अक्टूबर 20, 2023

अपनी बात पर रहो कायम ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      अपनी बात पर रहो कायम ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

आज शुरुआत इक पुरानी ग़ज़ल से करते हैं :- 
 

( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हम तो जियेंगे शान से
गर्दन झुकाये से नहीं ।

कैसे कहें सच झूठ को
हम ये गज़ब करते नहीं ।

दावे तेरे थोथे हैं सब
लोग अब यकीं करते नहीं ।

राहों में तेरी बेवफा
अब हम कदम धरते नहीं ।

हम तो चलाते हैं कलम
शमशीर से डरते नहीं ।

कहते हैं जो इक बार हम
उस बात से फिरते नहीं ।

माना मुनासिब है मगर
फरियाद हम करते नहीं ।
 
अभी थोड़ी देर पहले जो ईश्वर खुदा भगवान के स्थल पर सर को झुकाये कह रहा था मैं गुनहगार हूं मुझसे कितनी गलतियां हुई हैं आपको सब पता है मैं कितना झूठा फरेबी और बुरा हूं पर आप दयावान हैं हमारी सभी गलतियों को माफ़ करते हैं सब की लाज बचाए रखते हो सबके पर्दे ढके रखते हो दया करो । कौन था वो क्या मैं ही था या फिर वहां हर शख़्स परवरदिगार के सामने इक बहरूपिया बन कर खड़ा था । हां वही आदमी बाहर निकलते दुनिया वालों से कह रहा है कि मुझ पर भरोसा करो मैं कभी कुछ भी गलत नहीं करता कोई अपराध कोई छल कपट कभी नहीं करता । सच में अगर ऐसा है तो ऊपरवाले से नज़र से नज़र मिलाकर बात करता और सवाल करता बता मैंने क्या गुनाह किया है मुझे क्यों इतनी सज़ाएं मिलती हैं क्यों मेरा सुःख चैन मिलता नहीं मुझको । कभी खुद अपना भी हिसाब देखता है क्या क्या तेरी बनाई दुनिया में सब ठीक है भलाई का बदला भलाई और बुराई का अंजाम बुरा होता है या ये अवधारणा इक धोखा है बस लोगों को बहलाने को वो भी इसलिए कि तुझ पर ऐतबार करते रहें और तेरी पूजा ईबादत अरदास आरती गुणगान करते रहें । कैसे कोई विधाता सिर्फ अपना गुणगान करवाने को किसी दुनिया को बनाकर उसे उसके हाल पर छोड़ सकता है । या फिर कहीं वही बात तो सच नहीं कि तेरा कोई वजूद कोई अस्तित्व नहीं सिर्फ इक कल्पना है और कुछ लोगों ने तुझे अपने हाथ की कठपुतली बना कर अपना कारोबार करना शुरू कर दिया है और उनको विश्वास है वो जो भी करते रहें कोई उनका हिसाब नहीं करने वाला अर्थात उनको तेरे नहीं होने का यकीन है ।  

है कि नहीं है तू ही जाने किस ने देखा किस ने पाया कौन जाने । लेकिन जैसा हम सभी मानते हैं कि कोई तो अवश्य है जिस ने दुनिया को बनाया है तब इतना तो कहना ही पड़ेगा कि बनाकर उसका ठीक से रख रखाव संचालन करने में नाकाम रहा है । यहां संसार में हम इंसान भी क्या क्या नहीं बनाते सरकार से लेकर कितना कुछ सब व्यवस्था नियम कायदे हिसाब किताब सही करने के लिए , लेकिन हर जगह कहीं कोई चूक रह जाती है और संविधान से संसद तक न्यायपालिका से कार्यपालिका तक सब व्यर्थ साबित होते हैं । और तो और धर्म उपदेश से धार्मिक किताबों तक जैसा होना चाहिए वैसा करने में सफल नहीं होते हैं । जैसे राजनीति कितने विचारों के आवरण ओढ़े लोकशाही तानाशाही समाजवाद पूंजीवादी व्यवथा के नाम पर शासन की आड़ में कुशासन चलाते हैं और जनता को बेबस कर ज़ुल्म ढाते हैं और वास्तविक मकसद को भूलकर अपना स्वार्थ साधने लगते हैं । दुनिया की हालत भी उसी तरह की है शायद अपनी बनाई दुनिया को तुमने भी भुला दिया है अगर इसको उचित ढंग से नहीं चलाना था तो बनाना ही नहीं था । कभी सोचना अधिकांश लोग बिना किसी जुर्म मुजरिम की तरह जीने को बाध्य हैं और जो पापी अपराधी गुनहगार हैं उनको कोई सज़ा देना तो क्या पकड़ता तक नहीं है बल्कि झूठ का गुणगान महिमामंडन किया जाता है हर जगह । 

इक बात कही जाती है कि जब पाप बढ़ जाता है तब उसका अंत करने आते हैं भगवान मगर पाप बढ़ने ही क्यों देते हैं कब तक गहरी नींद में सोए रहते हैं शाहंशाहों की तरह और फिर कभी थोड़ी राहत का दिखावा दे कर अपना रुतबा बुलंद करते हैं । ऐसा विधाता ऐसा भगवान भला कैसे मंज़ूर हो सकता है और जो खुद अपनी दुनिया को बनाकर उचित ढंग से नहीं रखता उसकी किसी बात का यकीन कैसे करे कोई । 



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