अगस्त 30, 2012

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         शीर्षक की तलाश में ( अनकही कहानी ) डॉ लोक सेतिया 

 ये ज़िंदगी की दास्तान है जिस में कुछ भी स्थाई नहीं निर्धारित नहीं , कोई सुःख दुःख कोई मिलन जुदाई कोई शिकवा शिकायत गिले होने पर भी वास्तव में कुछ नहीं बस जीवन में बदलाव होना इक निशानी है । सिर्फ खुद ही हमेशा उलझन है और समाधान भी जैसा जीवन मिले स्वीकार करना चलते रहना है । इसी कारण खुद को छोड़ किसी और किरदार का कोई महत्व नहीं है जैसे कोई मुसाफ़िर किसी वाहन रेलगाड़ी से सफर करता है और रास्ते में कितने पड़ाव कितने यात्री आते जाते हैं कुछ पल या समय का साथ निभाते हैं । प्यार मनमुटाव जैसी बातें व्यर्थ हैं चिंता करने से हासिल कुछ नहीं होता है । अकेले आना है अकेले ही इक दिन सफ़र पूरा कर लौट जाना है , कहां से आये कहां जाना है किसी को नहीं मालूम बस चार घड़ी का मेला है ज़िंदगी ।
 
हर कहानी में कितने किरदार होते हैं ये दास्तां हैं जिस में कोई भी किरदार ही नहीं है खुद जिसकी बात है वो भी नहीं मिलता सिर्फ कुछ ख़्वाब कुछ भूली बिसरी यादें मिल जाती हैं कितनी ही कहानियों में । सभी का था जो उसका कौन अपना है उसे नहीं मिला ज़िंदगी भर ढूंढता रहा दुनिया भर में शहर शायर गांव गांव तलाश सिर्फ उसी को जो मुमकिन है सिर्फ कल्पना ही हो वास्तव में कोई ऐसा हो ही नहीं लेकिन उसको भरोसा था वो न केवल है बल्कि इक दिन मिलेगा भी । बचपन से बड़े होने तक अनगिनत लोगों से पहचान हुई सभी से साथ रहा कभी थोड़ा थोड़ा अधिक मगर हर कोई किसी मोड़ से अलग हो कर अपनी अपनी राह चला जाता रहा छोड़ कर या बिछुड़ कर । ज़रूरत थी तब अपनापन था संग संग चलने और मंज़िल तक रिश्ता निभाने की बातें हुई पर ज़रूरत नहीं रही तब कारण कितने थे रास्ता बदलने के लिए । जो भी मिलता हर कोई उस पर अधिकार समझ कर उसका उपयोग करता रहता कभी किसी पर उसको अपना अधिकार महसूस तक नहीं हुआ । महफ़िल में सभी अपनों की भीड़ में हमेशा अकेला अजनबी बनकर रहना उसकी नियति थी जैसे कोई अनचाहा बिना बुलाया महमान हो । 
 
कभी कभी विधाता से कहता क्या तुमने मेरे नसीब में वही शब्द नहीं लिखा जिसको लिखना ज़रूरी था शुरुआत ही प्यार शब्द से करनी थी , कभी किसी से चाहत नहीं मिली सभी ने ठोकर लगाई तिरस्कार किया छोटा समझा बराबर नहीं बिठाया कभी । अपनी व्यथा किसी को भी कभी सुना नहीं पाया हर कोई उसको अपनी बात कह कर चला जाता उस से नहीं पूछा क्यों इतने उदास इतने निराश रहते हो । अकेले ही अपने आंसूं बहाना उसकी आदत बनती गई सबके सामने ख़ामोश रहना चुपचाप दर्द सहना तकदीर ने उसे यही दिया था । कुछ कविताओं से इक बदनसीब की अनकही कहानी की बात समझने की कोशिश करते हैं । 
 

               कैद ( कविता )

कब से जाने बंद हूं
एक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये ।

रोक लेता है हर बार मुझे 
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे 
इक  सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये ।

मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको ।

कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।

देखता रहता हूं 
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने 
खुद अपनी ही कैद से । 
 
 

                  मैं ( नज़्म ) 

मैं कौन हूं
न देखा कभी किसी ने
मुझे क्या करना है
न पूछा ये भी किसी ने
उन्हें सुधारना है मुझको
बस यही कहा हर किसी ने ।

और सुधारते रहे
मां-बाप कभी गुरुजन
नहीं सुधार पाए हों दोस्त या कि दुश्मन ।

चाहा सुधारना पत्नी ने और मेरे बच्चों ने
बड़े जतन किए उन सब अच्छों ने
बांधते रहे रिश्तों के सारे ही बंधन
बनाना चाहते थे मिट्टी को वो चन्दन ।

इस पर होती रही बस तकरार
मानी नहीं दोनों ने अपनी हार
सोच लिया मैंने
जो कहते हैं सभी
गलत हूंगा मैं
वो सब ही होंगें सही
चाहा भी तो कुछ कर न सका मैं
सुधरता रहा
पर सुधर सका न मैं ।

बिगड़ा मैं कितना
कितनी बिगड़ी मेरी तकदीर
कितने जन्म लगेंगे
बदलने को मेरी तस्वीर 
जैसा चाहते हैं सब
वैसा तभी तो मैं बन पाऊं ।

पहले जैसा हूं
खत्म तो हो जाऊं
मुझे खुद मिटा डालो 
यही मेरे यार करो
मेरे मरने का वर्ना कुछ इंतज़ार करो । 
 


                   प्यास प्यार की ( कविता )

कहलाते हैं बागबां भी 
होता है सभी कुछ  उनके पास 
फिर भी खिल नहीं पाते 
बहार के मौसम में भी
उनके आंगन के कुछ पौधे ।

वे समझ पाते नहीं 
अधखिली कलिओं के दर्द को  ।

नहीं जान पाते 
क्यों मुरझाये से रहते  हैं
बहार के मौसम में भी 
उनके लगाये पौधे
उनके प्यार के बिना ।

सभी कहलाते हैं
अपने मगर
नहीं होता उनको
कोई सरोकार
हमारी ख़ुशी से
हमारी पीड़ा से ।

दुनिया में मिल जाते हैं
दोस्त बहुत
मिलता नहीं वही एक
जो बांट सके हमारे दर्द भी
और खुशियां भी
समझ सके
हर परेशानी हमारी 
बन कर किरण आशा की 
दूर कर सके अंधियारा
जीवन से हमारे ।

घबराता है जब भी मन
तनहाइयों से
सोचते हैं तब
काश होता अपना भी कोई ।

भागते जा रहे हैं
मृगतृष्णा के पीछे हम सभी
उन सपनों के लिये
जो नहीं हो पाते कभी भी पूरे ।

उलझे हैं सब
अपनी उलझनों में
नहीं फुर्सत किसी को 
किसी के लिये भी
करना चाहते हैं हम 
अपने दिल की किसी से बातें
मगर मिलता नहीं कोई 
हमें समझने वाला ।

सामने आता है
हम सब को नज़र 
प्यार का एक
बहता हुआ दरिया 
फिर भी नहीं मिलता 
कभी चाहने पर किसी को
दो बूंद भी  पानी
बस इतनी सी ही है 
अपनी तो कहानी । 
 
 

             बेबस जीवन ( कविता ) 

रातों को अक्सर
जाग जाता हूं
खिड़की से झांकती
रौशनी में
तलाश करता हूं
अपने अस्तित्व को ।

सोचता हूं
कब छटेगा
मेरे जीवन से अंधकार ।

होगी कब
मेरे लिये भी सुबह ।

उम्र सारी
बीत जाती है 
देखते हुए  सपने 
एक सुनहरे जीवन के ।

मैं भी चाहता हूं
पल दो पल को 
जीना ज़िंदगी को
ज़िंदगी की तरह ।

कोई कभी करता 
मुझ से भी जी भर के प्यार 
बन जाता कभी कोई
मेरा भी अपना ।

चाहता हूं अपने आप पर
खुद का अधिकार
और कब तक
जीना होगा मुझको
बन कर हर किसी का
सिर्फ कर्ज़दार
ज़िंदगी पर क्यों 
नहीं है मुझे ऐतबार । 
 
 

                  मुझे लिखना है  ( कविता ) 

कोई नहीं पास तो क्या
बाकी नहीं आस तो क्या ।

टूटा हर सपना तो क्या
कोई नहीं अपना तो क्या ।

धुंधली है तस्वीर तो क्या
रूठी है तकदीर तो क्या ।

छूट गये हैं मेले तो क्या
हम रह गये अकेले तो क्या ।

बिखरा हर अरमान तो क्या
नहीं मिला भगवान तो क्या ।

ऊँची हर इक दीवार तो क्या
नहीं किसी को प्यार तो क्या ।

हैं कठिन राहें तो क्या
दर्द भरी हैं आहें तो क्या ।

सीखा नहीं कारोबार तो क्या
दुनिया है इक बाज़ार तो क्या ।

जीवन इक संग्राम तो क्या
नहीं पल भर आराम तो क्या ।

मैं लिखूंगा नयी इक कविता
प्यार की  और विश्वास की ।

लिखनी है  कहानी मुझको
दोस्ती की और अपनेपन की ।

अब मुझे है जाना वहां
सब कुछ मिल सके जहाँ ।

बस खुशियाँ ही खुशियाँ हों 
खिलखिलाती मुस्कानें हों ।

फूल ही फूल खिले हों
हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।

वो सब खुद लिखना है मुझे
नहीं लिखा जो मेरे नसीब में । 
 
 

              रास्ते ( कविता ) 

मंज़िल की जिन्हें चाह थी
मिल गई
उनको मंज़िल ।

मैं वो रास्ता हूं
गुज़रते रहे जिससे हो कर 
दुनिया के सभी लोग ।

तलाश में अपनी अपनी
मंज़िल की 
मैं रुका हुआ हूं
इंतज़ार में प्यार की ।
 
रुकता नहीं
मेरे साथ कोई भी 
कुचल कर
गुज़र जाते हैं सब
मंज़िल की तरफ आगे ।
 
सबको भाती हैं
मंज़िलें 
बेमतलब लगते हैं रास्ते ।

क्या मिल पाती तुम्हें मंज़िलें 
न होते जो रास्ते ।

रास्तों को पहचान लो 
उनका दर्द
कभी तो जान लो । 
 

                शून्यालाप ( कविता ) 

अंतिम पहर जीवन का
समाप्त हुआ अब बनवास
त्याग कर बंधन सारे
चल देना है अनायास
राह नहीं कुछ चाह नहीं
समाप्त हुआ वार्तालाप ।

विलीन हो रही आस्था
टूट रहा हर विश्वास
तम ने निगल लिया सूरज
जाने कैसा है अभिशाप ।

फैला है रेत का सागर
जल रहा तन मन आज
शब्द स्तुति के सब बिसरे
छूट गया प्रभु का साथ ।

मनाया उम्र भर तुमको
माने न तुम कभी मगर
खो जाना एक शून्य में
बनाना है शून्य को वास ।

अब खोजना नहीं किसी को
न आराधना की है आस
करना है समाप्त अब
खुद से खुद का भी साथ । 
 
 
 

                      थकान ( कविता ) 

जीवन भर चलता रहा
कठिन पत्थरीली राहों पर
मुझे रोक नहीं सके
बदलते हुए मौसम भी ।

पर मिट नहीं सका
फासला
जन्म और मृत्यु के बीच का ।

चलते चलते थक गया जब कभी
और खोने लगा धैर्य
मेरी नज़रें ढूंढती रहीं
किसी को जो चलता
कुछ कदम तक साथ साथ मेरे ।

और प्यार भरे बोलों से
भुला देता सारी थकान
जाने कहां अंत होगा
धरती - आकाश से लंबे
इस सफर का
और कब मिलेगा मुझे आराम ।



                      दो आंसू ( कविता )  

हर बार मुझे
मिलते हैं दो आंसू
छलकने देता नहीं
उन्हें पलकों से ।

क्योंकि
वही हैं मेरी
उम्र भर की
वफाओं का सिला ।

मेरे चाहने वालों ने
दिया है
यही ईनाम
बार बार मुझको ।

मैं जानता हूं
मेरे जीवन का
मूल्य नहीं है
बढ़कर दो आंसुओं से ।

और किसी दिन
मुझे मिल जायेगी
अपनी ज़िंदगी की कीमत ।

जब इसी तरह कोई
पलकों पर संभाल कर 
रोक  लेगा अपने आंसुओं को
बहने नहीं देगा पलकों  से
दो आंसू । 

एक अनकही कहानी "ek ankahi kahani"







 
 

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