मई 22, 2023

संगदिल लोग क्या जाने ( शीशा-दिल हम ) डॉ लोक सेतिया

        संगदिल लोग क्या जाने ( शीशा-दिल हम  ) डॉ लोक सेतिया

   इक नज़्म से बात की शुरुआत करते हैं , मुझसे दोस्ती करना चाहते हैं अगर आप तो समझ लेना ।  
 
दोस्त मुझे अपना बनाने से पहले  
मुझे जान लेना भूल जाने से पहले ।

ये जीने का अंदाज़ सीखो मुझसे 
मर जाना नहीं मौत आने से पहले । 

कभी आ भी आओ साथ मिलकर 
कदम दो कदम चलें हम दोनों भी 

गले से लगा लो बताओ सुनो भी 
हाल ए दिल छोड़ जाने से पहले । 

दुनिया अजब है हैं दस्तूर निराले 
हैं लिबास सफेद और दिल काले 

चलों अश्कों की बारिश में भीगें 
मिल के दोनों मुस्कुराने से पहले । 

शिकवे गिले यारो मुझ से कर लो 
जितने भी अरमान बाकी कहो तुम 

छुपाके दिल में शिकायत न रखना 
मेरी अर्थी को फिर उठाने से पहले । 

कुछ मीठी कुछ कड़वी कुछ बातें 
हंसती रुलाती कई यादें करना याद 

मेरे मज़ार पर शमां जलाकर मुझपे 
फूलों की इक चादर चढ़ाने से पहले । 

यही वक़्त है दो चार घड़ी हमारा 
सुनाओ कहानी तुम अपनी ज़ुबानी 

कोई और किस्सा नई बात कोई 
कहो उनके भूल जाने से पहले ।

मुहब्बत ईबादत प्यार दोस्ती है 
इसी को कहते हैं जी रहे हैं हम 

मिलके जियो जीने के लिए अब तो 
मिलो ज़िंदगी से मर जाने से पहले ।

  कोई किसी की ख़ातिर परेशान नहीं होता है लोग मुझ से नहीं ख़ुद से अनजान हैं नाहक परेशान हैं । आपके फूलों के बाग़ हैं घर में सजाए गुलदान हैं फिर भी ज़िंदगी के चेहरे मुरझाए मुरझाए रहते हैं अपनी शक़्ल देख आईने में हुए परेशान हैं । अपना क्या सीधे सादे लोग हैं आपकी दुनिया से अनजान हैं अजनबी दुनिया में अपनी धुन में अपनी मौज अपनी मस्ती से जीते हैं उनसे नहीं मतलब जो झूठी शान हैं नाम वालों में हम बड़े बदनाम हैं । नाम कुछ भी ज़माने में हर नाम के कितने हमनाम हैं अपने आप को ख़ास कहते हैं जो समझते खुद को महान हैं उनको क्या खबर आम होना नहीं आसान आम अनमोल हैं नहीं मिलते बाजार में बेदाम हैं । 
दर्पण जैसे लोग होते हैं जो ज़माने की सच्ची बातें लिखते हैं आपको लगता है अपनी बात कहते हैं पर वो तो सबकी इसकी उसकी आपकी बात करते हैं कोई आईना ख़ुद को नहीं देखता उस में दिखाई देता है जो भी सामने खड़ा होता है । जिनको अपनी सूरत छिपानी पड़ती है उनको दर्पण के सामने से हट जाना चाहिए । संगदिल लोग पत्थर फैंकते हैं दर्पण को चूर चूर करते हैं नादान नहीं जानते आईना तोड़ने से उनकी शक़्ल सूरत रंग नहीं बदलता है । वक़्त रुकता नहीं किसी की इंतज़ार में समय से अलग दौड़ने वाला इक दिन हाथ मलता है आधा भरा हमेशा उछलता है समझदार वक़्त के साथ खुद को बदलता है उसकी रफ़्तार से कदम मिलाकर चलता है । किरदार वही रहता अंदाज़ नहीं बदलता है समझदार चेहरे को साफ़ करता है बार बार आईने नहीं बदलता है । किस किस को क्या क्या समझाए कोई , दुनिया को फुर्सत कहां , चलो  कुछ अपनी ग़ज़ल  से खुद ही से बात करते हैं ।
 
सच जो कहने लगा हूं मैं
सबको लगता बुरा हूं मैं ।

अब है जंज़ीर पैरों में
पर कभी खुद चला हूं मैं ।

बंद था घर का दरवाज़ा
जब कभी घर गया हूं मैं ।

अब सुनाओ मुझे लोरी
रात भर का जगा हूं मैं ।

अब नहीं लौटना मुझको
छोड़ कर सब चला हूं मैं ।

आप मत उससे मिलवाना
ज़िंदगी से डरा हूं मैं ।

सोच कर मैं ये हैरां हूं
कैसे "तनहा" जिया हूं मैं ।
 

 

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