मिला था कभी इक पैगाम दोस्ती का ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
मिला था कभी इक पैगाम दोस्ती काहमें अब डराता है नाम दोस्ती का ।
बुझाता नहीं साकी प्यास क्यों हमारी
कभी तो पिलाता इक जाम दोस्ती का ।
नहीं दोस्त बिकते बाज़ार में कभी भी
चुका कौन पाया है दाम दोस्ती का ।
करेगा तिजारत की बात जब ज़माना
रखेंगे बहुत ऊँचा दाम दोस्ती का ।
हमें जीना मरना है साथ दोस्तों के
सभी को है देना पैग़ाम दोस्ती का ।
वफ़ा नाम देकर करते हैं बेवफाई
किया नाम "तनहा" बदनाम दोस्ती का ।
एक जाम दोस्ती का👌👍
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