अक्टूबर 17, 2023

बंद हैं रास्ते लौटना मुश्किल ( सड़क से घर तलक ) डॉ लोक सेतिया

 बंद हैं रास्ते लौटना मुश्किल ( सड़क से घर तलक ) डॉ लोक सेतिया  

ये हर जगह की बात है गांव से शहर नगर से महानगर अपनी बस्ती अपने घर से किसी सभा समारोह में कहीं भी प्रवेश किया और भूले से इधर उधर चले गए या बाहर निकले तो फिर से वापसी कोई आसान नहीं होती है । कभी कोई घर से निकलता तो कोशिश करते रोकने की तब भी जाना चाहे तो जल्दी वापस लौट आना इंतज़ार रहेगा कहते थे । अब तो कभी चाहते हैं कोई चला जाए छोड़ कर तो उसका कमरा उसका सामान औरों को मिल जाए , रूठना मनाना नहीं होता अब आपस में बल्कि हमको क्या अपनी बला से सोचते हैं । हालत ऐसी हुई है कि ज़ोर चले तो जिस को पसंद नहीं करते उसे धक्के मारकर बाहर निकाल देते हैं । सभ्याचार शिष्टाचार की बात किसी और ज़माने की बात है आजकल मुलाक़ात नहीं जनाब घूंसा - लात है । होती हर दिन बेमौसम बरसात है दिन भी लगता कोई रात है भला ये भी कोई कहने की बात है । कितने बड़े बहुमंज़िला घर हैं मगर दिल छोटे हैं किसी अपने के लिए जगह नहीं भले घर सूना सूना लगता हो बस दिखाई देना चाहिए आधुनिक और शानदार महंगी वस्तुओं से सजाया गया । दिखाने को ख़ुशहाली पर वास्तव में कोई खामोश सी उदासी छाई लगती है बेशक कभी कभी कोई आयोजन या पार्टी या कोई समारोह निर्धारित समय और नियमों के बंधन से बंधा हुआ जिस में बिना बुलाया कोई मेहमान प्रवेश नहीं कर सकता । बढ़ते सामाजिक दायरे में सोच और मानसिकता इतनी तंग और संकुचित है कि अक्सर हवा बोझिल लगती है दम घुटता है और लोग बाहर निकलने को बेताब होते हैं । गुज़रा ज़माना क्या था जब अजनबी को भी जगह देने का तौर तरीका और सलीका निशानी होती थी ख़ास और शिक्षित अभिजात्य वर्ग की । 
 
चलिए घर समाज से सड़कों तक पर नज़र डालते हैं तो खुली खुली सड़कों का फ़्लाईओवर अंडरपास डिवाईडर का कोई जाल दिखाई देता है जिस में समझना कठिन लगता है कितने रास्ते कितनी मंज़िलें हैं और कितनी रफ़्तार से कौन कहां भाग रहा है ।  इस तरफ से उस तरफ जाना बड़ा दुश्वार है कभी यूटर्न लेने को लंबा फ़ासला तय करना होता है तो कभी भटकते भटकते मंज़िल खो जाती है आसानी की तलाश ने मुश्किलें खड़ी कर दी हैं । धार्मिक संगठन से राजनीति तक सभी जगह भीतर जाने को व्याकुल हैं लोग लेकिन वहां जाने पर कभी वो नहीं मिलता जिसका शोर मचा हुआ था । मीडिया का भी बाहरी आवरण बड़ा लुभावना लगता है अंदर जाने पर पता चलता है किसी धातु की प्रतिमा की तरह खोखला है । हक़ीक़त यही है जिनका जितना विस्तार दिखाई देता है उन सभी के भीतर का खोखलापन उतना ही अधिक है । सरकार से प्रशासन तक बड़े उद्योग कारोबार से भाषण देने तक खोखली बातें झूठे आश्वासन और सिर्फ बातों से बहलाने की कोशिश होती है । 
 
विकास के आंकड़े और गरीबी भूख से बदहाल लोग दोनों आमने सामने खड़े हैं इक दूजे से ऊंचे पायदान पर मगर इस विडंबना पर कोई कुछ नहीं बोलता है । टीवी चैनल से सोशल मीडिया तक खबरों में विदेशी हालात जंग और तमाम जानकारियां मिलती हैं बस खुद अपने देश की वास्तविकता पर किसी की नज़र नहीं जाती है । अंधा है धृतराष्ट्र तो गांधारी ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है अजीब रिश्ता है पति पत्नी का जिस में दूसरे की सहायक नहीं बनना बल्कि खुद को महान साबित करना है कोई इस को नासमझी नहीं कहता है । शासक का गुणगान उस के प्रति अपनी भक्ति आपको मनचाहा फल प्रदान करती है टीवी अख़बार वाले विज्ञापन की बैसाखियों से तेज़ दौड़ रहे हैं सत्ता ने उनको लूला लंगड़ा अपाहिज बना दिया है चंद सिक्कों में ईमान बिकते हैं । उनकी चौखट पर जनता के अरमान कुचले जाते हैं और उनके बनाए भगवान मुंहमांगे दाम बिकते हैं । मानवता का विनाश हो रहा है जिसे आधुनिक विकास कहते हैं प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक दुरूपयोग इक अंधकारमयी भविष्य की ओर जाने का कारण है । इक ग़ज़ल से बात को विराम देते हैं ।
 

गांव अपना छोड़ कर हम पराये हो गये ( ग़ज़ल ) 

             डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गांव  अपना छोड़ कर , हम  पराये हो गये 
लौट कर आए मगर बिन  बुलाये हो गये ।

जब सुबह का वक़्त था लोग कितने थे यहां
शाम क्या ढलने लगी ,  दूर साये हो गये ।

कर रहे तौबा थे अपने गुनाहों की मगर 
पाप का पानी चढ़ा फिर नहाये  हो गये ।

डायरी में लिख रखे ,पर सभी खामोश थे
आपने आवाज़ दी , गीत गाये  हो गये ।

हर तरफ चर्चा सुना बेवफाई का तेरी
ज़िंदगी क्यों  लोग तेरे सताये  हो गये ।

इश्क वालों से सभी लोग कहने लग गये 
देखना गुल क्या तुम्हारे खिलाये हो गये ।

दोस्तों की दुश्मनी का नहीं "तनहा" गिला
बात है इतनी कि सब आज़माये  हो गये । 
 

 

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