चाचा नेहरू की याद में - डॉ लोक सेतिया
आपने ये शब्द समझा है , दो ही लोग हुए हैं जिनको ये रुतबा हासिल हुआ है। चाचा नेहरू और चच्चा ग़ालिब। यकीन करें इनसा दूसरा नहीं हो सकता। गांधी जी को लेकर कहा जाता है कि सदियों बाद लोग यकीन नहीं करेंगे कि हाड़-मांस का ऐसा कोई पुतला धरती पर होता था। मगर आज अभी 54 साल बाद कोई उसी कुर्सी पर बैठकर उनको नहीं अपने पद को अपमानित कर रहा है जिनका मुकाबला वो कभी नहीं कर सकता , उन देश के पहले वास्तविक प्रधान सेवक जवाहरलाल नेहरू की बुराई करते समय। उन जैसा नेता जो देश के भविष्य को लेकर बहुत बड़े सपने देखता है और समझता है कि देश से गरीबी भूख मिटानी है मगर उसके साथ आधुनिक विज्ञान और विकास भी करना है। खुद अपने मुंह से कहता है मुझे इतना अधिक प्यार देकर ऊंचा नहीं पहुंचाओ कि मैं तानाशाह बन जाऊं। किसी ने कभी आपको बताई ये बात आज तक। मैं तब 13 साल का बच्चा था और हमारे स्कूल में भीतर जाते ही नेहरू जी की कोट पर गुलाब लगाए हुई तस्वीर दिखाई देती थी। केवल कहने को नहीं हम बच्चे दिल से प्यार करते थे , कौन नहीं रोया था उनके निधन की खबर सुनकर। ये घटना मुझे कभी नहीं भूल सकती है , 1965 को 27 मई को स्कूल में नेहरू जी की याद में सभा हुई थी , केवल बच्चों को ही बोलना था और जो चाहे कर दिखाना था। आज रोज़ लिखता हूं बहुत कुछ , मगर कभी नहीं भूली वो बचपन की दिल की गहराई से निकली भावना की पहली लिखी कविता। मैंने अपनी पहली रचना नेहरू जी की याद में लिखी थी। 27 मई को याद करो चल बसे थे चाचा प्यारे , आंसू भरे सितारे। जो भी हो तुकबंदी भी हो मगर इक दिल से भावना से लगाव से लिखी थी। क्या आजकल किसी नेता के निधन पर किसी को ऐसा दर्द महसूस होता है।
पंचशील को भूल गये हैं जैसे बुरा सपना था , मगर नहीं आज भी सब कहते वही हैं जंग से किसी को कुछ हासिल नहीं होता है। पीठ में छुरा घोंपा था चीन ने और हम उस दोस्ती की आड़ में भरोसा तोड़ने वाले दुश्मन की बात को छोड़ इक सभ्य नेता को दोष देते हैं। आज देश जिस भी मुकाम पर है उद्योग को लेकर विज्ञान को लेकर बांध बनाने से लेकर राज्यों के अधिकार और लोकतंत्र को स्थापित करने तक उनका योगदान है। इस बात को आज़ादी के पचास साल पूरे होने पर संसद में अपने भाषण में अटल बिहारी वाजपेयी जी ने सपष्ट किया था। आज के सत्ताधारी कुत्सित मानसिकता के चलते ये कभी नहीं बोल सकते हैं। किसी ने कभी विचार किया कभी नेहरू ने इंदिरा को सत्ता सौंपने की सोच भी रखी थी , जिनको नहीं मालूम उनको याद दिलवाना ज़रूरी है कि नेहरू जी के निधन के बाद श्री गुलज़ारी लाल नंदा जी को काकाजी प्रधानमंत्री बनाया गया क्योंकि वो सब से वरिष्ठ सांसद थे। मगर उन्होंने अपने पद और वरिष्ठ होने का दुरूपयोग नहीं किया , जबकि उन्हें तीन बार इस तरह का अल्पकालीन प्रधानमंत्री बनाया गया। ये था नेहरू का स्थापित लोकतंत्र , इतना ही नहीं उसके बाद संसद में कोंग्रेस के नेताओं की बैठक हुई जिस में नेहरू जी का स्थान किसे दिया जाये ये तय किया जाना था। हैरान हो जाओगे किसी को पहले कोई पता नहीं था क्या होगा। लाल बहादुर शास्त्री जी सभा में देर से आये और कोई खाली कुर्सी नहीं देख आखिर में सीढ़ियों पर धरती पर बैठ गए। जब उनके नाम का प्रस्ताव सामने आया और सब ने तालियां बजाईं तो ध्यान आया की वो हैं कहां , तब उनको अगली कतार में बिठाया गया। आज किसी दल में ये साहस है कि खुली सभा में विचार कर काबिल व्यक्ति को चुना जाये। चुनाव से पहले घोषित करना कि ये या वो प्रधानमंत्री हों संविधान की भावना की बात नहीं है।
इक कविता है किसी कवि की। बौने लोगों को लगता है , पहाड़ पर चढ़कर , उनका कद , ऊंचा हो जाता है , मगर वास्तव में , पहाड़ पर चढ़कर बौने , और भी बौने दिखाई देते हैं। इसलिए महान लोगों से अपनी तुलना नहीं करें। आखिर में किसी शायर की ग़ज़ल के कुछ शेर अर्ज़ करता हूं।
इस कदर कोई बड़ा हो मुझे मंज़ूर नहीं , कोई बंदों में खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं।
रौशनी छीन के घर-घर के चिरागों की अगर , चांद बस्ती में उगा हो मुझे मंज़ूर नहीं।
मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना , आपकी एक अदा हो मुझे मंज़ूर नहीं।
आज मैं जो भी हूं हूं बदौलत उसकी , मेरे दुश्मन का बुरा हो मुझे मंज़ूर नहीं।
मैं जनता हूं उनको ये ग़ज़ल कभी समझ नहीं आएगी जो हर किसी को खुदा कहने लगते हैं और खुदा बदलते रहते है। अंतिम शेर की बात तो उनको अजीब ही लगेगी। मगर उनको बताना होगा इक महान नेता का कहना था , मैं तुम्हारी बात से असहमत हो सकता हूं , मगर मेरा कर्तव्य है आपकी अपनी बात कहने की आज़ादी की रक्षा करना। इक शेर जगजीत सिंह की गए ग़ज़ल से , हमने देखा है कुछ ऐसे खुदाओं को यहां , सामने जिस के वो सचमुच का खुदा कुछ भी नहीं।
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