जुलाई 01, 2023

ग़ुलामी को बरकत समझने लगे हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

  मेरा देश बदल रहा है ( शाहंशाह का डायलॉग ) डॉ लोक सेतिया

     टेलीविज़न के पर्दे का जलवा सिनेमा के थिएटर से बढ़कर लगने लगा है । अमिताभ बच्चन जी का वर्चस्व इतना है कि विज्ञापन जगत में उनकी बात का डंका बजता है उनका हर फ़िल्मी डायलॉग असली बोलों पर भारी है । केबीसी का नया विज्ञापन मेरा देश बदल रहा आजकल खूब दिखाई देता है लगता है खेल खेल में निभाई सत्ता से यारी है ये सलोगन शो का लगता इश्तिहार सरकारी है । जय - वीरू की शोले फिल्म में यारी है बसंती तो बसंती धन्नो भी बलिहारी है । उनको मीठी लगती है चाहे कितनी खारी है ये फिल्म नगरी इक तलवार दोधारी है अयोध्या लंका पर भारी है अदालती फ़रमान जारी है ये नई राम कथा लगती इक गारी है । अब अदालत भी सोचने समझने लगी है पलड़े पर रख कर तोलने लगी है जनमत की बात याद आने लगी है या फिर विरासत डगमगाने लगी है । जाने कब से अदालत खामोश तमाशाई बनकर चाहे जो भी होता रहा देख रही थी चौखट पर कौन हैं कौन दरवाज़े के पर्दे के पीछे से इशारा करता है क्या क्या मतलब है कुछ सोच रही थी । अचानक उसको बोलना याद आया है जब बढ़ने लगा कोई काला साया है शायद नहीं किसी ने हिसाब लगाया है मानहानि की बातों से क्या खोया क्या पाया है सच बोलना गुनाह है झूठ खुद पर इतराया है । ग़ालिब कहता है मस्जिद के ज़ेरे साया एक घर बना लिया है , यह बंदा ए कमीना हमसाया ए ख़ुदा है । शोर सुना था देश कब का बदल चुका है इक ढलान पर चलने लगा है संभाले नहीं संभलेगा इतना फिसल चुका है । सियासत ही नहीं इतिहास भी खुद को झूठा साबित करने तक उतर चुका है इतना बदल गया है कि हद से निकल चुका है । आज़ादी का सूरज कब का ढल चुका है किसी का जादू इस कदर असर ला रहा है कि ग़ुलामी को लोग बरकत समझने लगे हैं बशीर बद्र जी की ग़ज़ल याद आई है असीरों को मिलने लगी ऐसी रिहाई है ग़ुलामी सबके दिल को भाई है । इधर विदेश से ढूंढ कर खबर लाते हैं ये साबित करने को कि बाहर वाले हमारे को बड़ा महान बतलाते हैं ये गवाही चाटुकारों की आदत बन गई सियासत बस इक नफरत बन गई है ये देश इतना बदला गया है कि आस्मां धरती को निगल गया है । चलो आपको दो कविताएं पुरानी सुनाते हैं उस के बाद ओबामा जी का घर दिखाते हैं मतलब की बात कुछ नहीं बस मस्ती मनाते हैं जलता है तो जले सब कुछ हम चैन की बंसी बजाते हैं । 

1    दुनिया बदल रहा हूं ( कविता ) 

दुनिया बदल रहा हूं
खुद को ही छल रहा हूं ।

डरने लगा हूं इतना
छुप छुप के चल रहा हूं ।

चलती हवा भी ठण्डी
फिर भी मैं जल रहा हूं ।

क्यों आज ढूंढते हो
गुज़रा मैं कल रहा हूं ।

अब थाम लो मुझे तुम
कब से फिसल रहा हूं ।

लावा दबा हुआ है
ऐसे उबल रहा हूं ।

" तनहा " वहां किसी दिन
   मैं  चार पल रहा हूं । 

 

 2   जाना था कहाँ आ गये कहाँ  ( कविता  )

ढूंढते पहचान अपनी
दुनिया की निगाह में , 

खो गई मंज़िल कहीं 
जाने कब किस राह में , 

सच भुला बैठे सभी हैं
झूठ की इक चाह में ।

आप ले आये हो ये
सब सीपियां किनारों से , 

खोजने थे कुछ मोती
जा के नीचे थाह में ,  

बस ज़रा सा अंतर है 
वाह में और आह में ।

लोग सब जाने लगे
क्यों उसी पनाह में ,

क्यों मज़ा आने लगा
फिर फिर उसी गुनाह में 

मयकदे जा पहुंचे लोग 
जाना था इबादतगाह में । 
 

 



1 टिप्पणी: