नानक समयो रम गयो , अब क्यों रोवत अंध ( मन की बात )
डॉ लोक सेतिया
मैं तो इक मूर्ख हूं जो खुद मोह माया में रम गया है , बंधन से मुक्त होना चाहता हूं हो पाता नहीं। ये आज इक शब्द जो श्लोक मोहल्ला नौ सिख धर्म ग्रंथ की बाणी का बेहद महत्व रखता है जीवन में सही मार्गदर्शन के लिए जिसे काफी अर्से से नियमित सुनता हूं , उसी को साथ लेकर देश और समाज की बात करना चाहता हूं। मेरी विनती है कि मेरे ऐसे करने पर कोई भी मेरे मकसद को अन्यथा नहीं ले। वास्तव में धर्म की किताब चाहे गीता हो कुरान हो बाइबल हो सभी हम को सच की परख और सही जीवन राह पर चलने की ही बात समझते हैं।
सीधी बात करने वाले सच्ची बात नहीं करते और अपना ज़मीर बेचने को राज़ी हैं। कोबरा पोस्ट ने जो आज बताया मुझे वही अख़बार वालों को पत्रिका वालों को लेकर लिखते बीस साल हो गए हैं। मीडिया हो सरकार के नेता हों चाहे अधिकारी सब की बात यही है जो शीर्षक है।
करना हो सो ना कियो , पड़ेओ मोह के संग
नानक समयो रम गयो , अब क्यों रोवत अंध।
पहली बात करना क्या था , जो नहीं किया और जो नहीं करना था करते रहे। इसे शब्द में कहा है जो किसी को भय नहीं देता है और ना ही किसी से भयभीत होता ही है , नानक कहते हैं हे मन सुन ज्ञानी उसी को कहते हैं। दावा करते थे मुझे कोई मोह नहीं लोभ नहीं लालच नहीं , मगर किया क्या अपना गुणगान और झूठी शोहरत हासिल करने को अपनी लकीर बड़ी बनाना नहीं आया और जिनकी लकीर बड़ी लगी उनको छोटा करने लगे। मन की बात से इक भजन याद आया है। तोरा मन दरपन कहलाये उसे भी सुन लेते हैं।
मन की बात इसे कहते हैं , अपने मन को पा लिया भगवान को पा लिया। कोई बात मन से छुपी नहीं है , मन की बात का शोर नहीं होता ख़ामोशी से सुनते हैं। मन की बात सब से नहीं की जाती और खुलेआम तो कभी नहीं। जनता को वादा किया था जो वो अच्छे दिन यही हैं कभी मन से पूछना। धर्म की बात आचरण की बात होती है आडंबर की नहीं। रावण भी सुनते हैं बहुत की थी देवताओं की पूजा , कहते हैं सभी ग्रंथ कंठस्थ थे मगर आचरण में ज्ञानी नहीं था। सोने की लंका की तरह आलीशान भवन बनाने से महान नहीं हो जाते , जलकर राख हो जाती है ऐसी लंका भी। इस देश में हनुमान हर जगह विराजमान हैं , शायद भगवान कृष्ण जी अवतार लेना भूल गए वर्ना पाप की पापियों की अधर्म की कोई कमी तो नहीं बाकी आजकल। नाम की बात को छोड़ो नाम बदनाम लोगों का भी याद रहता है। इक अपना शेर कहना चाहता हूं।
अनमोल रखकर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में ,
देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई।
अब इस से अधिक बात क्या होगी कोई बार बार कहता है , उनकी दुकान पर ताला नहीं होता तो हम विधायक रुपी सामान खरीद लेते या नहीं बिकना चाहते तो लूट कर चुरा कर भी अपनी सरकार बनवा लेते। लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है और जनता भले किसी को चुनती है सभी दल अपनी साहूलियत से व्याख्या कर लेते हैं। कोई विचारधारा नहीं कोई नैतिकता नहीं केवल सत्ता के लिए अवसरवादिता है। ये बहुत अजीब बात है आपने किसी भी राज्य में विधायकों को अपना नेता चुनने की आज़ादी नहीं दी , बस अपने ख़ास संगठन से जुड़े लोग मनोनीत करते गए , नतीजा कर्नाटक में राज्यपाल को देश संविधान नहीं अपने आका और संगठन की चिंता थी , सर्वोच्च अदालत कब कब ये करेगी। हरियाणा में पूरी सरकार इक अपराधी के संग खड़ी रही , उच्च न्यायालय और इक न्यायधीश के कारण पीड़ित महिलाओं को न्याय मिला। आप अपराधियों का बचाव ही नहीं करते सच को खरीदने का अधर्म ही नहीं करते , आप सच को डराने धमकाने परेशान करने में किसी गुंडे की तरह हर सीमा पार कर जाते हैं। नहीं ऐसा तो आपत्काल में भी नहीं देखा था।
अब जब समयो रम गयो , अर्थात चुनाव सामने हैं तब , तरह तरह से बता रहे हमने क्या क्या किया है। जो किया जनता को सामने दिखाई देता होगा , अंधी नहीं है जनता। जो किया नहीं वो कैसे दिखाओगे।
ये सब करना था , किया है तो दिखाओ ?
कालेधन वाले जेल नहीं गए , कालाधन मिला नहीं उसे सफेद करवा दिया।
भ्र्ष्टाचार और महंगाई दोनों डायन अभी और विकराल रूप धारण कर चुकी हैं।
सेवक होने की बात कहकर खुद पर देश का धन बर्बाद करना , नौकर का चोरी करना है।
एकतरफा संवाद स्वस्थ लोकतंत्र में उचित नहीं है।
किसान , बेरोज़गार , किसी को कुछ नहीं मिला है।
सीमा पर सैनिक शहीद हो रहे हैं और आम जनता आपके भ्र्ष्टाचारी पल के नीचे दबकर मर गए हैं ।
( ये आपके ही बोले शब्द हैं जब किसी और राज्य में किसी दूसरे दल की सरकार के रहते दुर्घटना घटी )
विकास कहीं नहीं , विनाश करने में कोई कमी है जिसे दोबारा सत्ता हासिल कर पूरा करना है ।
अंत में मीडिया के नाम लिखी तीस साल पुरानी ग़ज़ल पेश है ,
इक आईना उनको भी हम दे आये,
हम लोगों की जो तस्वीर बनाते हैं।
बदकिस्मत होते हैं हकीकत में वो लोग,
कहते हैं जो हम तकदीर बनाते हैं।
सबसे बड़े मुफलिस होते हैं लोग वही,
ईमान बेच कर जो जागीर बनाते हैं।
देख तो लेते हैं लेकिन अंधों की तरह,
इक तिनके को वो शमशीर बनाते हैं।
कातिल भी हो जाये बरी , वो इस खातिर,
बढ़कर एक से एक नजीर बनाते हैं।
मुफ्त हुए बदनाम वो कैसो लैला भी,
रांझे फिर हर मोड़ पे हीर बनाते हैं।
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