अक्टूबर 12, 2023

सच के सिवा कुछ नहीं लिखूंगा ( ख़ामोशी ) डॉ लोक सेतिया

    सच के सिवा कुछ नहीं लिखूंगा ( ख़ामोशी ) डॉ लोक सेतिया 

मैं जानता हूं ये सब भूलकर भी अपनी जुबां पर नहीं ला सकता किसी से मन की भावनाएं सांझी करने का अर्थ है खुद को बुद्धू पागल नासमझ जाने क्या क्या कहलवाना । लिखने में कोई परेशानी नहीं क्योंकि इसे कौन पढ़ेगा और अगर पढ़ भी लेगा कोई गलती से भूले भटके तो भी समझेगा ही नहीं । ये दुनिया के लिए बेकार की बकवास है जिस का हासिल कुछ भी नहीं पर मुझे खुद नहीं समझ आ रहा कि जो लिखना है वो क्या था । कल रात इक जादू की दुनिया को देखा देखता रह गया टीवी पर असंख्य लोग किसी का जन्म दिन मना रहे थे उसकी महिमा उसकी महानता उसकी शोहरत का परचम लहरा रहे थे । विधाता ईश्वर ख़ुदा से बढ़कर उस फ़िल्मी अभिनेता कलाकार अदाकार को बना रहे थे । टीवी पर शो में शामिल लोगों से देखने वाले दर्शक तक सभी प्रेम की गंगा में डुबकी लगा कर मनचाहा वरदान पा रहे थे । जिधर देखो बस इक वही सिर्फ वही नज़र आ रहे थे वो मसीहा बनकर ज्ञान की इक अलग दुनिया दिखला रहे थे कुछ ही पलों में कंगाल व्यक्ति को करोड़पति बना कर दिखा रहे थे । 81 वर्ष में भी करोड़ों की आमदनी कुछ इस तरह से कमा रहे हैं कि सबको दिन में सितारे नज़र आने लगे हैं करिश्मा क्या होता है पहली बार सामने होता देखा हमने राग दरबारी लोग सुन रहे थे गा रहे थे । कुछ उल्टे सीधे सवाल मेरे ज़हन में आने लगे हैं बस आपको अपनी कथा हम सुनाने लगे हैं । 
 
उस सदी के महानायक ने क्या क्या नहीं कर दिखाया है जिधर देखो उनकी माया का दुनिया भर तक फैला हुआ साया है कितनों को सहारा दिया है क्या क्या सामाजिक कार्य से उनका नाता है भिखारी हैं तमाम बस इक वही दाता है तभी बड़े से बड़ा बिग बी कहलाता है । बस इक सवाल मेरे ख़्याल में आया है कुछ ख़ास है जो उसने हज़ारों करोड़ कमाया है पर कोई नहीं जानता कौन समझता है ये सब कैसे कमाया है । क्या यही हक सच की मेहनत की कमाई है शायद किसी ऊंचे पर्बत के साथ इक विडंबना है साथ साथ इक गहरी खाई है । किसी किसी के पास इतना है कि समाज में अधिकांश की खातिर कुछ भी नहीं बचता है कौन सोचता है दौलतमंदों का गरीबी से कितना ख़ास करीबी रिश्ता है । उसने कितनों को मालामाल किया है कितना कमाल किया है कोई राज़ छुपा हुआ है इस सागर में कितना पानी है किस किस की निशानी है । सागर बड़ा विशाल है खारा उसका पानी है कितनी नदियों की उस पर मेहरबानी है । समाज की बात करते हैं इसी समाज में हर रोज़ लोग जीने की खातिर मरते हैं दो वक़्त रोटी जिनको नहीं नसीब होती है उनकी तकदीर बुरी होती है । आप शाहंशाह कहलाने वाले मुकदर के सिकंदर हैं हम कुछ भी नहीं बापू के तीन बंदर हैं बुरा नहीं देखते बुरा नहीं सुनते बुरा नहीं बोलते हैं बस चुपचाप इक तराज़ू पर रखते हैं और तोलते हैं ।  
 
शायद कुछ को याद आया होगा कल किसी ने इक और लोकनायक का जन्म दिन कुछ अलग ढंग से मनाया होगा । ऐसा भी इक शख़्स धरती पर आया था जिस ने कभी खुद की ख़ातिर नहीं कुछ चाहा था जीवन भर गरीब बेबस शोषित वर्ग की खातिर प्रयास करता रहा समाजवाद का संदेश समझाया था । खुद उस ने कभी नहीं किसी को जतलाया था फिर भी सब जानते हैं उसने इक अलख जलाया था लोकतंत्र की रक्षा का बीड़ा उठाया था तानाशाही को मिटाने का संकल्प उठाया था सत्ता के भ्र्ष्टाचार पर इक सम्पूर्ण क्रांति की शुरआत की थी । बस इक वही था जिस ने पांच सौ खूंखार डाकुओं का आत्मसमर्पण करवाया था कुछ ख़ास था उस में विरोधी भी जिस का मान करते थे । सत्ता का मोह नहीं ताकत से भय नहीं कुछ पाने की चाहत नहीं जिस ने कितने बड़े पदों को ठुकराया था बड़ी सादगी से जिया कितनी उलझनों से टकराया था जनता के मानस को जिस ने समझा भी और समझाया था कौन करेगा यकीन कोई ऐसा मनुष्य भी देखा था कौन उस से बड़ा दिखाई दिया वो खुद इक लंबी रेखा था । आज इस अंधेरी कोठड़ी में दिखता कोई रौशनदान नहीं है सब बराबर हों जिस में क्यों वो अपना हिंदुस्तान नहीं है , दुष्यंत कुमार नहीं कोई चुप करोड़ों लोग हैं अब किसी शायर की हर ग़ज़ल सल्तनत के नाम इक ब्यान नहीं है । हमारे देश ने समाजवादी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया था जिस में सभी को ज़रूरत का हिस्सा एक समान मिलना प्राथमिकता था , लेकिन कब भटक कर हमने पूंजीवादी व्यवस्था को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि उसके गुलाम हो गए हैं । अब जिनके पास धन दौलत का अंबार लगा है वास्तव में उनका हिस्से को झपट लिया है जिनको कुछ भी नहीं मिलता है । ऐसे में ये कोई गौरव की बात नहीं है कि कोई भी किसी को इतना बड़ा साबित करने को इक सार्वजनिक तमाशा बनाए कि उस ने कितना कुछ सामाजिक कार्यों में सहायता देने को बांटा है जब सही में वो बड़े लोग ऐसा भी अन्य लोगों से अपने नाम शोहरत का उपयोग कर मांगते रहते हैं । अक्सर ऐसे कार्यों में उनका आर्थिक योगदान कम होता है और श्रेय अधिक मिलता है । चाहे जितना भी दान पुण्य कर लें बड़े धनवान लोग उनका ये अपराध कम नहीं हो जाता कि उन्होंने किसी तरह इतना एकत्र कर लिया है कि अधिकांश को पेट भरने को दो वक़्त रोटी नसीब नहीं होती है उनकी बदनसीबी के मुजरिम यही तथाकथित दानवीर लोग हैं ।

जयप्रकाश नारायण पर रामधारी सिंह दिनकर की लिखी गई कविता पढ़ते हैं ।

 
झंझा सोई , तूफान रुका ,
प्लावन जा रहा कगारों में ;
जीवित है सबका तेज किन्तु ,
अब भी तेरे हुंकारों में ।
 
दो दिन पर्वत का मूल हिला ,
फिर उतर सिन्धु का ज्वार गया ,
पर , सौंप देश के हाथों में
वह एक नई तलवार गया ।
 
’जय हो’ भारत के नये खड्ग ;
जय तरुण देश के सेनानी !
जय नई आग ! जय नई ज्योति !
जय नये लक्ष्य के अभियानी !
स्वागत है , आओ , काल-सर्प के
फण पर चढ़ चलने वाले !
 
स्वागत है , आओ , हवनकुण्ड में
कूद स्वयं बलने वाले !
मुट्ठी में लिये भविष्य देश का ,
वाणी में हुंकार लिये ,
मन से उतार कर हाथों में
निज स्वप्नों का संसार लिये ।
 
सेनानी! करो प्रयाण अभय ,
भावी इतिहास तुम्हारा है ;
ये नखत अमा के बुझते हैं ,
सारा आकाश तुम्हारा है ।
 
जो कुछ था निर्गुण , निराकार ,
तुम उस द्युति के आकार हुए ,
पी कर जो आग पचा डाली ,
तुम स्वयं एक अंगार हुए ।
 
साँसों का पाकर वेग देश की
हवा तवी-सी जाती है ,
गंगा के पानी में देखो ,
परछाईं आग लगाती है ।
 
विप्लव ने उगला तुम्हें , महामणि
उगले ज्यों नागिन कोई ;
माता ने पाया तुम्हें यथा
मणि पाये बड़भागिन कोई ।
 
लौटे तुम रूपक बन स्वदेश की
आग भरी कुरबानी का ,
अब 'जयप्रकाश' है नाम देश की
आतुर , हठी जवानी का ।
 
कहते हैं उसको 'जयप्रकाश'
जो नहीं मरण से डरता है ,
ज्वाला को बुझते देख , कुण्ड में
स्वयं कूद जो पड़ता है ।
 
है 'जयप्रकाश' वह जो न कभी
सीमित रह सकता घेरे में ,
अपनी मशाल जो जला
बाँटता फिरता ज्योति अँधेरे में ।
 
है 'जयप्रकाश' वह जो कि पंगु का
चरण , मूक की भाषा है ,
है 'जयप्रकाश' वह टिकी हुई
जिस पर स्वदेश की आशा है ।
 
हाँ, 'जयप्रकाश' है नाम समय की
करवट का, अँगड़ाई का ;
भूचाल, बवण्डर के ख्वाबों से
भरी हुई तरुणाई का ।
 
है 'जयप्रकाश' वह नाम जिसे
इतिहास समादर देता है ,
बढ़ कर जिसके पद-चिह्नों को
उर पर अंकित कर लेता है ।
 
ज्ञानी करते जिसको प्रणाम ,
बलिदानी प्राण चढ़ाते हैं ,
वाणी की अंग बढ़ाने को
गायक जिसका गुण गाते हैं ।
 
आते ही जिसका ध्यान ,
दीप्त हो प्रतिभा पंख लगाती है ,
कल्पना ज्वार से उद्वेलित
मानस-तट पर थर्राती है ।
 
वह सुनो , भविष्य पुकार रहा ,
' वह दलित देश का त्राता है ,
स्वप्नों का दृष्टा 'जयप्रकाश'
भारत का भाग्य-विधाता है ।'




 

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