दिसंबर 20, 2024

POST : 1931 तकरार टकराव है प्यार नहीं है ( दर-हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया

 तकरार टकराव है प्यार नहीं है ( दर-हक़ीक़त )  डॉ लोक सेतिया 

दुश्मन हैं सभी प्यार के कोई यार नहीं है ये सच है कोई झूठा इश्तिहार नहीं है , संसद से सड़क तक हंगामा यही है , कागज़ी जंग से बढ़कर कोई कारोबार नहीं है । हर शख़्स समझता है सच कहता है बस वो उस से बढ़कर कोई दुनिया में समझदार नहीं है । सरकार ये कहती है सभी को साथ लेकर चलते हैं लेकिन हर घड़ी जनाब रंग बदलते हैं किरदार नहीं जैसे पोशाक बदलते हैं , मतभेद रहते तो कोई बात नहीं थी अब होता है आपसी संवाद से मनभेद ही बढ़ते हैं । कुचलने से कभी आवाम के अंदाज़ बदलते हैं हवाओं के बुझाने से नहीं चराग़ बुझा करते कुछ बनके शमां महफ़िल में दिन रात जला करते हैं । जिनको दावा है विरासत का अपनी संभालते हैं क्या थी इस देश की संस्कृति परंपरा कभी समझते हैं । जाने किस झूठे अहंकार में डूबे हुए हैं तमाम लोग , आजकल खुद को सभी भगवान समझते हैं , नादान हैं लोग आपकी नादानी पे हंसते हैं । अजब तौर है हर कोई सभी को छोटा और खोटा साबित करना चाहते हैं किसी को बड़ा होना नहीं आता है बड़े कभी अपनी बढ़ाई नहीं करते हैं । ठोकर लगाना गिराना कोई शान की बात नहीं होती है धरती माता बच्चों की इस बात पर ख़ामोश रहकर दर्द सहती है । भूल हुई माफ़ करना कहना छोड़ दिया है शराफ़त से दामन छुड़ा इंसानियत से मुंह मोड़ लिया है । भरतीयता की पहचान रही है सभी को अपनाने गैर को भी गले लगाने की हर हाल में मर्यादा निभाने की लेकिन जाने कैसे हमने सब अच्छी बातों को भुला दिया है कभी कहते थे जिसे सभी सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा उस को अजब तमाशा बना दिया है । सुनहरे अतीत को बिसरा दिया है झूठे सपनों का जाल बुनकर समाज देश धर्म सरकार सभी को उलझा दिया है । 

' हिन्दोस्तां हमारा ' क्या था कैसा था देखने समझने जानने को शायर जाँनिसार अख़्तर की पहली बार 1973 में हिन्दुस्तानी बुक ट्रस्ट मुंबई से प्रकाशित हुई दो खंड में 1000 पन्नों की अनुपम इक कीमती दस्तावेज़ रुपी किताब जिसे पचास साल बाद राजकमल प्रकाशन ने 2023 में दोबारा प्रकाशित किया को पढ़ना ही नहीं भीतर तक झांकना होगा ।
 
 पहले जाँनिसार अख़्तर जी को लेकर जानकारी देना उचित होगा , हैरानी ही होती है कि मुंबई की फ़िल्मी मायानगरी में जिस को निराशा और नाकामी की ठोकरें लगाई वो शख़्स तब भी अपनी खुद की परेशानियों की नहीं बल्कि अपने देश की अनगिनत विशेषताओं को लेकर गहन शोध कर सदियों के शायरों कवियों से अन्य महान व्यक्तियों को लेकर इक शानदार संकलन का सृजन करता रहा । यहां इक बात कहना ज़रूरी है कि आजकल जब किसी को काबलियत का उचित परिणाम नहीं मिलता तब वो देश समाज को दोष देने का कार्य करता है लेकिन लेखक ने सबसे महत्वपूर्ण देश की इक वास्तविक शानदार तस्वीर बनाने में अपना योगदान देना ज़रूरी समझा ताकि आने वाली पीढ़ियां जान सकें अपने देश समाज और साहित्य का गौरवशाली इतिहास क्या था । आगे सिर्फ विषय की सूचि दी गई है जिसकी अभी आपने शायद कल्पना भी नहीं की होगी कि क्या कमाल का देश समाज रहा है अपना । 

' हिन्दोस्तां हमारा ' किताब का पहला खंड में चंद नज़्में हैं जो हमारे देश की विशेषता और महानता को उजागर करती हैं । यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि जहां मुसलमान शाइरों ने हिन्दुओं के त्यौहार होली दिवाली वसंत पर रचनाएं लिखी वहीं और सिख शाइरों ने इस्लामी त्योहारों पर नज़्मे लिखीं । ऐसा उसी मिली जुली सभ्यता का चमत्कार था जो हर धर्म मज़हब को प्यारी थी । पुस्तक में विविधता की कोई सीमा नहीं है सभी कुछ समाहित किया गया है , प्राकृतिक दृश्य , सुबह शाम , मौसम शहरों इमारतों नृत्य संगीत चित्रकला अवतारों पैगंबरों धार्मिक नेताओं भारतीयता में रची बसी धार्मिक कथाओं से अन्दाज़े - इश्क़ तक । देखते हैं क्या क्या अध्याय हैं दोनों खंड में कितना कुछ शामिल है । 
 
1 हिन्दोस्तां की अज़मत , 2 हमारे कुदरती मनाज़िर , 3 हमारे सुबह- शाम  , 4 हमारे मौसम , 5  हमारे त्यौहार , 6 हमारे शहर और इलाके  , 7  हमारी तामीरात , 8 हमारी ललित कलायें , 9 हमारे धार्मिक नेता , 10 हमारी कहानियां  , 11 हमारा अंदाज़े - इश्क़ । ये सभी कविता ग़ज़ल नज़्म के स्वरूप में ही नहीं हैं बल्कि हमारे महान कवियों शायरों के कलाम हैं अर्थात आपको सदियों का अदब का सफर भी मालूम होता है ऐसा कोई शायर नहीं होगा जिस की रचना आपको नहीं मिले । दूसरा खंड इतिहास और राजनीति से लेकर सामाजिक परिवेश से आंदोलनों की सही तस्वीर दर्शाता है , 1 सन  1857 से पहले , 2 जंगे आज़ादी , 3   एहसासे - गुलामी , 4     अंग्रेजी दुश्मनी का जज़्बा , 5 सन 1921 से 1935 की राजनीति , 6 सन 1935 से 1946 की राजनीति , 7 आज़ादी का ऐलान , 8 आज़ादी की रजत जयंती । 

इस किताब की बातों का ज़िक्र इसलिए किया है क्योंकि 1973 तक आज़ादी के पचीस साल बाद देश में चाहे कितनी परेशानियां और समस्याएं रहीं हों तब भी शिक्षित विद्वान और बुद्धिजीवी लोग इक उज्जवल भविष्य की परिकल्पना देख रहे थे , क्या आज ऐसा है तमाम आधुनिक विकास और प्रगति के बावजूद भी । देश किसी भवन किसी सड़क किसी भौतिक वस्तु से नहीं बनता , ये सभी कितना शानदार हो मगर इंसान और समाज का वास्तविक चरित्र कितना अच्छा है या खराब है उस पर निर्भर करता है । सही ढंग से आत्मविश्लेषण किया जाये तो आज हम उस से नीचे खड़े हैं जहां पचास साल पहले हमारा देश समाज गर्व से खड़ा था । आज ढूंढने पर भी उस तरह के निस्वार्थी शासक और अन्य तमाम लोग नहीं मिलते हैं बल्कि आजकल हम इक दूजे से तकरार करने और टकराने में व्यस्त रहते हैं जब भी कहीं भी देख सकते हैं । हीरे मोती कीमती जवाहरात खोकर हम कांच के टुकड़े पाकर समझते हैं बड़ा कमाल करते हैं । अब आगे क्या होगा सोच कर रूह कांपती है । आखिर में आधुनिक दौर का शायर वसीम बरेलवी क्या कहता है पढ़ते हैं । 

आंखें मूंद लेने से ख़तरा न जाएगा , वो देखना पड़ेगा जो देखा न जाएगा । 

ये कह के भिड़ गए हैं सभागार के किवाड़ , बोलेगा जो ख़िलाफ़ वो ज़िंदा न जाएगा । 
 
घुटन बढ़ने का खतरा हो तो दर खोला नहीं जाता , जहां खामोश रहना हो वहां बोला नहीं जाता ।
 
तो फिर कैसे बचेगी साख बाज़ारे मुहब्बत की , तुझे परखा नहीं जाता मुझे तोला नहीं जाता ।
 
जहां बेकार की बहसों का कारोबार चलता हो , वहां हर बात को मैयार पर तोला नहीं जाता ।   






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