' नैरंग सरहदी ' दास्तां फिर याद आ गई ( अनमोल रत्न ) डॉ लोक सेतिया
कभी कभी हम समझ नहीं पाते कि इस पर गर्व का अनुभव करें या फिर खेद का जब कभी हमारे देश के किसी व्यक्ति की प्रतिभा की कदर कहीं विदेश में होती है ज़िंदा रहते । नोबेल प्राइज़ मिला कुछ लोगों को विदेश में जाकर कोई खास उपलब्धि हासिल करने पर । हरगोबिंद खुराना , अमर्त्य सेन से सुब्रहमनियम वेंकटरमन कितने नाम हैं । लेकिन किसी शायर विद्वान के निधन के वर्षों बाद उनके अप्रकाशित लेखन का प्रकाशन और पहचान किसी विदेशी शोधकर्ता और आलोचक लेखक द्वारा हुआ हो ये कभी पहले नहीं सुना हमने , पहली बार ये अजब तमाशा देखा है । सच समझना कठिन है कि जश्न मनाएं या फिर इस पर थोड़ा अफ़सोस का अनुभव करें जैसे कभी होता है कोई भूख से मर जाता है बाद में उसके नाम पर मृत्यु भोज का आयोजन करते हैं । इक गीत है पंजाबी में जियोंदे जी कंडे देंदी ऐ मोयां ते फुल चढांदी ऐ , मुर्दे नू पूजे ऐ दुनिया जियोंदे दी कीमत कुझ वी नहीं । मुझे इक ग़ज़ल पसंद है जिस में इक शेर कुछ ऐसा ही है जिसका अर्थ है मेरी बदकिस्मती असफ़लता नाकामी का एक कारण ये भी है कि मैंने दिल से जो भी चाहा हो गया । शायर कोई अनजान है मुझे ढूंढने पर भी उनका नाम नहीं मिला पेश है दो शेर उनकी ग़ज़ल से :
बंद आंखों का तमाशा हो गया ,
खुद से मैं बिछड़ा तो तन्हा हो गया ।
एक सूरत ये भी महरूमी की है ,
मैंने दिल से जो भी चाहा हो गया ।
हक़ीक़त नहीं कोई अफ़साना लगता है , ज़िंदगी के बाद जैसा किसी शायर ने खुद ही कहा था अपनी ग़ज़ल में , आएगी मेरी याद मेरी ज़िन्दगी के बाद , होगी न रौशनी कभी इस रौशनी के बाद । उनकी दास्तां सुनी तो दिल दिमाग़ में हज़ारों ख़्यालात जाने किधर से कहां तक उमड़ने लगे , तमाम अन्य अजनबी अनजाने जाने पहचाने लिखने वालों की स्मृतियां फिर ताज़ा हो गई । पहले थोड़ा संक्षेप में नैरंग जी की बात बाद में बहुत कुछ विषय से जुड़ा हुआ अलग अलग व्यक्तियों को लेकर । 6 फरवरी 1912 में पाकिस्तान में ज़िला डेरा इस्माइल खां के इक क़स्बे मंदहरा उनका जन्म और 5 फरवरी 1973 में रिवाड़ी में निधन 61 वां जन्म दिन मनाने से चौबीस घंटे पहले , उर्दू फ़ारसी के विद्वान और बाद में पंजाबी पढ़ कर पंजाबी के अध्यापक रहे शायर को मलाल ही रहा अपने लेखन का प्रकाशन नहीं होने को लेकर । कई साल बाद उनके बेटे का संपर्क इत्तेफ़ाक़ से उर्दू और फ़ारसी पर शोध कार्य एवं उन को बढ़ावा देने को प्रयासरत जनाब डॉ तक़ी आबीदी जो लेखक और आलोचक हैं से हुआ , जिन्होंने नैरंग जी की रचनाओं पर पहली बार 2020 में प्रकाशन किया ।
भारत में 2018 में उनके शागिर्द रहे शायर विपिन सुनेजा जी ने इक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी और कभी कभी उन को लेकर आयोजन करवाया करते थे रिवाड़ी के लेखक मित्र मिलकर । डॉ आबीदी जी ने कितने ही देशों में उनके लेखन पर आयोजन प्रचार प्रसार किया और खूब सराहना मिलती रहती हमेशा । नैरंग सरहदी जी के निधन के 51 साल बाद रेवाड़ी में ' इंडिया कानकलेव ' में कार्यक्रम आयोजित करवा जैसे भूली बिसरी कहानी को ताज़ा ही नहीं किया बल्कि उनके बेटे नरेश नारंग जी ने अपने अनुभव सांझा कर हमारे समाज और देश राज्य में साहित्य और रचनाकारों की ही नहीं भाषा और संस्कृति की दशा पर उदासीनता क्या संस्थाओं संगठनों की लापरवाही को उजागर कर सोचने पर विवश कर दिया । किसी हिंदी भाषा की साहित्य अकादमी ने उनकी रचनाओं की पांडुलिपि पर कोई विचार तक नहीं किया क्योंकि उनका लेखन उर्दू या फ़ारसी में लिखा हुआ था , ऐसी अन्य संस्थाओं से भी नरेश नारंग जी को निराशा से अधिक हताशा मिली और उनका साहस धैर्य ख़त्म होने को था जब डॉ तक़ी आबीदी जी से संवाद ने अपने पिता की विरासत को सुरक्षित रखने संभालने में संबल का कार्य किया जिस से पचास साल बाद इक खोया हुआ महान शायर फिर से ज़िंदा हो गया है । लेखक कवि शायर इक विचार होते हैं जो उनके जाने के बाद भी कभी ख़त्म नहीं होते मिटते नहीं हैं ।
नैरंग जी को लेकर उन से बेहद करीब रहे विपिन सुनेजा जी से चर्चा की तो उनकी ज़िंदगी की किताब खुलती ही गई । शायरी में भाषा उच्चारण की शुद्धता को लेकर बहुत गंभीर रहते थे , ग़ज़ल नज़्म के साथ मुक्तक एवं कव्वाली और मसनवी भी शामिल है उनके लेखन में । आशावादी सोच वास्तविक जीवन की परेशानियों समस्याओं के बावजूद कायम थी तथा हास्य विनोद उनका स्वभाव में रहता था । इक खास बात जो उन में थी सभाओं में केवल उन्हीं लोगों को आमंत्रित करते जिन की रूचि अदब में हो बिना बात भीड़ जमा करना उन्हें पसंद नहीं था । जैसा सभी जानते हैं हर साहित्यकार इक खूबसूरत दुनिया बनाना चाहता है जबकि वास्तव में सिर्फ कलम चलाने से सब संभव नहीं और ऐसा कहते हैं लिखने से नहीं कुछ कर दिखाने से बदलाव होगा मगर ऐसा होने ही नहीं देते कुछ लोग । कभी कभी नियति भी अपना रंग दिखाती है कमाल ही करती है नैरंग जी ने उर्दू अकादमी को अपनी किताब की पांडुलिपि भेजी थी जिसे प्रकाशित करने की स्वीकृति का पत्र उनके निधन के कुछ दिन बाद मिला था परिवार को शायद चार दिन बाद की बात है , लेकिन उर्दू अकादमी ने उनकी किताब " तामीर - ए - यास " 25 साल बाद छापी 1998 में । मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर है कि हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन , ख़ाक़ हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक ।
लेकिन सभी का नसीब ऐसा नहीं होता है बहुत लोग ऐसे होते हैं जिनके लेखन को लेकर परिवार समाज अनभिज्ञ या उदासीन होते हैं । कितने लोग जो लिखते हैं उनकी डायरियों में रह जाता है और शायद ही कोई उनको पढ़ता समझता या सुरक्षित रखता है । मैंने अपने कुछ दोस्तों के निधन के बाद उनके वारिस बच्चों से पत्नी से पूछा तो उनको पता ही नहीं था कि दोस्तों की रचनाएं कहां खो गई अथवा धूल चाट रही होंगी या कभी दीमक खा जाएगी । सिरसा हरियाणा से प्रकाश सानी जी क्या कमाल की ग़ज़ल कहते थे अख़बार पत्रिकाओं में छपती थी लेकिन कोई किताब नहीं छपने से उनकी रचनाओं का क्या हुआ कोई नहीं जानता है । सिरसा से ही हरिभजन सिंह रेणु जी की पंजाबी की कविताएं हिंदी में अनुवाद किया गया लेकिन कभी उनको आपेक्षित पहचान और सम्मान शायद नहीं मिला । जबकि कुछ ऐसे भी लोग दिखाई देते हैं जिन्होंने किसी और की रचनाओं को कुछ बदलाव कर खुद की घोषित कर नाम शोहरत से लेकर सरकारी साहित्य अकादमियों में निदेशक पद तक हासिल कर लिया । आजकल साहित्य की किताबों को कोई पढ़ता ही नहीं है कभी कहते थे किताब खरीद कर पढ़नी चाहिए मांग कर नहीं , अब तो लिखने वाले उपहार में भेजते हैं तब भी पढ़ता कोई शायद ही है ।
लेखक सभी का दर्द समझते महसूस करते हैं लिखते हैं बस खुद अपना दुःख दर्द कभी नहीं लिखते , लिखना भी चाहें तो छापेगा कौन । अख़बार पत्रिका पुस्तक प्रकाशक लिखने वालों की रचनाएं प्रकाशित कर कहीं से कहीं पहुंच जाते हैं मगर लेखक को अधिकांश कोई मानदेय नहीं मिलता जो देते हैं वो भी बहुत थोड़ा जिस से कोई लेखक जीवन यापन नहीं कर सकता । कुछ जाने माने खास लोगों की किताबें सरकार खरीदती है या अन्य लोग किसी मकसद से खरीदते हैं हज़ारों में अलमारी में रखने को पढ़ने को नहीं । कुछ साल पहले संसद में इक कानून बनाया गया जिस पर बताया गया लेखक का भला होगा , कानून बना कि कोई लेखक अपने लिखे गीत ग़ज़ल का अधिकार नहीं बेच सकता कोई खरीदता है तो अवैध होगा । कभी किसी का अपना निर्मित सृजित कुछ बेचना भी गुनाह हो सकता है , जाने ये हाथ काटने की बात है कि हाथ मिलाने की । इक सवाल ये भी उठता है कि लिखने वाले का साहित्य प्रकाशित होना क्या अहमियत रखता है तो इसका जवाब भी है कि आप किसी काल किसी शासन किसी राज्य किसी समाज की असलियत तभी समझ सकते हैं जब उस वक़्त के कवि कथाकार ग़ज़ल कहने वाले साहित्य का सृजन करने वालों को पढ़ेंगे समझेंगे । किसी ईमारत किसी शिलालेख से भवन से सामाजिक वास्तविकता नहीं जान सकते हैं । आपने बड़े बड़े किले ऊंचे ऊंचे मीनार भव्य निर्माण देखें होंगे जिनको देख आप अभिभूत हो सकते हैं , लेकिन कोई कवि कोई शायर कोई कहानीकार आपको उजला नहीं अंधेरा पक्ष भी दिखला सकता है । शासकों का गुणगान करने वाले ज़ालिम को मसीहा बताने वाले चाटुकार नहीं लिखेंगे कि वो कितने अत्याचारी थे । कोई ताजमहल पर नज़्म लिख बादशाह को कटघरे में खड़ा कर सकता है , इक शहशांह ने बनवा के हसीं ताजमहल हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक ।
यहां आज के आधुनिक समाज की बात करनी आवश्यक है , साहित्य कला संस्कृति सभी को फिल्म टीवी सीरियल इत्यादि ने प्रदूषित कर दिया है । समाज की वास्तविकता कहीं दिखाई नहीं देती आधुनिक टीवी सिनेमा से सोशल मीडिया में । इक खास वर्ग तक सिमित ही नहीं बल्कि सही दिशा नहीं दे कर भटकाने का कार्य कर रहे हैं खुद को दर्पण कहने वाले । पैसा इतना महत्वपूर्ण लगता है कि अभिनय से संगीत या पटकथा लेखन में नैतिकता मर्यादा का उलंघन आम है गंदगी परोसना आदत हो गई है । धन दौलत नाम शोहरत की अंधी दौड़ में फिल्म जगत और टेलीविज़न से संबंधित लोग सही मार्ग से भटक गए हैं और समाज की सही तस्वीर नहीं दिखते बल्कि झूठी और कपोल कल्पनाओं की कहानियां दिखा दर्शकों को गुमराह करने लगे हैं । इनको आप वास्तविक साहित्य का पर्याय या विकल्प समझने की भूल कभी नहीं करें । इनके मापदंड कब बदल जाते हैं कोई नहीं सोच समझ पाता है । कड़वी बात है लेकिन सच है कि हमारे देश में ईमानदारी से लिखना अपराध करने जैसा है , सज़ा देते हैं वो लोग जिनको साहित्य की परख की बात क्या समझ नहीं होती लेकिन निर्धारित करते हैं क्या शानदार लेखन है क्या बेकार है ।
मैंने जनाब नैरंग सरहदी जी को लेकर यथासंभव सार्थक जानकारी खोजने की कोशिश की है , लेकिन जिस शख़्स से आप कभी मिले नहीं कोई भी संबंध कभी नहीं रहा कभी पहले पढ़ा ही नहीं उनको कितना समझ सकता है कोई भी । हां इतना अवश्य महसूस हुआ है कि कुछ लोग सही वक़्त पर सही जगह सही समाज और माहौल में नहीं पैदा होते किसी पौधे की तरह उचित वातावरण नहीं मिलने से बढ़ नहीं पाते फलते फूलते नहीं है लेकिन उनका अंकुर इतने वर्ष बाद सुरक्षित रहना और फिर से उगना किसी चमत्कार से कम नहीं है ।
नैरंग जी की किताब ' ज़िन्दगी के बाद ' पढ़ रहा हूं अमृत प्रकाशन दिल्ली से 2018 में प्रकाशित हुई है ,
कुछ चुनिंदा ग़ज़ल विपिन सुनेजा की आवाज़ में ' आएगी मेरी याद ' एल्बम में से नीचे लिंक दिया गया है लुत्फ़ उठा सकते हैं । शुरुआत ही शानदार दो शेर से की गई है पढ़िए :-
आएगी मेरी याद मेरी ज़िन्दगी के बाद
होगी न रौशनी कभी इस रौशनी के बाद ।
पसे - हयात यही शेर होंगे ऐ नैरंग
अलावा इसके तेरी यादगार क्या होगी ।
ग़ज़लों के बाद कुछ कत्ए शामिल हैं बहुत शानदार कुछ पढ़ सकते हैं :-
गुले - बेरंगो- बू- ओ - बास हूँ मैं
ज़िन्दगी से बहुत उदास हूँ मैं
मुझसे दुनिया को क्या ग़रज़ ' नैरंग '
शाइरे - दर्दो-ग़मो यास हूँ मैं ।
गर्के -आबे- शफ़ाफ़ रहता हूँ
पाक दामन हूँ साफ़ रहता हूँ
कुछ दो दुनिया ख़िलाफ़ है मेरे
कुछ मैं अपने ख़िलाफ़ रहता हूँ ।
लुत्फ़ सुनने में कहाँ और सुनाने में कहाँ
दाद देने में कहाँ दाद के पाने में कहाँ
दिले - बेताब की बातें हैं ये ' नैरंग ' वरना
कद्रदानी - ए - सुख़न आज ज़माने में कहाँ ।
कुछ नज़्में हैं , चरागां करके छोड़ेंगे , हमारा हरियाना , गुरु नानक , गुरु गोविन्द सिंह , महात्मा गांधी ।
मर्सिया पढ़ते हैं किसी की समाधि कब्र पर श्रद्धांजलि देते समय , नैरंग जी ने जिन पर मर्सिया लिखा है उन में शामिल हैं , पण्डित जवाहरलाल नेहरू , लाल बहादुर शास्त्री , अपने उस्ताद पर ।
कुछ अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद भी शामिल है उनकी किताब ' ज़िन्दगी के बाद में ' , और आखिर में इक मसनवी भी लिखी है ' दस्ताने- सावित्री ' कुछ साहित्य उर्दू फ़ारसी के लिखने शोध करने वालों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं अलग अलग तरीके से कितनी जगह पर । सभी ने उनके लेखन को विश्व स्तर का और शानदार बताया है , निष्कर्ष यही निकलता है कि किसी का सही समय और सामाजिक वातावरण में होना अथवा नहीं होकर विपरीत माहौल में रहना पैदा होना प्रमुख कारण हो सकता है उचित पहचान नहीं मिल पाने का किसी का दोष नहीं नियति का भी नहीं कह सकते ऐसे जाने कितने अनमोल हीरे कहीं मिट्टी में दबे रह जाते हैं । उनका ही शेर आखिर में उनकी कहानी को ब्यान करता हुआ : -
मैं और मेरी याद खुदासाज़ बात है , वर्ना मैं वो हूं जिसको ज़माना भुला चुका ।
11 दिसंबर को नैरंग जी के बेटे नरेश नारंग सलीम जी से फोन पर विस्तार से बात हुई उन्होंने अपनी पिता जी की ज़िंदगी के कुछ और पहलुओं से परिचित करवाया । 1986 में ' एक था शायर ' किताब प्रकाशित हुई नेशनल पब्लिकेशन से जनाब गुलशेर खान शानी जो साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन निकालने में सहयोग करते थे जी की कोशिश से । डॉ तक़ी आदीबी जी ने 2022 में ' तामीरे यास ' और नैरंग जी के कलाम को बीस देशों में अलग अलग भाषाओं में प्रकाशित और प्रचारित कर इक गुमनाम शायर को दुनिया से परिचित करवाने का कार्य किया जिस का आभार जताना ज़रूरी है । नरेश जी को कितनी शिकायतें हैं मुझे लगता है मुमकिन है खुद से कोई शिकायत रही होगी लेकिन मुझे उनसे इतना ही कहना है इंसान चाहते हुए भी सभी कुछ नहीं कर सकता है । हमको समाज से कितना मिलता है कोई नहीं सोचता कितना लौटाना है इस पर विचार करना चाहिए तब समझ आएगा महान लोग दुनिया को अपने विचारों का अपनी रचनाओं का जो अनमोल ख़ज़ाना दे जाते हैं उनको बदले में कोई कीमत नहीं चाहिए होती है । हमारा ऐसे लोगों को एक ही तरीका हो सकता है श्रद्धा सुमन अर्पित करने का कि हम इक ऐसा समाज निर्मित करें जैसा उन्होंने इक ख़्वाब सजाया था सभी धर्मों का आदर और इक धर्मनिरपेक्षता मानवता का समाजिक वातावरण बनाना । कवि शायर कथाकार सच्चे तभी होते हैं जब वो खुद अपने दुःख दर्द की नहीं सभी अन्य की परेशानियों से चिंतित होकर समाज की बात कहते हैं अपनी को छोड़कर ।
किसी एक पोस्ट में ऐसे महान शायर की बात पूरी होना संभव नहीं है गागर में सागर भरने की कोशिश नहीं करना चाहता बस आख़िर में विपिन सुनेजा जी की आवाज़ में उनकी ग़ज़लों के यूट्यूब वीडियो लिंक सांझा कर रहा हूं जो नैरंग जी की पुस्तक ' ज़िन्दगी के बाद ' की चुनिंदा रचनाएं हैं ।
बहुत शानदार आलेख सर...एक गुमनाम और मरहूम शायर का एक तरह से नाम और पुनर्जीवन हुआ है। नमन है उनकी लेखनी को ।उनके पुनर्जीवन के लिए भी उक्त दो लोगों को साधुवाद। अच्छी जानकारी आपके आलेख द्वारा
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