सूरज के आसन पर घने अंधेरे बैठे हैं ( मातम की बात ) डॉ लोक सेतिया
कैफ़ी आज़मी की ग़ज़ल पढ़ते हैं। अफ़सोसजनक हालत ये नहीं कि आदमी नहीं रोना तो इस बात का है कि इंसान ही नहीं मिलते इंसानियत की क्या बात की जाये।
मैं ढूंढता हूं जिसे वो जहां नहीं मिलता , नई ज़मीन नया आस्मां नहीं मिलता।
नई ज़मीन नया आस्मां भी मिल जाये , नये बशर का कहीं कुछ निशां नहीं मिलता।
वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा , किसी के हाथ का उस पर निशां नहीं मिलता।
वो मेरा गांव है वो मेरे गांव के चूल्हे , कि जिन में शोले तो शोले धुआं नहीं मिलता।
खड़ा हूं कब से मैं चेहरों के एक जंगल में , तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहां नहीं मिलता।
जो इक खुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूं , यहां तो कोई मेरा हमज़बां नहीं मिलता।
इस दर्द की गहराई को फिर से महसूस किया कल देश की सर्वोच्च अदालत की वास्तविकता को जानकर। जाने क्यों रात भर दिमाग़ को बेचैनी रही अफ़सोस हुआ ये दोहा याद आया बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर , पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर। किसान क्या समझ रहे थे मालूम नहीं मगर हम समझ रहे थे अंधेरी कोठड़ी में कोई रोशनदान है शायद। जिनसे उजाले की उम्मीद कर रहे थे अंधियारे के पुजारी निकले। अदालत को उनके दुःख दर्द की चिंता नहीं है चिंता है कहीं दिल्ली की नींद में खलल नहीं पड़ जाये कहीं उनका सालाना जश्न का मज़ा किरकिरा नहीं हो जाए राजपथ पर झूठी शान ताकत का दिलकश नज़ारा फ़ीका नहीं पड़ जाये। नहीं न्यायपालिका को न्याय की चिंता नहीं इंसाफ़ की परवाह नहीं अपने दामन पर बेगुनाहों के क़त्ल के खून का धब्बे लगने का डर है। ये बज़ुर्ग महिलाएं बच्चे राजधानी में खुले आसमान तले जान हथेली पर रख कर जीने का अधिकार नहीं मांगें घर वापस जाकर गांव में बेशक मरते रहें ख़ुदकुशी करते रहें। ये शब्द उनकी बेरहमी से बढ़कर कठोर नहीं हैं। ये जले पर नमक छिड़कने वाले संवेदना रहित उच्च वर्ग के लोग हैं जिनके पास सब कुछ है मगर जिनके पास कुछ भी नहीं उनके लिए दिल में हमदर्दी तो क्या इंसानियत की भावना तक नहीं है।
सरकार से उम्मीद की जाती है देशवासियों की समानता और उनके लिए न्यायपूर्ण आचरण की मगर उनका सत्ता का अहंकार और जो मर्ज़ी करने की तानाशाही सोच उनको गलत दिशा से कदम पीछे हटाने नहीं देती है। ये कविता याद आई तो लगा सामयिक है। ये पढ़े लिखे जानकर लोग बताएं।
" समर
शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनके भी
अपराध" रामधारी सिंह दिनकर की इन पँक्तियों को आप आज के सन्दर्भ में कैसे
परिभाषित करेंगे ?
सदालत को नहीं समझ आया था सरकार समस्या है या समाधान चाहने वाली है। खुद अदालत ने उपाय ढूंढ लिया है ज़हरीला नाग भी ज़िंदा रहे उसको अपनी हिफ़ाज़त में अपने पिटारे में बंद रखा है और जिनके हाथ लाठी है उनको लाठी की ज़रूरत नहीं समझाया है। सांप मर जाये लाठी भी नहीं टूटे की कहावत बदल गई है नाग देवता उनकी बीन पर नाच कर तमाशा दिखलाएंगे। लाठी छोड़ लोग ताली बजाएंगे। 26 जनवरी को सब देश्बक्ति वाले गीत गाकर देशभक्त कहलाएंगे। देश में जो भी होता रहे उस वास्तविकता से नज़रें चुराएंगे जश्न मनाकर लड्डू खाएंगे। दर्द को और बढ़ाकर सरकार जनाब मुस्कुराएंगे।
सच है।
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