जून 18, 2023

कला के सौदागर ( बहती गंगा में नहाना ) डॉ लोक सेतिया

     कला के सौदागर ( बहती गंगा में नहाना ) डॉ लोक सेतिया 

मैंने टीवी चैनेल पर खबरें देखना छोड़ दिया है , जब से उनका मकसद विज्ञापन और अनावश्यक राजनीति धर्म की बहस में उलझा कर दर्शकों को वास्तविकता से भटकाए रखना बन गया है । ' बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते  , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते '। मेरी ग़ज़ल का मतला है  , कभी कभी कोई आपदा विपदा घटना दुर्घटना की जानकारी पाने को टीवी चैनेल पर नज़र चली जाती है कुछ ऐसा ही हुआ कल तो ख़बर पता चली कोई फ़िल्म बनी है भगवान राम को लेकर । एंकर और फ़िल्मकार लगा जैसे इक प्रियोजित बहस का आनंद उठा रहे हैं क्योंकि सबकी बोलती बंद करवाने वाली एंकर खुद थोड़ा नाप तोलकर बोलती दिखाई दी पहली बार । जिस पर फ़िल्म में अनुचित शब्दों का उपयोग करने के आरोप की चर्चा हो रही थी उसका रुख आक्रामक और चोर मचाए शोर की बात को चरितार्थ करता लगा । खुद ही अपना गुणगान करने लगे ये कहकर की उन्होंने क्या खूबसूरत गीत लिखे हैं पंक्तियां बोलीं तो हैरान हुआ कि कई बड़े पुराने गीतों में उपयोग किये शब्दों को अदल बदल कर अपने मौलिक घोषित करने की कोशिश है । अधिक सफाई देने वाले अक़्सर गुनहगार होने का आभास करवाते हैं । कोई बात नहीं ये कोई वास्तविक गंभीर विषय नहीं है असली बात कुछ और है कि वो जनाब अपनी फ़िल्म की आलोचना करने वालों को घोषित कर रहे थे ये वही लोग हैं जो भगवान राम को मानते नहीं हैं आदि आदि । अर्थात टीवी स्टुडियो में बैठ कर आप अपनी बात की सफाई नहीं दे कर आरोप लगाने वालों पर लांछन लगाने की बात कर रहे थे । उनको गर्व था जिस भी किरदार को महान या नीचा दिखाना चाहें उनका अधिकार है लेकिन उनको कोई ये नहीं पूछता कि फिर आप कोई नई कथा कहानी क्यों नहीं लिखते किसलिए पुरानी लिखी हुई कथाओं से जो जहां से आपको सुविधा जनक लगी उठा ली और कह दिया कथावाचकों से रामलीला से आपने ऐसा सुना हुआ है । ये कमाल की बात है अजीब तौर है कि आप आरोपी भी गवाह भी और वकालत से लेकर फैसला करने वाले न्यायधीश भी खुद ही बन बैठे । यही चलन सबसे ख़तरनाक है जो इधर चल पड़ा है ।  
 
आजकल बड़े बड़े कलाकार सत्ता की चौख़ट पर गर्दन झुकाए अनुकंपा की आस लगाए हैं मगर नहीं जानते कि सत्ता कभी किसी पर रहम नहीं करती है आज किसी की बारी है तो कल आपकी भी बारी आएगी । जो आज किसी शासक को बड़ा साबित करने को पिछले शासक को बौना साबित करने को साहित्य और इतिहास से छेड़छाड़ करते हैं क्या कल उनकी लिखी बात कोई बदलेगा कभी तो खुद वो भी शासक के साथ कटघरे में खड़े नज़र नहीं आएंगे । सच लिखना साहस का काम है चाटुकारिता तो ग़ुलामी की निशानी है । कला को बेचने वाले अभिनेता लेखक फ़िल्मकार खुद को बड़ा छोटा बना लेते हैं चंद सोने चांदी के सिक्कों या कोई ईनाम पुरूस्कार पद की लालसा में । वास्तविक मकसद छूट जाता है समाज को सही मार्गदर्शन देने का , क्या कल्पना लोक की कथाओं कहानियों जैसे झूठे किरदार दिखला कर दर्शकों का मनोरंजन कर रहे हैं या उनको गुमराह कर रहे हैं । धार्मिक कथाओं ने लोगों को कायर बना दिया है और सभी अन्याय अत्याचार ख़ामोशी से सहते हैं ये मानकर कि कोई मसीहा आएगा उनको इंसाफ़ दिलाने और बचाने इक दिन । रावण की कमियां ढूंढना चाहते हैं तो राम को भी कसौटी पर खरा साबित करने की कोशिश करते , क्या पत्नी की अग्निपरीक्षा और त्याग करना  बन भेजना राजा या पति का न्याय होना चाहिए । आज इनकी उपयोगकिता कितनी है और आधुनिक संदर्भ में कितनी सार्थक है । अपने समय की बात को भूलकर पुरातन काल के यशोगीत गाना भविष्य को संवारता नहीं है जानते हैं इतना सभी लोकतंत्र में जनता की छोड़ शासक की बात करना किसी अपराध से कम नहीं है । कल्पनाशीलता का आभाव है जो आप अपने इस  समय की बात कहने का साहस तक नहीं करते और खुद भी उलझे हुए हैं सबको उलझाने की कोशिश करते हैं ।  
 
सबसे अधिक विडंबना की बात ये है कि अभिनेता खिलाड़ी धर्म-उपदेशक  फ़िल्मकार संगीत निर्देशक से समाजसेवक तक सभी पर्दे पर सार्वजनिक मंच पर जो किरदार दिखाई देता है वास्तविक जीवन में उस के विपरीत आचरण करते पाए जाते हैं तब भी शर्मसार नहीं होते है । कभी साहित्य राजनेताओं को गिरने से संभालता था सभी ने सुना होगा इक दिन इक बड़े राजनेता सत्ता के भवन की सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते गिरने लगे तब इक जाने माने साहित्यकार ने उनको थाम लिया था , धन्यवाद करने लगे तो लिखने वाले ने कहा था ये तो उनका कार्य ही है जब भी राजनीति फ़िसलती है साहित्य उसको संभालता है । अब वो बात नहीं है शायद उल्टा होने लगा है राजनीति ने साहित्य को अपने माया जाल में उलझा दिया है । आधुनिक फिल्म टीवी सीरियल आपको आदर्शवादी नहीं बनाते बल्कि हिंसक और चरित्रहीन बनाने का कार्य करने लगे हैं । आजकल इनको नंगा होने पर शर्म नहीं आती नग्नता को अपनी पहचान बना उस पर गौरान्वित हैं । कभी किसी ने सोचा तक नहीं कि क्यों आधुनिक काल की वास्तविक समाजिक समस्याओं विसंगतियों विडंबनाओं पर कोई उपन्यास कोई कहानी कोई फिल्म कोई टीवी सीरियल बनाया नहीं जाता है । कितना बासी भोजन कब तक परोसा जाता रहेगा और देश समाज को और बीमार करते रहेंगे । 
 


 

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