अप्रैल 21, 2023

बोझ ढोते झूठी विरासत का ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

     बोझ ढोते झूठी विरासत का ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया 

ख़ुद आप क्या विरासत छोड़ जाओगे , सोचने लगे तो घबरा जाओगे । पाया क्या क्या खोया अपने गणित में उलझ कर शून्य अंक से आगे बढ़ नहीं सकोगे झूठी बातों को सच समझते समझते झूठों की सरकार कहलाओगे । जिस झूठी विरासत का बोझ ढोते ढोते हम मरते हैं जी नहीं सकते उस की असलियत कब तक खुद से हर किसी से छुपाओगे । ज़िंदगी भर इंसान भी नहीं बन कर रहे शैतान को भी मात देते रहे बाद मरने फ़रिश्ता कहलाने की आरज़ू में अपने चेहरे पर कितने नकाब लगाओगे कभी आईना देख लिया तो अपनी सूरत नहीं पहचान पाओगे । जिसे देखो बताता है हमें यही विरासत मिली है उसी को आगे बढ़ाना है मानो कोई बड़ा अनमोल खज़ाना है छुपाना है कि दिखाना है । अंधों की बस्ती है राजा है जो काना है , दुनिया अंधेर नगरी है , हमने अंधों को अपना इतिहास पढ़वाना है । जो उल्लू बनाता है ज़माने को इक वही बस स्याना है । 

  हम ख़ानदानी लोग हैं ख़ुशनसीब हैं नाम वाले हैं चाहे कितने ही बदनाम हैं , आम लोग झूठे मक्क़ार दगेबाज़ बेईमान हैं हम सब गुनाह कर के भी नादान हैं अपनी आन बान शान है । बड़े लोगों के बाबूजी होते थे बाक़ी के पिताजी बापू की बात क्या औकात क्या सूखा और बरसात क्या । कोई बताता है उनकी दरबार में बड़ी ऊंची शान थी ज़मींदार साहिब की अपनी ज़ुबान थी अंग्रेजी हुकूमत से मिला ख़िताब था नवाब साहिब का रुतबा जनाब था । ख़ास लोग अपने से बड़े कद वालों के सामने सर झुकाते हैं तलवे चाटते हैं हैसियत बढ़ाते हैं । ये बात कोई नहीं जानता सब से छुपाते हैं छुपते छुपाते बदनाम गलियों में जाते हैं शराफ़त को छोड़ जो भी चाहे करते हैं गुलछर्रे उड़ाते हैं । अंधेरों में जीते हैं उजालों से नज़र बचाते हैं हम रसूख़दार लोग सब पर हुक़्म चलाते हैं पर अक्सर किसी आहट से डर कर अपने ही पिंजरे में क़ैद होकर ज़िंदगी बिताते हैं । अपनी तथाकथित झूठी विरासत के गुणगान करने वाले बेहद मतलबी और स्वार्थी ही नहीं होते बल्कि वक़्त आने पर गधे को बाप और बाप को गधा बना सकते हैं । शूरवीरता के किस्से सुनाने वाले सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस नहीं दिखलाते और हवा का रुख देख बदल जाते हैं । आपको इक ताज़ा ग़ज़ल सुनाते हैं क्योंकि समझदार इशारों को समझ जाते हैं ।  

                                   ग़ज़ल

विरासत बोझ बनती जा रही है 
सियासत बस यही समझा रही है ।  

करेंगे ज़ुल्म  दहशतगर सभी पर 
वो चुप रहने के गुर सिखला रही है । 

सभी भूखे मनाओ मिल के खुशियां 
हां सबको याद नानी आ रही है । 

नचाती सबको तिगनी नाच सत्ता 
वीभस्त राग सुर में गा रही है । 

हुक्मरानों की बातें राज़ हैं सब 
बुढ़ापों पर जवानी छा रही है । 

थी जनता आ गई झांसों में उनके 
उन्हें दे वोट खुद पछता रही है । 

करो मत बात आदर्शों की  ' तनहा '
रसातल तक पहुंचती जा रही है । 
 

 

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