अक्टूबर 11, 2023

आंखों पर पट्टी बंधी है ( ग़ज़ब लोग ) डॉ लोक सेतिया

    आंखों पर पट्टी बंधी है ( ग़ज़ब लोग ) डॉ लोक सेतिया 

क्या बताएं कैसे कैसे लोग हैं कुछ लोग हैं जो रोज़ संदेश भेजते हैं इन से सुनिए क्या कहते हैं हमारे देश की हालत कितनी शानदार है । उनका कहना है कि जो आपको आस पास दिखाई देता है इधर उधर यहां वहां देशवासी बताते हैं कि बदहाली है उन पर भरोसा मत करो वे छुपाने की बात को जगज़ाहिर करते हैं । हमको सिर्फ सावन के अंधे बन कर रहना सीखना चाहिए और पतझड़ में भी बहार है गीत गाकर दिल को बहलाना चाहिए । कुछ और हैं जो सोशल मीडिया से कोई तस्वीर ढूंढ कर अपनी टाइमलाइन पर लिखते हैं देखो ये उस देश में हमारे शासक की निशानी है जिस पर उनकी भाषा में जाने क्या लिखा है जबकि ऐसा तो हमारे सम्राट द्वारा बनाया हुआ तमाम जगह है फिर सवाल उठाते हैं क्या क्या इतिहास हम से छुपाया गया है । उनसे पूछो क्या उस निर्माण को ढक कर छुपाया गया था जिस को देखने कितने सैलानी जाते हैं । मान लो मैंने आगरा जाकर ताजमहल नहीं देखा और कभी उस को लेकर पढ़ा सुना नहीं तो क्या ये किसी और का दोष है या मैंने ही जानकारी पाने को कुछ नहीं किया अब कोई तस्वीर देख कर बोले कि मुझसे ये अभी तक क्यों छुपाया गया तो उसे नासमझ कह सकते हैं नादान नहीं कहना चाहिए । सोशल मीडिया पर बैठ सवाल करने वाले कभी इतिहास की किताबों को खरीदते तक नहीं पढ़ना ही नहीं चाहते अन्यथा इतना कुछ सामने आता है कि जीवन भर पढ़ कर भी इक कतरे को जान सकते हैं जिनको समंदर की थाह पाने का वहम है । अब इस पोस्ट को ही इतना ही पढ़ कर किसी को नहीं समझ आएगा कितना लिखना बाक़ी है कुछ देर बाद फुर्सत से पढ़ना तब जानोगे । 
 
 छुपाना पड़ता है गुनाहों को भले कर्मों को छुपाना नहीं पड़ता बेशक उनका ढिंढोरा भी नहीं पीटना चाहिए लेकिन जिनको अपनी असलियत को झूठ को ढकना होता है उनके पास ये इक पर्दा जैसा काम करता है कि जाली सर्टीफिकेट की तरह कोई नकली सबूत खोज कर निकाल कर दुनिया को उल्लू बनाया जाए । मुश्किल यही है कि कुछ लोग देख कर भी आंखें बंद कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने किसी की चाटुकारिता की अथवा गुलामी की परंपरा को निभाना होता है मगर बाकी सभी देख कर अनदेखा किसलिए करेंगे जब सामने हक़ीक़त दिखाई देती हो तो किसी की बात से दिल को नहीं बहला सकते उनकी तसल्ली की ख़ातिर । इश्क़ में सुनते हैं लोग अंधे हो जाते हैं कुछ समझ नहीं पाते कुछ भी नज़र नहीं आता इक उसी को छोड़कर । ज़माना कब का बदल गया है आजकल आशिक़ी का पुराना अंदाज़ नहीं नया तौर तरीका नए चलन होते हैं । जवानी का नशा अधिक साल तक रहता नहीं है दुनियादारी समझ आने लगती है जब हर कोई प्यार को धन दौलत से तोलता है आंकता है क्या हासिल होगा क्या खोना पड़ सकता है । अभी इक से शुरुआत हुई उधर कोई और दिल को लुभाने लगता है तो इधर जाएं कि उधर जाएं सोचने लगते हैं साथ नहीं तो मर जाएं वाली बात अब कोई नहीं करता है । 
 
पुराने ज़माने की बात अलग हुआ करती थी कोई दिल को भाने लगे उस से पहले किसी और के पिंजरे में ख़ुशी ख़ुशी कैद होकर ज़िंदगी बिताते थे , जब प्यार हुआ इस पिंजरे से तुम कहने लगे आज़ाद रहो , हम कैसे भुलाएं प्यार तेरा तुम अपनी ज़ुबां से ये न कहो । आजकल राजनीति भी किसी पिंजरे जैसी हो गई है किसी राजनेता का समर्थक कहलाना इक ज़ंजीर बन जाती है रिश्ते नाते दोस्त सभी को छोड़ सकते हैं जिस को मसीहा बना बैठे उसका खंजर भी दिखाई नहीं देता है । ज़ालिम ज़ुल्म भी करता है तो भी उस पर जान न्यौछावर करने को जी चाहता है ख़ुद को सौंप दिया उसके रहम ओ करम पर वो चाहे ठोकर भी लगाए प्रशंसक तलवे चाटते हैं । इंसान ऐसा वफ़ादार जाने किस जादू से बन जाता है कि जैसे सर्कस का शेर रिंगमास्टर के कोड़े से घबरा कर उस के इशारों पर कर्तब दिखलाता है दर्शकों का मनोरंजन करने को । सत्ता का चाबुक शासक में अहंकार भर देता है और जनता की करोड़ों की भीड़ उस से भयभीत होकर हर ज़ुल्म ख़ामोशी से सहने को विवश हो जाती है । कमाल ये है कि ये चाबुक खुद जनता ने सौंपा होता है राजनेताओं की चिकनी चुपड़ी बातों पर भरोसा कर के । सुनते थे कभी या शायद आज भी कुछ महिलाएं अपने पति की मारपीट को उचित समझती हैं कि उनको हक है गलती करने पर सबक सिखाने का तभी हर दिन बार बार पिटने के बाद भी मानती हैं कि जैसा भी है मेरा पति मेरा स्वामी है । 
 
लोकतंत्र ने आम जनता को कुछ इसी तरह बेबस कर दिया है कि लोगों को शासक की मनमानी को स्वीकार करना अपनी बदनसीबी नहीं खुशनसीबी लगता है  यही समझते हैं कि किस्मत में यही लिखा था आज़ादी है लेकिन किसी खूंटे से बंधी हुई रस्सी की लम्बाई जितनी । खूंटा किस की हवेली की चारदीवारी में गड़ा है और रस्सी कितनी परिधि तक जाने देती है अपने बस में नहीं होता है कभी चुनाव जीत कर कोई अपने लोगों को विरोधी के आंगन में खूंटे पर बांध देता है । जिसकी लाठी उसकी भैंस यही आधुनिक राजनीति का मंत्र है । जनता कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर बंधी पट्टी के कारण नहीं जान पाती कि वो चलती जा रही है इक तय दायरे में जो उन्होंने बनाया है तेल निकालने को या उसे पीसने को जब तक सहन करते हैं चुपचाप लोग ।   
 

 
 

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