इस फटकार में दुलार है ( सीधी बात ) डॉ लोक सेतिया
सरपंच साहब की सरपंची कब की नाम की है बिगड़ी औलाद ने सब चौपट कर दिया है। अब खुले आम सरपंच जी कहते हैं बेटा जी मान भी जाओ खुद ही आवारगी छोड़ दो अच्छा है नहीं तो मुझे कुछ करना पड़ सकता है। रोने वालों को रोने दो। सरपंच जानते हैं उनको सरपंच बनाया उसी ने है अपने इशारों पर नचाने को। एक दूसरे के कारनामे दोनों जानते हैं दिल से दिल मिलने की बात है। जब लगा कहीं सरपंच की सरपंची खतरे में नहीं पड़ जाए तब इंसाफ और शराफत की चादर ओढ़नी ज़रूरी है। पंचायत में फटकार देकर घर में पुचकारना दुलारना पड़ता है। सरपंच को इंसाफ की चिंता नहीं है चिंता है बेटे से संभलता नहीं कुछ भी उसकी नादानी नाकामी बन जाये उस से पहले कोई बचाव का ढंग निकालना है। मन से अपनों के हैं दिखावा करना है गैरों के साथ हमदर्दी जतलाना चाहते हैं। इस देश में अजब ढंग है अदालत निर्णय नहीं करती फैसले करती है समझौता करवाती है दोनों पक्षों में जुर्म की सज़ा नहीं मुआवज़ा देने का काम करवाना पुलिस वाले पंचायत किया करते थे अब सबसे बड़ी अदालत चाहती है सांप भी ज़िंदा रहे और लाठी भी सलामत रहे। आस्तीन में सांप पालने का चलन है।
ये राजनीति नहीं है आजकल नीतिविहीन लोग सत्ता को भगवान समझते हैं गधे को बाप बनाना क्या है बाप को गधा समझते हैं। ये बेटा जब से सब कुछ हाथ लगा है तोड़ने फोड़ने बर्बाद करने का ही काम किया है। खुद को बाप दादा से बड़ा और समझदार होने का अहंकार रखता है जब तक उसकी मनमानी चलती रही बाप कानून की देवी बनकर आंखों पर पट्टी बांध गंधारी का कर्तव्य निभाती रही। सामने महाभारत खड़ा है और अधर्म के अंत को सामने देख कर बाप बेटे को रोकता नहीं बचाव करता है सबके सामने प्यार भरी चपेड़ लगाता है नटखट कहीं का ये शरारत करना बंद करता है कि नहीं। सरकार कहती है अभी कुछ दिन आपको खामोश रहकर तमाशाई बन रहना है। बाप को लगता है उसके और सभी शासक वर्ग के दामन पर किसी का लहू नहीं लग जाए। अभी तक जैसे गरीबों का लहू नहीं पानी बहता रहा है। जनाब ये खून के धब्बे हैं कोई राजनेताओं पर लगे घोटाले के दाग़ नहीं जिनको आपने धोकर बेदाग़ ही नहीं चमकदार सफेदी घोषित किया है। इन पर पिछले साल के दंगों के दाग़ ही नहीं बीस साल पहले के दंगों के दाग़ के निशान बाकी हैं। बात नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली है। पापों की गठड़ी बांधी है किस किस जुर्म पर चुप्पी साधे रहे बस चिंता हुई तो जब किसी ने आपकी असलियत बिना झिझके सभी के सामने खोल दी। आपका अपमान किया और माफ़ी भी नहीं मांगी तब खुद एक रुपया कीमत लगाई जुर्माना किया तो फज़ीयत करवा ली। हौंसला सच के साथ खड़े होने से मिलता है झूठ का गुणगान करने से ताकत नहीं कमज़ोरी बेबसी का पता चलता है।
नाम बड़े और दर्शन छोटे जैसा हाल है। बाप कहलाने से क्या फायदा जब बाप को ठोकर पर रखता है वही जो जानता है बाप का बाप होना उसी की बदौलत है। हमारे इक चाचा जी कहते थे किसी मां ने अपने बेटे को कहा मैंने तुझे जन्म दिया पाला पोसा खिलाया पिलाया तुझे मेरा उपकार समझना चाहिए। बेटा बोला मां जब तुम जन्म दे रही थी तब दो पल भी मैं तेरी कोख से बाहर नहीं निकलता तो तेरी जान पर बन आती , मेरा एहसान है जो आराम से आसानी से जन्म लेकर तेरी जान बचाई थी। कम से कम देश की राजनीति में यही विचारधारा दिखाई देने लगी है सत्ता पाकर जिन्होंने कुर्सी पर बिठाया उन्हीं को औकात बताने लगते हैं। अच्छा है बूढ़े बाप की तरह सरपंच जी खामोश रहते जो करने का हौसला नहीं उसकी बात की धमकी देकर खुद को बेनकाब नहीं करते। जिनके घर शीशे के होते हैं वो औरों पर पत्थर नहीं फैंका करते। महाभारत में दोषी कितने लोग थे जिन्होंने अपनी निष्ठा देश के लिए नहीं सत्ता और सिंघासन के लिए बंधक रख छोड़ी थी। चलो कुछ समझते हैं इक ग़ज़ल को पढ़ते हैं।
बहती इंसाफ की हर ओर यहां गंगा है ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
बहती इंसाफ की हर ओर यहां गंगा हैजो नहाये न कभी इसमें वही चंगा है।
वह अगर लाठियां बरसायें तो कानून है ये
हाथ अगर उसका छुएं आप तो वो दंगा है।
महकमा आप कोई जा के कभी तो देखें
जो भी है शख्स उस हम्माम में वो नंगा है।
ये स्याही के हैं धब्बे जो लगे उस पर
दामन इंसाफ का या खून से यूँ रंगा है।
आईना उनको दिखाना तो है उनकी तौहीन
और सच बोलें तो हो जाता वहां पंगा है।
उसमें आईन नहीं फिर भी सुरक्षित शायद
उस इमारत पे हमारा है वो जो झंडा है।
उसको सच बोलने की कोई सज़ा हो तजवीज़
"लोक" राजा को वो कहता है निपट नंगा है।
कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता है :-
Bahut sahi
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