अप्रैल 09, 2019

अंधा कुआं कैद लोग ( समझदारी पागलपन ) डॉ लोक सेतिया

   अंधा कुआं कैद लोग ( समझदारी पागलपन ) डॉ लोक सेतिया 

       चुनाव भी हैं धर्म भी साथ साथ है। पार्क से लेकर बाज़ार क्या दफ्तर क्या संजीदा गुफ्तगू राजनीति पर होती है। किसको किसने खड़ा किया किसका क्या आधार है कौन किस वर्ग जाति धर्म का कौन पैसे वाला कौन कितना ताकतवर। शाम को धर्म की सभा में झूमते गाते हैं देने वाली एक मां मागत लाख करोड़। मुझे भीख मिल रही है मेरा काम चल रहा है , मां बच्चों को भीख नहीं देती है कोई मां कभी नहीं चाहती बच्चे को भिखारी बनाना। लगता है राजनीति हो धर्म हो हमने कुछ भी नहीं सीखा न इबादत करना आया न सियासत करना आया है। स्वाभिमान क्या होता है सोचते ही नहीं और तुलसी की रामायण पढ़ते हैं कि जिस जगह आपकी कदर नहीं आपकी चाहत नहीं उस जगह बदल सोने की बरसात भी करते हों तब भी नहीं जाना चाहिए। हम पढ़ लिख कर आधुनिक बन गये हैं मगर आत्मसम्मान भी होता है और आदर देना अनादर नहीं करने का क्या अभिप्राय है सोचता कोई नहीं। अवसरवादिता ने सब छीन लिया है। ज़रा विचार करते हैं हो क्या रहा है जबकि होना कुछ और चाहिए था। 

               शिक्षा की दशा की कोई बात नहीं करते किसी भी दल वाले। स्वस्थ्य सेवाओं की रोटी की गरीबी की बदहाली की बात नहीं बात है तो झूठे सच्चे वादे जनता को भीख देने की। सबको जीने को बुनियादी सुविधा अधिकार की तरह मिलने की कोई बात नहीं करता है सभी दाता बनकर खैरात देने का दावा करते हैं। देता कौन है क्या किसी नेता ने अपने घर से एक पाई भी दी है इनकी सभी की चाहत जनता की दौलत पर खुद ठाठ बाठ से जीने की है सेवा करने का नाम है नज़र मेवा लूटने पर है। अगर इसको देश की समाज की भलाई समझते हैं तो देशभक्ति देश सेवा का अर्थ बदलना होगा। 

                   पहले राजा जंग लड़ते थे अपनी सत्ता का विस्तार करने को मगर जीत हार किसी की भी हो जंग में मरा आम लोग करते थे। आज भी देश के सैनिक शहीद होते हैं और सत्ताधारी उनकी शाहदत की राजनीति का बेहूदा काम करते हैं। कोई दुर्घटना होती है हादिसा होता है किसी बेगुनाह को क़त्ल कर दिया जाता है तो हम उसकी जान की कीमत मांगते हैं मुआवज़ा लेकर खामोश हो जाते हैं। खुद अपने प्रियजन की मौत की कीमत लगवाते हैं ये जाने कैसे नाते संबंध हैं , क्या हर रिश्ता कुछ लाभ उठाने तक का है।

    कैफ़ी आज़मी की इक कविता है , कुछ लोग इक अंधे कुंवें में बंद थे। ज़ोर ज़ोर से आवाज़ें लगाते थे , हमें आज़ादी चाहिए हमें रौशनी चाहिए। जब उनको कुंवें से बाहर निकाला गया तो बाहर की खुली हवा रौशनी को देख कर वो लोग घबरा गये आज़ाद होने की बात उनको भूल गई और उन्होंने वापस फिर उस अंधे कुंवें में छलांग लगा दी। नीचे जाने पर फिर वही नारे दोहराने लगे। हमें आज़ादी चाहिए हमें रौशनी चाहिए। यही हम हर बार करते हैं चुनाव आते हैं हम बाहर निकल सकते हैं अंधेरे से मगर हम वपस उसी अंधी गली में चले जाते हैं। जीवन को भी हमने इक कैद बनाया हुआ है और अपनी बनाई बंद कोठरी से निकलते हुए घबराते हैं। कायरता अभिशाप है हमने उसको तकदीर बना लिया है और वरदान समझते हैं। कोई मसीहा कभी किसी को बाहर निकालता नहीं है लोग सदियों से मसीहा की राह देखते जीते हैं मर जाते हैं।

    जो भी खैरात चाहते हैं उनको हर घर के दरवाज़े पर जाकर भीख देने की अपील करनी होती है। कोई भिक्षा दे देता है कोई फटकार लगाता है हट्टे कट्टे होकर हाथ फैलाते शर्म नहीं आती है। मगर हम किस से भीख मांगते हैं जिनको हमने बनाया है , सेवक बनकर हमीं को सीख देते हैं ये सब नेता अधिकारी। पलते हैं हमारे से लेकर कर या किसी बहाने से खज़ाना भर। यही बात धर्म की है भला किस जगह किसी धर्म के भगवान खुदा यीशु मसीह या अल्लाह या वाहेगुरु ने कोई धर्म स्थल बनाया हो अपने लिए। हम बनवाते हैं जेब से दान चंदा देकर और हर दिन चढ़ावा चढ़ाते हैं फिर उसी से हाथ फैलाकर भीख मांगते हैं , बताओ कब किस भगवान ने ऐसा समझाया है। कर्म करो फल मिलने की बात है अपने हाथ जगननाथ की सलाह है। किसी भगवान को कोई भवन नहीं चाहिए अगर उसी का बनाया सब कुछ है तो अपने बनाये इंसानों से आसरा नहीं मांगता है। पहले तय करो कौन दाता कौन भिखारी है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है जिनकी बात हम करते हैं आज़ादी की लड़ाई की कुर्बानियों की कब उन्होंने जनता नागरिक को भिखारी बनने की बात कही थी। ये आज़ादी का अपमान है जो हम अधिकार नहीं खैरात की चाह रखते है।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें