समस्या सरकार है जनता समस्या नहीं है ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
जब तक आपको समस्या ही समझ नहीं आएगी कोई समाधान मुमकिन ही नहीं है। वास्तविकता कुछ और है और माना जाता है कि देश की जनता ही असली समस्या है जबकि समस्या जिनको है वही लोग जनता ही वास्तव में देश हैं। अब इस बात को समझने के बाद विचार करेंगे तभी हैरानी होगी कि कितनी अनुचित बात कही जाती है कि जनता की आबादी उनकी अनपढ़ता उनका नियम कानून पालन नहीं करना समस्या है। वास्तव में समस्या सरकार उसके अधिकारी और अधिकारी कर्मचारी का तौर तरीका है जो अनावश्यक रूप से जनता पर ऐसे नियम कानून लादने की बात करते हैं जो धरातल पर संभव ही नहीं हैं क्योंकि जब आप सार्वजनिक जगह शौच नहीं करने की बात करते हैं सार्वजनिक शौचालय हर जगह बने होने चाहिएं क्योंकि ये इक कुदरती ज़रूरत है। ऐसा तो नहीं उचित कह सकते कि नगरपरिषद सड़क पर ही कूड़ा जमा करने की मनमानी करती रहे और आम लोगों को स्वछता का उपदेश देती रहे। अंधे नहीं हैं और बार बार बताया गया है मगर उनको लगता है हम अधिकारी हैं परिषद के अध्यक्ष हैं जो फरमान जारी करें मानना होगा। जब आपको लगा लोगों को शहर भर में कार पार्किंग पर निराधार रोक लगा दी। कोई सीमा नहीं और कहीं भी पार्किंग की व्यवस्था की नहीं लंबे चौड़े फैले बाज़ार में। संभव ही नहीं कि किसी एक ही जगह पार्किंग में कार खड़ी की जाये और मीलों दूर तक समय और बाकी परेशानी की चिंता को लेकर उनको विचार करने की क्या ज़रूरत जिनके लिए हर नियम कानून बदला जा सकता है। अर्थात जितने भी नियम हैं जनता पर लागू होने हैं नेताओं अफसरशाही को कोई रोक टोक नहीं।
नेताओं का काफिला चलता नहीं रौंदता हुआ दौड़ता है और कोई गतिसीमा नहीं होती है। उनके लिए बाकी का रास्ता बंद करना इक आदत है कोई मज़बूरी नहीं है। कहने को वीवीआईपी रुतबा लाल बत्ती कल्चर नहीं मगर दहशत है जैसे जनता के सांसद विधायक नहीं कोई डाकू गिरोह के लोग आने जाने वाले हैं। हर जगह सत्ता की मनमानी है उनको किसी को वोट हासिल करने को ज़मीन देनी है कौड़ियों के भाव तो शहर का नक्शा प्लान बदलते कोई वक़्त नहीं लगता है। हर शहर में धर्मशाला धार्मिक स्थल संस्थाओं के भवन क्या क्या नहीं बनने दिया प्लान नक्शा कोई नहीं पूछता है। इतना भी नहीं नियम अनुसार ऐसे जगह को व्यौपार दुकानें बनाने की इजाज़त नहीं मगर वास्तव में पहली शुरुआत ही कमाई करने को यही सब बनाने से होती है। इक धोखा है छल फरेब है ऐसा करने को जनहित की बात कही जाती है। हर सरकार नियम बदलकर कभी कुछ अपनों को सरकारी ज़मीन का मालिकाना अधिकार देती है तो कोई किरायेदार दुकानों की नाम की कीमत लेकर जायदाद का मालिक बनवा देती है। ऐसा लगता है देश की तिजोरी कोई मुफ्त का मिला खज़ाना है हर सत्ताधारी के पास लूटने लुटवाने को। किसी संस्था या ख़ास आदमी का नाजायज़ घोषित निर्माण वैध करने को कानून बनाया जाता है। ऐसे तमाम कार्य करने वाले आम नागरिक पर तलवार लटकाये रहते हैं कोई निर्माण सालों बाद भी कोई कमी बताकर जुर्माना लगाने को। और ये जुर्माना तीस चालीस साल पहले किसी विभाग की बेची संपत्ति पर कोई नया विभाग लगाना चाहता है जो उस समय बना भी नहीं था न ही तब उनका कोई नियम कानून लागू था। ज़मीनों के अधिग्रहण की कहानी सब जानते हैं मिलीभगत से कई गुणा कीमत देकर जिनको घर बनाने को प्लॉट्स बेचे उनसे कितने साल बाद वसूली की जाती है। सरकारी है विभाग का घोषित मकसद जो होता है उसके विपरीत कार्य किये जाते हैं। सस्ता घर देने नहीं महंगे प्लॉट्स घर का कार्य किया जाता है।
शिक्षा स्वास्थ्य और पीने का पानी शहर की गली सड़क बनवाना सभी हद दर्जे की मनमानी लापरवाही और अराजकता का आलम है। इस देश में इंसान की जान की कोई कीमत नहीं है। इक अजीब चलन है हर अधिकारी कुछ लोगों को जाने किस नियम कानून के हिसाब से अपनी कोई समिति बनाने में शामिल करते हैं जो बिना कोई अधिकार नियमानुसार मिले सत्ता का अधिकार उपयोग करते हैं और समाज में हैसियत बनाते हैं। ये लोग कोई जनता के पक्ष के नहीं होते न ही नागरिक की बात करने को होते हैं। इनका काम दफ्तरों में बैठ शान दिखाना और अधिकारी के निर्देश पर लोगों को बरगलाना होता है। जब कोई अधिकारी तबादला होने पर जाता है तो इनको चेक देकर जाता है जाने किस अधिकार का उपयोग करते हुए और ये अमीर लोग खैरात लेने को शान समझते हैं। और भी बहुत बातें हैं कोई अंत नहीं इनकी बातों का आचरण का।
सरकार विभाग अधिकारी सरकारी कर्मचारी नियुक्त किये जाते हैं जनता की समस्याओं का समाधान करने और उसको बुनियादी साहूलतें उपलब्ध करवाने को जबकि ये इसी कार्य में बाधा बनते हैं अड़चन पैदा करते हैं। कानून इनके लिए फुटबॉल की तरह है जिसको जिधर मर्ज़ी ठोकर लगाते हैं। देश सेवा जनता की भलाई क्या ईमानदारी क्या इनको मानवता का भी पास नहीं होता है और अधिकार पाकर कल्याण करना नहीं मकसद शासकीय ताकत का बेजा इस्तेमाल करना हो गया है। कभी इनको धार्मिक जगहों पर देख सोचते हैं क्या इनको वास्तव में किसी धर्म में आस्था है कोई भगवान खुदा अल्लाह वाहेगुरु इनको सच्चाई अच्छाई की राह दिखला सकता है। सबसे बड़ी विडंबना इस बात की है कि इनको अपने अमानवीय कार्यों और निर्दोष नागरिकों को परेशान करने का कोई खेद नहीं होता है बल्कि ऐसा करना इनको अच्छा लगता है। भगवान शायद इनसे डरता है अन्यथा इनको कभी तो कोई एहसास करवाता ही।
नेताओं का काफिला चलता नहीं रौंदता हुआ दौड़ता है और कोई गतिसीमा नहीं होती है। उनके लिए बाकी का रास्ता बंद करना इक आदत है कोई मज़बूरी नहीं है। कहने को वीवीआईपी रुतबा लाल बत्ती कल्चर नहीं मगर दहशत है जैसे जनता के सांसद विधायक नहीं कोई डाकू गिरोह के लोग आने जाने वाले हैं। हर जगह सत्ता की मनमानी है उनको किसी को वोट हासिल करने को ज़मीन देनी है कौड़ियों के भाव तो शहर का नक्शा प्लान बदलते कोई वक़्त नहीं लगता है। हर शहर में धर्मशाला धार्मिक स्थल संस्थाओं के भवन क्या क्या नहीं बनने दिया प्लान नक्शा कोई नहीं पूछता है। इतना भी नहीं नियम अनुसार ऐसे जगह को व्यौपार दुकानें बनाने की इजाज़त नहीं मगर वास्तव में पहली शुरुआत ही कमाई करने को यही सब बनाने से होती है। इक धोखा है छल फरेब है ऐसा करने को जनहित की बात कही जाती है। हर सरकार नियम बदलकर कभी कुछ अपनों को सरकारी ज़मीन का मालिकाना अधिकार देती है तो कोई किरायेदार दुकानों की नाम की कीमत लेकर जायदाद का मालिक बनवा देती है। ऐसा लगता है देश की तिजोरी कोई मुफ्त का मिला खज़ाना है हर सत्ताधारी के पास लूटने लुटवाने को। किसी संस्था या ख़ास आदमी का नाजायज़ घोषित निर्माण वैध करने को कानून बनाया जाता है। ऐसे तमाम कार्य करने वाले आम नागरिक पर तलवार लटकाये रहते हैं कोई निर्माण सालों बाद भी कोई कमी बताकर जुर्माना लगाने को। और ये जुर्माना तीस चालीस साल पहले किसी विभाग की बेची संपत्ति पर कोई नया विभाग लगाना चाहता है जो उस समय बना भी नहीं था न ही तब उनका कोई नियम कानून लागू था। ज़मीनों के अधिग्रहण की कहानी सब जानते हैं मिलीभगत से कई गुणा कीमत देकर जिनको घर बनाने को प्लॉट्स बेचे उनसे कितने साल बाद वसूली की जाती है। सरकारी है विभाग का घोषित मकसद जो होता है उसके विपरीत कार्य किये जाते हैं। सस्ता घर देने नहीं महंगे प्लॉट्स घर का कार्य किया जाता है।
शिक्षा स्वास्थ्य और पीने का पानी शहर की गली सड़क बनवाना सभी हद दर्जे की मनमानी लापरवाही और अराजकता का आलम है। इस देश में इंसान की जान की कोई कीमत नहीं है। इक अजीब चलन है हर अधिकारी कुछ लोगों को जाने किस नियम कानून के हिसाब से अपनी कोई समिति बनाने में शामिल करते हैं जो बिना कोई अधिकार नियमानुसार मिले सत्ता का अधिकार उपयोग करते हैं और समाज में हैसियत बनाते हैं। ये लोग कोई जनता के पक्ष के नहीं होते न ही नागरिक की बात करने को होते हैं। इनका काम दफ्तरों में बैठ शान दिखाना और अधिकारी के निर्देश पर लोगों को बरगलाना होता है। जब कोई अधिकारी तबादला होने पर जाता है तो इनको चेक देकर जाता है जाने किस अधिकार का उपयोग करते हुए और ये अमीर लोग खैरात लेने को शान समझते हैं। और भी बहुत बातें हैं कोई अंत नहीं इनकी बातों का आचरण का।
सरकार विभाग अधिकारी सरकारी कर्मचारी नियुक्त किये जाते हैं जनता की समस्याओं का समाधान करने और उसको बुनियादी साहूलतें उपलब्ध करवाने को जबकि ये इसी कार्य में बाधा बनते हैं अड़चन पैदा करते हैं। कानून इनके लिए फुटबॉल की तरह है जिसको जिधर मर्ज़ी ठोकर लगाते हैं। देश सेवा जनता की भलाई क्या ईमानदारी क्या इनको मानवता का भी पास नहीं होता है और अधिकार पाकर कल्याण करना नहीं मकसद शासकीय ताकत का बेजा इस्तेमाल करना हो गया है। कभी इनको धार्मिक जगहों पर देख सोचते हैं क्या इनको वास्तव में किसी धर्म में आस्था है कोई भगवान खुदा अल्लाह वाहेगुरु इनको सच्चाई अच्छाई की राह दिखला सकता है। सबसे बड़ी विडंबना इस बात की है कि इनको अपने अमानवीय कार्यों और निर्दोष नागरिकों को परेशान करने का कोई खेद नहीं होता है बल्कि ऐसा करना इनको अच्छा लगता है। भगवान शायद इनसे डरता है अन्यथा इनको कभी तो कोई एहसास करवाता ही।
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