पत्थर के खुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसां पाये हैं -
डॉ लोक सेतिया
पत्थर के खुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसां पाये हैं
तुम शहरे मुहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आये हैं
होटों पे तब्बुसम हल्का सा आंखों में नमी सी है फ़ाकिर
हम अहले मुहब्बत पर अक्सर ऐसे भी ज़माने आये हैं।
हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहां
सहरा में ख़ुशी के फूल नहीं शहरों में ग़मों के साये हैं।
तुम शहरे मुहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आये हैं
पत्थर के खुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसां पाये हैं।
सुदर्शन फ़ाकिर जी की जगजीत सिंह की गाई ग़ज़ल है। आदमी में भावना होती हैं सुख दुःख का एहसास होता है मानवीय संवेदना रहती है। जब ये सब नहीं बचता तो आदमी पत्थर बन जाता है। पत्थर घायल करता है तो कसूर उसका नहीं किसी इंसान का होता है जो किसी पर पत्थर फैंकता है। जब लोग घायल होते देख कर दर्द नहीं महसूस करते और उसे देखने का आनंद लेने लगते हैं तब उनकी इंसानियत मर जाती है और उनके भीतर का शैतान जग उठता है। जिनको किसी को दर्द देना अच्छा लगता है वो इंसान हैवान बन जाते हैं और शैतान खुश होता है। सत्ता ताकत अधिकार दौलत मिलने से अगर आदमी इंसानियत खोकर हैवानियत करने को जायज़ समझने लगता है तब दुनिया का भला नहीं होता बर्बादी होती है। ये जो कायदे कानून लोगों ने अपनी सुविधा से बना लिए हैं अगर उनसे सदभावना और भाईचारा नहीं नफरत दहश्त का माहौल बनता है तो उनको बदलना होगा। ये किस युग की बात है कि कोई धर्म की किताब में ढोल पशु गंवार और नारी को एक समान बताकर ताड़न का अधिकारी बताता है ऐसी किताब को किसी समंदर में फैंक देना उचित होगा।
सत्ता पद पाकर मानव कल्याण करने की बात समझने की जगह जब लोग नेता अधिकारी बनकर तलवार की तरह ज़ख्म देने लगते हैं तो इसे उन्नति नहीं अवनति कहना होगा। वोट पाने को रिश्वत लेने को मनमानी करना व्यवस्था नहीं कायम करता है। किसी शायर का शेर है :-
हमने ये बात बज़ुर्गों से सुनी है यारो , ज़ुल्म ढायेगी तो सरकार भी गिर जायेगी।
अपनी वहशत को अधिकार नहीं समझना चाहिए और आपके नहीं समाज के नियम बदलते रहते हैं। जो कानून जो नियम न्याय नहीं अत्याचार करते हैं उनको लागू करना अमानवीय अपराध है। शासक अपनी मर्ज़ी से नियम बनाते हैं और कुदरत का एक ही नियम है खुद भी इंसान बनकर जियो और सबको जीने दो। अगर कभी इतिहास को समझोगे तो ज़ालिम को नहीं रहमदिल शासक को लोग महान मानते हैं। सत्ता से मिले अधिकार अन्याय करने को कदापि नहीं हैं। बेशक कोई स्वर्ग नर्क है या नहीं कोई नहीं जानता कगर मेरा अनुभव है अपने कर्मों अपकर्मों का हिसाब इसी जीवन में चुक्ता करना पड़ता है। किसी बेबस की बद्दुआ या आंसू कभी व्यर्थ नहीं जाते हैं और बड़े बड़े ताकतवर और धनवान ही नहीं खुद को महान शासक समझने वालों का अंजाम और अंत विनाशकारी होता है। आदमी की सब से बड़ी भूल यही है कि सामने देखते हुए भी सोचता है मेरे साथ ऐसा नहीं हो सकता कभी। मगर आखिर ऊपर वाले का या कुदरत का नियम कायम रहता है और बबूल बोन वाले को कांटे मिलना लाज़मी है।
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