प्यास नहीं पीने को बहुत है ( आजकल का समाज ) डॉ लोक सेतिया
हर साल की तरह इस साल भी विचार करने लगा बीत रहे साल क्या पाया क्या खो दिया और भले निभा नहीं सकूंगा अगले वर्ष का संकल्प क्या होना चाहिए। पहली बात समझ आई सोशल मीडिया फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर समाज की देश की गंभीर जागरूकता की बात करना। बचपन की सुनी बात याद आई कि आप हम या कोई भी बैल को तालाब पर ले जा सकता है मगर छी-छी कहने से पानी नहीं पिला सकते हैं। जिनको नहीं मालूम उनको बता देता हूं गांव में जानवरों को पानी के पास ले जाकर छी-छी बोलते हैं ताकि जानवर को इशारे से समझाया जा सके कि पानी पिओ। बात आजकल की है तो आजकल की तरह समझनी होगी , बाहर अंट शंट चाट पकोड़े जिसको गंद शंद कहते हैं चाव से खाते हैं पेट भरने से भी दिल नहीं भरता है और फिर कहते हैं थोड़ा ज़्यादा भर गया पेट आज अब कोई हज़्म करने को पाचक भी लेना होगा। यही हालत आजकल सभी लोगों की है अनाप-शनाप बोलते पढ़ते लिखते हैं व्यर्थ की बहस और अपने को जानकर साबित करने अन्य को मूर्ख अज्ञानी समझने की मानसिकता बन गई इसलिए भौंकते हैं सुनाई कुछ नहीं देता। ऐसे शोर में सार्थक संवाद संभव नहीं तभी सोचा है जिनको प्यास नहीं उनको पीने की बात कहना बंद यही अगले साल का संकल्प है।
मुझे सबसे अधिक प्यार जिन से है और जिनसे सच्चा प्यार मिला और जिनसे बहुत सीखा समझा जाना वो हैं मेरे दादाजी झंडारामजी और मां माया देवी जी। विशेष बात है दोनों को हमेशा अपने पर भरोसा रखते हुए देखा और जीवन की विषम समस्याओं में भी घबराते नहीं पाया। क्या लोग थे आज उनकी याद भी मुझे इक आशावादी एहसास देती है। जबकि उन दोनों का जीवन बेहद कठिन हालात में रहा होगा। दादजी दस साल के थे जब पिता का साया सर से उठ गया और मां को बचपन में कोई रोग माता का जैसा कहते हैं लगने से उनकी आवाज़ और सुनाई देने की शक्ति कम हो गई थी। उनकी शादी करने के बाद मायके के नाते रिश्ते नाम को साथ थे इक मामाजी और मामीजी को छोड़कर। हमारे घर अर्थात ससुराल में दादाजी की छोटी बहु का रुतबा किसी असहाय और खामोश गाय की तरह था। पिता जी अवश्व उनका ख्याल रखते थे मगर उन्होंने कभी नहीं समझना चाहा उनकी पत्नी को घर में समानता बराबरी का अधिकार नहीं मिलता है। शायद उनकी काबलियत जानकर भी काबिल समझना नहीं चाहते थे लोग। फिर भी मां को शायद ही कभी किसी से तकरार करते देखा उदास नहीं देखा हमेशा इक सहज मुस्कान उनके चेहरे पर रहती थी। मैंने इक बार उनकी आंखों में आंसू देखे थे मगर तब भी उन्होंने मुझे कारण नहीं बताया था। किसी की बुराई करते नहीं देखा उनको अपने बच्चों से शिकायत भी हंसते हुए लहज़े में करती थी , तुम्हें नहीं मिलती फुर्सत कि बहु ने मिलने आने नहीं दिया और हंस देती। अपनी दो बहुओं से कभी कोई तीखी बात जीवन भर नहीं की आज भी दोनों याद करती हैं उनके सासु मां बड़ी मधुर सवभाव की महिला थी।
मां 80 साल से अधिक जीवन जिया और बड़ी शान से रही हमेशा। सभी बच्चे दिल से चाहते थे और उनकी हर बात आदेश समझ प्यार से मानते थे। अपने व्यवहार से अपने घर को बिना आदेश देने की आदत घर की महारानी जैसा रुतबा पा लिया था। जबकि विवाह कर आई थी जैसे कोई वजूद ही नहीं था। मां चिट्ठी लिखती थी अर्थात पढ़ी लिखी थी और गाया करती थी इक भजन जो अपने आप में इक मिसाल था। मैंने याद कर उस भजन को लिखा हुआ है ब्लॉग पर , उस भजन जैसा कोई और भजन मैंने नहीं सुना आज तक। भगवन बनकर अभिमान न कर तेरा मान बढ़ाया भक्तों ने। तुझे भगवान बनाया है भक्तों ने। कोई ऐसे कह सकता है ईश्वर है इस बात पर अकड़ना मत तुझे मानते हैं हम तभी है ये ध्यान रखना। शायद सच्चा आस्तिक और भक्त जिसे पूर्ण विश्वास हो वही कह सकता है। कोई डर नहीं घबराहट नहीं जैसे अपने करीबी दोस्त बेहद अपने से प्यार से बात करते हैं। उनको धागे से कुरेशिये से कितनी तरह के रुमाल बनाने की बड़ी खूबसूरत कला आती थी जो कम महिलाओं को आती थी और इतने लाजवाब ढंग डिज़ाईन कि हर कोई कहता था चाची जी मुझे भी बना दो और सबकी चाची उनको बना देती थी महीने लगते थे। भोली थी और लोग भोलेपन को नासमझी समझने की भूल करते हैं मगर हम हैरान हो जाते थे जब जो पुरानी बात किसी को याद नहीं होती वो बताती थी ये उस दिन उस जगह उस तारीख़ की बात है। मिला जुला संयुक्त परिवार था और बारह भाई बहन की सबकी जन्म की तिथि बताती थी और बचपन की बातें भी। मेरा भरोसा है और दावा भी कि दुनिया में कोई भी ऐसा नहीं हो सकता जो ये कह सके कि मेरी मां ने कभी उसके या किसी के साथ कोई अनुचित व्यवहार किया हो। इस से बढ़कर तपस्या नहीं हो सकती कि भले आपके साथ किसी ने कैसा भी अच्छा बुरा किया हो अपने कभी मन में कोई भेदभाव की भावना नहीं रखी हो।
दादाजी भी 90 साल से अधिक जीवन जिया और बड़ी शान से रहे किसी शहंशाह की तरह। उनकी विशेषता थी बच्चों को भी नाम के साथ जी कहकर बुलाते थे। आवाज़ ऊंची शायद ही कभी होती मगर बात का असर कमाल का हुआ करता था। घर की बैठक या गांव की डयोढ़ी में बैठे होते तो हर कोई पांव छूकर आदर से दादजी नमस्कार कहते हुए भीतर जाता , कोई महमान आये जो रोज़ की बात थी तो बिना खाना नहीं जाने देते थे। अपने दम पर और अपने उसूलों पर चलकर बहुत बनाया मगर हर किसी को बांटते रहते थे। जाने कितने करीबी क्या दूर दराज के नाते रिश्ते वाले आये और बोला दादाजी कोई कमाई का साधन नहीं और उनको नौकर चाकर नहीं भागीदार बनाते गए। बहुत बार लोग धोखा देकर भाग जाते तब भी कोई शिकन नहीं आती थी माथे पर बस कहते उसका नसीब था जो ले गया। तायाजी और पिताजी को आदेश था जो बेईमानी कर चले गए कभी मिलें तो कोई बात नहीं कहना न वापस मांगना। और दोनों भाईओं ने ये बात हमेशा याद रखी निभाई भी। दादजी स्कूल नहीं गए थे मगर उनको इक भाषा जिसको लंडे कहते हैं लिखनी आती थी और हिसाब चुटकिओं में गिन लेते थे। मगर उनको धार्मिक किताबों को सुनने का बेहद शौक था और सभी भाई बहनों में ये मुझे ही करना होता था जब बाकी खेल कूद में लगे होते मैं दादजी की इच्छा पूरी करने को बैठा रहता और उनको शायद सबसे अधिक प्यारा भी लगता था।
बात हुई थी प्यास की और आजकल किसी को भी अच्छी मुहब्बत की बातों की चाहत नहीं है। इक दौड़ है आपसी खुद को सबसे अच्छा साबित करने की। ये बात कोई नहीं जानता कि वास्तव में सम्पूर्ण कोई भी नहीं है और अपने आप को ऐसा समझना नासमझी की हद है। मुझे बहुत सीखना है समझना है और करना भी है। अभी तक कुछ भी नहीं कर पाया , अब सार्थक करने को समय भी कम ही है। बात खत्म नहीं हुई विराम देता हूं बाकी अगली पोस्ट पर।
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