अप्रैल 03, 2020

सवालों से भागते लोग ( आईने के सामने ) डॉ लोक सेतिया

   सवालों से भागते लोग ( आईने के सामने ) डॉ लोक सेतिया 

अब जब देश समाज अन्य विश्व के साथ इक ऐसे कठिन दौर में खड़ा है तब आरोप आक्षेप लगाना सही नहीं मगर क्या हमको वास्तविकता को समझने की ज़रूरत भी होनी नहीं चाहिए। बहुत मुमकिन है ऐसे में कुछ लोग वास्तविक धर्म और धर्म के नाम पर आडंबर का अंतर समझना चाहते। जब ये सवाल खड़े होने संभव थे कि जिन भी तमाम धर्म के पूजा अर्चना इबादत के स्थलों पर ईश्वर के होने का विश्वास करते हैं और सोचते हैं उनकी पूजा अर्चना इबादत से सभी कष्ट दूर हो सकते है और सब सुख हासिल हो सकते हैं उनकी स्तुति चढ़ावा अन्य बातें करने से। समझ आने लगा था उनकी वास्तविकता कुछ और ही है और इस से आगे जो सवाल उठ सकते थे वो धर्म और अंधविश्वास की परतें खोल सकते थे जिस से धार्मिक भावनाओं का उपयोग अपने मकसद से करने वाले के स्वार्थ को क्षति हो सकती थी अगर लोग विचार करते कि उन सभी को जिन जिन लोगों ने भी धन वैभव और सोने चांदी हीरे जवाहरात अर्पित किये अगर सच्चे धर्म की राह पर दीन दुखिओं की सहायता और अच्छे सामाजिक कार्यों पर व्यय किये गए होते तो अधिक सार्थकता होती। 

शिक्षित आधुनिक विवेकशील धर्मों के बनाये जाल से उनके चंगुल से निकलते और विज्ञान और विचार एवं तर्क की कसौटी पर परखते तो मुमकिन था किसी अंधे कुंवे से निकलते और रौशनी और हवा आज़ादी को जान पाते। मगर ऐसे में जिनको डर था कि देश की जागरूक जनता धर्म वालों से सवाल करे या नहीं उनसे तो सवाल कर ही सकती है कि कल तक आप देश को विश्वगुरु और आर्थिक शक्ति और महानता का डंका बजने का दावा करते थे और आज बताते हैं कि इस विपत्ति कठिन समय हम कितना पीछे हैं स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर। क्या ऐसे में इतने साल तक तमाम आडंबर करने और झूठी शानो शौकत पर धन बर्बाद करने का अपराध नहीं किया जाता रहा है। अभी भी आपको आम नागरिक को बुनियादी स्वास्थ्य और शिक्षा की सेवाएं उपलब्ध करवाने से अधिक महत्व अनावश्यक अपने गुणगान और अहंकार के दिखावे पर पैसा खर्च करना सही लगता है। 

ऐसे में जैसे कोई नासमझ बच्चों को बहलाने को खेल तमाशे करता है अपने अपने दूरदर्शन के बंद बक्से से धर्म के नाम वाले टीवी सीरीयल दिखाने का कार्य शुरू किया है जिस से खाली समय अपने सामने खड़े सवालों से टकराने की जगह ऐसी कथा कहानियों में गुम हो जाएं जिनसे उनको अपनी बदहाली किसी सरकार या योजनाओं की गलती नहीं और अपने भाग्य की रेखाओं और दुर्भाग्य या किस्मत को समझने लगें।  अपनी वास्तविकता से नज़र चुराना लगता है।

अब अगर रामायण की बात करनी है तो सबसे पहले भारत देश और राज्यों के सत्ताधारी नेताओं को उसको देखना समझना चाहिए। राम दशरथ के बेटे राजकुमार हैं फिर भी सत्ता का कोई मोह नहीं और आदर्श की राह पर महल शासन करने का त्याग करते तनिक भी विचलित नहीं होते जबकि तथकथित राम के अनुयायी सत्ता की खातिर हर मर्यादा को ताक पर रखते हैं। आज जब विषय होना चाहिए था सत्ता पाकर किस ने देश की जनता को शिक्षा स्वास्थ्य बुनियादी सुविधाओं में क्या उपलब्ध करवाया और कैसे अपने आडंबर और अपनी महत्वांक्षाओं को हासिल करने पर देश विदेश घूमने और अपने रहन सहन गुणगान पर गरीब देश की जनता का धन बर्बाद किया , तब इक माहमारी में ऐसे शासक का गुणगान किया जाने लगा है इसको भी इक अवसर बनाया गया है। शायद ही किसी ने अपनी माता के नाम पर राजनितिक फायदा उठाने का कार्य किया हो मगर इक तरफ कहने को घर परिवार छोड़ने का दम भरते हैं साथ ही माता के नाम का उपयोग किसी न किसी तरह किया जाता है।

केवल भारत ही नहीं विश्व भर में सत्ताधारी शासकों का आचरण विश्व कल्याण की बातें ही करने और वास्तव में निरंकुशता और ताकत का गलत उपयोग विश्व को विनाश की राह पर धकेलने का रहा है। कहीं न कहीं उनके अनुचित कर्मों का नतीजा बेकसूर नागरिक बेबस होकर हर दिन समस्याओं से घिरे हुए हैं। राम तो कहीं दिखाई नहीं देते मगर रावण जैसा अहंकार कितने शासकों में नज़र आता है। देश की संस्थाओं को पंगु बनाने उनको अपनी कठपुतली बनाने और संविधान न्यायपालिका के साथ मनमानी करने जैसे कार्य करते कोई संकोच नहीं किया गया और आलोचना या वास्तविकता दिखलाना जान जोखिम में डालना लगता है। मगर अभी भी लगता नहीं कोई देश और समाज की वास्तव में भलाई करने को अपनी पिछली गलतियों को सुधारना चाहेगा और मंदिरों मूर्तियों पर धन बर्बाद करना बंद कर देश की गरीब जनता को शिक्षा स्वास्थ्य खाने को रोटी रहने को घर पीने को पानी उपलब्ध करवाने को अधिक महत्व देगा। और सबसे बड़ा जो अपराध लोकतंत्र के नाम पर जनसेवकों का राजसी जीवन जीने पर देश के खज़ाने को लूटने का चलन चलता रहा है और सांसद विधायक अधिकारी किसी महाराजा जैसा जीवन बिताते रहे हैं और देश के वास्तविक मालिक नागरिक भूखे नंगे बेबस बना दिए गए जो अपने ही सेवकों के सामने हाथ फैलाये भीख मांगते नज़र आते हैं उसको बदलना होगा। अब रामायण का अर्थ जनता को अंधविश्वास के लिए नहीं इन शासन करने वालों को अपने भीतर झांकने को करना होगा।

जिसको शायद सरकार जवाब समझ रही थी असल में वही रामायण महाभारत और भी कठिन सवाल बनकर सामने है क्योंकि अब लोग सोचने लगे हैं समझने लगे हैं और समय आ गया है जब बोलने भी लगेंगे। 
 

 

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