

      कहने को बहुत बाकी रह जाता है फिर भी आखिर में अपनी पहली पहली कविता दोहराता हूं।
 

पढ़ कर रोज़ खबर कोई ( बेचैनी )

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास ।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास ।
 

  
 
                 
        

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