ताकि सनद रहे ( मेरे देश की पुलिस और उसके कानून )
डॉ लोक सेतिया
चलो इसी बहाने कई पुरानी बातें याद आईं। अपने देश में सरकार शासन करने को होती है देश की दशा बदलना उनका काम नहीं। अधिकारी शासक वर्ग की जीहज़ूरी करने और शान आन बान कायम रखने को होते हैं जनहित इनकी डायरी में नहीं लिखा होता है। पुलिस उसी ज़माने की सोच रखती है जब देश गुलाम था और राज करने को पुलिस डर दहशत का नाम था। मगर अपना जन्म आज़ाद भारत में हुआ और हमने जो स्कूल कॉलेज में शिक्षा में पढ़ा वो सच नहीं है आज तक भी। कोई किस्से कहानी सुनी सुनाई बात नहीं हर घटना खुद देखी झेली जानी है। बात 1980 से शुरू करता हूं।
दिल्ली में रहता था और तिलकनगर थाने का एरिया था हरिनगर जी आठ के फ्लैट्स। थोड़ा हैरान हो सकते हैं जानकर कि उन दिनों किरन बेदी पुलिस की ए सी पी थी और उनका ब्यान आया करता था जनता उन से दिन में 11 बजे से 1 बजे तक खुद आकर मिल सकती है। हम फ्लैट्स के वासी परेशान थे इक व्यक्ति अवैध रूप से शराब बेचता था इक फ्लैट में कोका कोला की बोतल में शराब मिलती थी और शाम को शराबी पीकर पड़े रहते थे उसके सामने चौक में। समझाने पर उसका कहना था पुलिस की मिलीभगत है यूं भी वह वास्तव में सरकारी विभाग में नौकरी करता था और शराब बेचने का धंधा उसकी पत्नी भी चलाती थी और एक नहीं दो जगह उसका काम था। एसोसिएशन के कहने पर मैंने किरन बेदी जी को समस्या लिखी डाक से चिट्ठी भेजकर। मुझे दिन और समय दिया आकर मिलने को। मगर जब गया मिलने तो बात करने को फुर्सत नहीं थी और जिस पुलिस वाले की शह पर शराब का धंधा चलता था मुझे उसी से बात करने को बोल दिया था। समय देकर बुलाना क्या था वास्तव में मेरे जाने से पहले शराब बेचने वाला और पुलिस वाला उनसे मिल चुके थे और मुझे देख कर मुस्कुरा रहे थे। बहुत समय लगता है समझने में कि थाने में कानून की हैसियत क्या होती है।
अगली घटना 1994 की है हम मॉडल टाउन के डॉक्टर यहां झौपड़ियों में चलते देह के कारोबार और शराब एवं अन्य गलत धंधे देख परेशान थे। बड़े बड़े डॉक्टर्स मिलकर अधिकारी से शिकायत करने गए थे मगर इक बच्चों के डॉक्टर के अस्पताल के कर्मचारी को इक झौपड़ी वाली ने कहा था उनको पुलिस खुद ले जाती है जब भी किसी को खुश करना हो और कोई हटवा नहीं सकता है। हुआ भी यही था।
ऐसी घटनाएं होती रहीं फिर भी कोई समस्या हो मज़बूरी में थाने जाना पड़ता है। अभी पिछले कुछ सालों की एक दो घटनाओं की बात करता हूं। स्वच्छ भारत अभियान की बात पर मेरे निवास के सामने पपीहा पार्क के भीतर जाने के मार्ग को रोककर चंडीगढ़ से आये अधिकारी भाषण दे रहे थे। बहुत बढ़िया सफाई की बात हो रही थी और जैसे भाषण खत्म हुआ मैंने हाथ उठाया बात कहने को। कहिये उनका कहना था और मैंने ये शब्द बोले थे अभी आपको जो बताया दिखाया गया सब झूठ है चलो सामने यहीं आपको गंदगी के ढेर दिखलाता हूं। 65 साल का आदमी कोई लाठी हाथ में नहीं थी मगर पुलिस वाले चार लोग मुझे पकड़ खींच कर सभा से दूर ले गये ज़बरदस्ती। अधिकारी और नगरपरिषद के लोग मुझे जानते थे खामोश देखते रहे। मैंने अगले दिन इक खत भेजा था पीएमओ को मोदी जी से सवाल करता हुआ। लिखा था 25 जून 1975 को जेपी जी का भाषण सुनने गया था मैं जिस में उन्होंने सुरक्षा बलों से निवेदन किया था शांति पूर्वक विरोध करने वाले लोगों पर बल उपयोग नहीं करने का। उसी बात को बहाना बनाकर आपात्काल घोषित किया गया था। मेरा सवाल था क्या आप जेपी जी की बात को गलत मानते हैं और आपात्काल लगाना उचित था और अगर उनकी बात सही और आपत्काल गलत था तो जो मेरे साथ हुआ उसको उचित नहीं ठहरा सकते। कुछ दिन बाद इक पुलिस के अधिकारी पीएमओ से भेजे खत को लेकर मेरे पास आये थे। क्या करना है इस का मुझसे पूछने लगे। मैंने घटना बताई तो कहने लगे हुआ तो गलत था मगर मालूम नहीं किस किस की डुयटी लगी हुई थी , मैंने कहा अपने रिकॉर्ड में देख सकते हैं। मगर उनको नहीं मालूम था न्याय किसे कैसे देना है और थोड़े दिन बाद मामला खत्म करने को इक ब्यान लिखवा लिया था ये कहकर कि उनकी तरफ से मैं माफ़ी चाहता हूं।
ऐसी घटनाएं होती रहती हैं खुद पुलिस जब जिस जगह मर्ज़ी कोई आयोजन करती रहती है उनको किसी से अनुमति नहीं लेनी। सड़क रोकनी है पार्क में शोर करना हो जैसे भी उनकी मर्ज़ी है। आपको सीएम की सभा में जाना है काले कपड़े क्या जुराब स्वेटर नहीं पहन कर जा सकते है। ये किस संविधान की किस कानून की किताब में लिखा है कोई नहीं जनता है। मुझे जाना भी नहीं पड़ा मगर जब भी सीएम आते हैं रास्ते सड़क सब बंद उनके लिए जाने ये सुरक्षा का मामला है या वीवीआईपी होने का ऐलान। दो साल पहले की बात है मुझे इक साहित्य के कार्यकर्म में भाग लेने सिरसा जाना था। बस स्टैंड पर पांच पुलिस वाले खड़े थे मुझे कहा कि उनको नई बनी अनाजमंडी तक लिफ्ट मिल सकती है और मैंने उनको लिफ्ट दी थी सभा स्थल पर छोड़ दिया था। दोपहर को वापस आते हुए बाईपास के पुल पर फतेहाबाद आने का सड़क का रास्ता रोक वही पुलिस वाले खड़े मिले मुझे बताया सीएम को जाना है इसलिए आम लोग नहीं जा सकते इधर से और मुझे करीब आठ दस किलोमीटर का लंबा रास्ता तय कर घर आना पड़ा था। शायद इस देश की यही विडंबना है कि नियम कानून सरकार पुलिस अधिकारी पर लागू नहीं होते बल्कि उनकी नियम कनून और समानता की बात में रत्ती भर आस्था नहीं होती है। जो नियम आपको समझाते हैं उनको शायद इसका पता नहीं कि नियम जनता की सुविधा और व्यवस्था कायम रखने को बनाये हुए है जनता को परेशान करने को या दहशत कायम रखने को नहीं और देश के किसी कानून की किसी किताब में कोई कानून नहीं लिखा हुआ कि नेताओं का कोई विशेषाधिकार होगा सड़कों रास्तों पार्कों और सरकारी इमारतों पर। आखिर में मेरी पहली कविता।
पढ़ कर रोज़ खबर कोई ( बेचैनी ) लोक सेतिया "तनहा"
पढ़ कर रोज़ खबर कोई ,मन फिर हो जाता है उदास।
कब अन्याय का होगा अंत ,
न्याय की होगी पूरी आस।
कब ये थमेंगी गर्म हवाएं ,
आएगा जाने कब मधुमास।
कब होंगे सब लोग समान ,
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास।
चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें ,
फिर वो न आए हमारे पास।
सरकारों को बदल देखा ,
हमको न कोई आई रास।
जिसपर भी विश्वास किया ,
उसने ही तोड़ा है विश्वास।
बन गए चोरों और ठगों के ,
सत्ता के गलियारे दास।
कैसी आई ये आज़ादी ,
जनता काट रही बनवास।
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २३५० वीं बुलेटिन ... तो पढ़ना न भूलें ...
जवाब देंहटाएंतेरा, तेरह, अंधविश्वास और ब्लॉग-बुलेटिन " , में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सार्थक यथार्थ रचना भोगा हुवा दर्द स्वयं के माध्यम से हर भारतीय का ।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम।
ये और यही सच है बाकी सारे सच झूठ हैं। सुन्दर।
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