मार्च 14, 2024

सब शरीक़े जुर्म हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया { चुनावी बॉन्ड की चुप्पी की आवाज़ की गूंज }

        सब शरीक़े जुर्म हैं  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

पाक़ीज़ा खुले आम इल्ज़ाम लगाती है , किसी को नहीं बख़्शती सिपहिया से रंगरजवा तक सभी दुपट्टा बेचने वाले से बजजवा तक । असली विषय पर आएं उस से पहले इस को जान लेना आवश्यक है कि इक मान्यता है कि राजनीति और वैश्यावृति दुनिया के सब से प्राचीन धंधे हैं और इन दोनों में काफी समानताएं हैं । अमर प्रेम का नायक कहता है कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना , हमको जो ताने देते हैं हम खोए हैं इन रंगरलियों में , हमने उनको छुप छुप के आते देखा इन गलियों में । बदनाम बस्ती में शरीफ़ लोग रात को अंधेरे में छुपते छुपाते जाते थे , रईस खानदानी लोग घर पर महलों में बुलवा नचवाते थे । खिलौना फिल्म में तो नाचने वाली पागलपन की दवा बन गई थी । ख़ामोशी से उमराव जान तक कितनी फ़िल्में अपने देखी हैं । वैश्या जिस्म बेचती है कुछ लोग अपना ईमान बेचते हैं और कुछ उनका ईमान ख़रीद कर बदले में मनचाहा वरदान देते हैं । लोकतंत्र में कुछ लोग हैं जो न रोटी बनाते हैं न रोटी खाते हैं वो रोटी से खेलते हैं , किसी कवि ने पूछा ये तीसरा व्यक्ति कौन है , देश की संसद इस पर मौन है । चुनावी बॉन्ड शायद वही चुप्पी है जिस की आवाज़ की गूंज अभी भी साफ सुनाई नहीं देगी भले चुनाव आयोग की वेबसाइट पर नाम लिख भी दिए जाएं ।
 
 
चुनावी बॉण्ड किसी खरीदार और भुनाने वाले की गोपनीय राज़ की बात घोषित की गई थी बैंक का काम था किसी बिचौलिए की भूमिका निभाना । बैंक राज़ी हो गए अपनी आंख बंद कर खरीदार और जिसको मिला और जिस ने भुनाया उसकी पहचान किसी को खबर नहीं होने देने पर । अंधेर नगरी चौपट राजा की निशानी नहीं है सिर्फ बल्कि जिस को देश के संविधान कानून और लोकतंत्र की सुरक्षा का फ़र्ज़ निभाना था उसको ये दिखाई नहीं दिया तब तक जब तक किसी ने उसकी चौखट पर दस्तक नहीं दी ।  
 
2017 में 2017 - 2018 के बजट में प्रावधान किया गया और 2 जनवरी 2018 को वित्त मंत्रालय ने घोषणा जारी की , 15 फरवरी 2024 को सर्वोच्च न्यायालय ने इस को असवैंधानिक बताया और इसे देश की जनता के सूचना के अधिकार का उलंघन बताया । गंभीर सवाल ये है कि सत्ताधारी अथवा सभी राजनैतिक दल जब चाहे मनमानी करते रहें लेकिन जिन संस्थाओं को न्याय और जनता के अधिकारों एवं लोकतान्त्रिक प्रणाली की सुरक्षा करनी है जिनको संविधान ने बनाया ही इस मकसद से है उनको खुद ये सब देखना नहीं चाहिए बल्कि कोई गैर सरकारी संस्था असोसिएशन ऑफ डेमोक्रैटिक राईट को अदालत जाकर मुकदमा दायर करना चाहिए ऐसी अंधेर नगरी बन गया है देश । अब भी सिर्फ नाम बताने से क्या सब ठीक हो गया मान लिया जाएगा । अनुचित असंवैधानिक ढंग से हुए लेन देन पर कोई करवाई नहीं तो आम नागरिक पर ही हमेशा तलवार लटकती रहना किसलिए जो अपनी आमदनी का हिसाब नहीं बता सकता तो अपराधी घोषित किया जाता है । ई डी क्या सिर्फ सत्ता विरोधी को पकड़ने को बदले की भावना से कार्य करती है किसी सत्ताधरी किसी सरकार समर्थक कारोबारी की तरफ देखती तक नहीं है । 
 
भारतीय स्टेट बैंक पहले महीनों लगने का बहाना बनाता है बाद में इक दिन में आंकड़े दे सकता है जब अदालत कड़ा रुख अपनाती है यही अपने आप में किसी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करती है । अब तो दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल सच साबित होती लग रही है । 
 

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार ,

घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहाऱ । 

आप बचकर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं ,

रहगुज़र घेरे हुए मुरदे  खड़े हैं बेशुमार । 

रोज़ अख़बारों में पढ़कर ये ख़्याल आया हमें ,

इस तरफ आती तो हम भी देखते फस्ले - बहार । 

मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं ,

बोलना भी है ,मना सच बोलना तो दरकिनार । 

इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं ,

आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार । 

हालते इनसान पर बरहम न हों अहले-वतन , 

वो कहीं से ज़िंदगी भी मांग लाएँगे उधार । 

रौनक़े जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं ,

मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार । 

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर ,

हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार ।  

( साये में धूप से आभार सहित ) अब वास्तव में दरख़्तों के साये में धूप लगती है । 





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