सभी को दास्तां अपनी बयां करना नहीं आता ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
सभी को दास्तां अपनी , बयां करना नहीं आताकभी आता नहीं लिखना , कभी पढ़ना नहीं आता ।
बड़ी ऊंची उड़ाने लोग भरते हैं , मगर सोचें
जमीं पर आएंगे कैसे अगर गिरना नहीं आता ।
कभी भी मांगने से मौत दुनिया में नहीं मिलती
हमें जीना ही पड़ता है , अगर मरना नहीं आता ।
सभी से आप कहते हैं बहुत ही तेज़ है चलना
कभी उनको सहारा दो , जिन्हें चलना नहीं आता ।
हमें सूली चढ़ा दो अब , हमारी आरज़ू है ये
यही कहना हमें है पर , हमें कहना नहीं आता ।
न जाने किस तरह दुनिया ख़ुशी को ढूंढ़ लेती है
हमें सब लोग कहते हैं कि खुश रहना नहीं आता ।
तमाशा बन गये "तनहा" , तमाशा देखने वाले
तमाशा मत कभी देखो , अगर बनना नहीं आता ।
Simply superb sir
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