अक्तूबर 13, 2018

इन्हीं लोगों ने ले लीना ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

     इन्हीं लोगों ने ले लीना ( तरकश  ) डॉ लोक सेतिया

   महानगर की महिलाओं की सभा हालात पर चर्चा कर रही है। इक अतिथि महिला ख़ास तौर पर बुलाई गई है जो इस विषय पर कितनी बार शोध करने का नाम कमा चुकी है। उसने पहले ही इक बात कह दी है कि आज सब सच बताना है और दुनिया की बातों से नहीं घबराना है। आज सभी ने खुद को पाकीज़ा बताना है और इल्ज़ाम सभी लोगों पर लगाना है। अर्थात अब सब एक हैं और मिलकर पाकीज़ा फिल्म का गीत गाना है। इन्हीं लोगों ने ले लीना दुप्पटा मेरा। मेरी न मानो सिपहिया से पूछो , मेरी न मानो बजजवा से पूछो , रंगरजवा से पूछो , बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। हर बात के सोचने के दो तरीके होते हैं , गलास आधा खाली है भी सही है और अधूरा भरा हुआ है ये भी ठीक है। मुझे किसी की पुरानी बात याद आई है कि कुदरत ने केवल औरत को ऐसी विशेषता दी है जिस के सहारे हम अपनी रोज़ी चला सकते हैं कमाई कर सकते हैं खुद अपनी कीमत लगा सकते हैं। हम जो चाहें करें अपनी मर्ज़ी है मगर इधर बात थोड़ा उलझन की है , किसी ने खुद किसी को छेड़खानी करने दी या किसी के साथ बिना इजाज़त छेड़खानी की गई समझने की बात है। किसने जिस्म की कीमत वसूली किसे कीमत नहीं मिली ये भी समझना है। आपको इक कहानी सच्ची सुनाते हैं। 

 इक पतित नारी की जीवन गाथा ( सत्य कहानी ) डा लोक सेतिया

बहुत साल पहले की घटना है , इक पत्रिका में किसी महिला की आपबीती प्रकाशित हुई थी। तब उम्र नहीं थी गहराई से उसको लेकर सोचने की , मगर मैं उस नारी की व्यथा को कभी भुला नहीं सका। जब फेसबुक पर मित्रता के नाम पर अशलीलता का फैला हुआ जाल देखा तब उसको अपनी कल्पना के माध्यम से इक लघुकथा का रूप दिया। आज कुछ कुछ उसी तरह की कहानी लिखने जा रहा हूं जो मुझे लगता है कि बहुत लोग जो फेसबुक पर हैं उनको खुद से जुड़ी लग सकती है। शायद जितना मैं लिख सकता उससे कहीं बढ़कर। चलो भूमिका को छोड़ आपको इक नारी की पीड़ा की उसकी बेबसी की उसके गंदगी में कीचड़ में फसने से रसातल में गिरने की कहानी सुनाता हूं। और उसका अंत जो हुआ वो भी , जो शायद होना ही था , होता ही है , लेकिन जो ऐसा करते हैं वो ये शायद ही सोचते हैं कि किसी दिन उनका बनाया जाल ही खुद उनको फंसा सकता है।

             नीता इक अध्यापिका थी , रौशन शर्मा की बेटी को टयूशन पढ़ाने उसके घर जाया करती थी। उसके घर की आर्थिक दशा उसको ऐसा करने को विवश करती थी। एक दिन जब नीता गई टयूशन पढ़ाने तब घर पर उनकी बेटी और पत्नी नहीं थी और रौशन अकेला था। नीता को रोक लिया था उसने ये बता कर कि बेटी अभी आने वाली है मां के साथ बाज़ार तक गई है। और उस दिन रौशन ने ज़ोर ज़बरदस्ती करके नीता की अस्मत लूट ली थी। अपना सर्वस्व लुटा कर जब नीता बिलख रही थी तब रौशन ने उसको बहुत सारे पैसे जितने शायद वो टयूशन से वर्ष भर में लेती थी देकर कहा था लो मेरी तरफ से कोई उपहार ले लेना। और ये बात किसी से मत कहना वरना तुम्हारी ही बदनामी होगी। नीता ने लिखा था तब अपना नाम बदल कर पत्रिका को कि तब उसको समझ नहीं आ रहा था कि अपनी अस्मत लुटने पर रोये या पहली बार इतने पैसे पाकर खुश हो। रौशन को आता था महिलाओं को चिकनी चुपड़ी बातों से बहलाना। उसने जब अपनी बात का असर होता देखा नीता पर तो कहने लगा मुझसे भूल हो गई है तुम्हारे हुस्न का जादू चल गया था मुझ पर और मैं तुमसे सच में प्यार करता हूं। लेकिन मुझे तुम्हारे साथ ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिये थी , कसम खाता हूं अब कभी नहीं करूंगा ऐसा दोबारा। लेकिन अगर तुम चाहोगी तो मैं तुमको जो भी चाहिये देता रहूंगा। तुम ये बात मन से निकल दो कि हमने कुछ गलत किया है , जिस बात से हमको ख़ुशी मिलती हो और किसी का कोई बुरा नहीं उसमें बुराई नहीं है। आखिर अपना तन मन हमारा है , हम जो पसंद हो करें , किसी को बताने की कोई ज़रूरत नहीं , इस तरह रौशन ने नीता को मना लिया था कि इस घटना का ज़िक्र किसी से नहीं करेगी। मगर अभी तक वो कश-म-कश में उलझी थी कि क्या करे क्या नहीं , इसलिये उसने अब किसी के घर जाकर टयूशन पढ़ाना ही बंद कर दिया था। जिनको पढ़ना हो वो उसके घर आ सकते हैं , रौशन चाहता था नीता को अपने जाल में फंसाये रखना इसलिये उसने भी बेटी को नीता के घर टयूशन पर भेजना शुरू कर दिया। नीता चाह कर भी उस घटना को भुला नहीं पा रही थी। मगर फिर उसने अपनी आर्थिक मज़बूरी से विवश हो कर एक दिन रौशन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। रौशन उसके घर आता अपनी वासना पूरी करता और नीता को बहुत से पैसे देता। मगर क्योंकि नीता अपने घर पर हमेशा अकेली नहीं मिलती थी इसलिये उसने नीता को अपनी ही एक जगह उपलब्ध करवा दी थी टयूशन का काम करने को। यूं सब को यही मालूम था कि किराये पर ली है जबकि किराया उसको अपना बदन सौंप कर ही चुकाना होता था।

                वक़्त बीतता गया और नीता ने खुद को बदल लिया था समय के साथ। अब वो दिखाने को टयूशन का काम करती थी मगर वास्तव में उसी को अपना कारोबार बना लिया था , हर किसी से शारीरिक संबंध बनाना और पैसे लेना। रौशन की बेटी जवानी की दहलीज पर थी और नीता के घर अभी भी नियमित आती जाती थी। नीता उसको कई प्रकार से सहयोग किया करती , उसको परीक्षा में नकल करवाना , उसकी बुरी आदतों को पूरा करने को जब तब पैसे देना। रौशन की बेटी को नीता बहुत प्यारी लगती थी , क्योंकि वो उसको जो चाहती वो करने में सहायता देती रहती थी। शायद कहीं अनजाने में वो अपने साथ उसके पिता द्वारा किये अपकर्म का बदला ले रही थी उसकी बेटी को उसी राह जाते देख कर। अक्सर जब कोई नीता के पास आता तब वो रौशन की बेटी को कुछ अशलील तस्वीरें देखने को , कुछ ऐसे पत्रिकाएं पढ़ने को देकर साथ के कमरे में चली जाती अपना कारोबार करने। तब वो छुप कर दरवाज़े की दरार से नीता को सब करते देखती कितनी बार। और ऐसे में उसने एक दिन नीता को ये बता दिया था कि क्या मुझे ये सब सिखा सकती हैं। और इस तरह रौशन की बेटी ही नहीं और लड़कियों को भी नीता ने उसी जाल में फंसा लिया जिसमें खुद मज़बूरी में फंस गई थी।

            रौशन नहीं जनता था कि जिस रास्ते पर उसने नीता को डाला था आज उसकी जवान बेटी उसी राह पर भटक रही है। ऐसे में इक दिन रौशन ने नीता को होटल में आने को कहा तो उसने पूछा क्या मेरी बजाय कोई नई जवान लड़की अगर हो तो आपको क्या चाहिये मैं या वो। और रौशन ने कहा था कि अगर कोई नई और जवान मिल जाये तो अधिक पसंद है। जब होटल के कमरे में नीता अपने साथ उसी की बेटी को लेकर पहुंची तब उसको होश ही उड़ गये। बहुत नाराज़ हुआ वो नीता को बदचलन बताया , नीता ने वही बात दोहराई जो कभी रौशन से उसको कही थी। किसी को भी अपना बदन अपनी मर्ज़ी से किसी को भी ख़ुशी से सौंपने में बुराई नहीं है। जो तुमने किया और मुझे सिखाया वही तुम्हारी बेटी ने भी सीख लिया है , अब तुम लाख चाहो जो हो चुका उसको बदल नहीं सकते। रौशन ने नीता को और अपनी बेटी को वहां से जाने को कह दिया था और ये विनती की थी कि ये सब किसी को नहीं बताना , मैं समझ गया मुझे अपने कर्मों का फल ही मिला है। वो चली आई थी , अगली सुबह होटल के कमरे से रौशन की लाश मिली थी।  उसने ख़ुदकुशी कर ली थी। सुसाईड नोट छोड़ गया था कि अपनी मौत का वो खुद जिम्मेदार है।

          सवाल कई हैं कोई अपने साथ गलत होने पर डाकू बन जाती है और बदला लेती है। कई हैं जो रात गई बात गई समझ भूल जाती हैं। आज जब नाचने लगी हैं तो घूंघट क्यों नहीं उठाती हैं , इक फ़िल्मी डायलॉग बोलकर पिंड क्यों नहीं छुड़ाती हैं। कुछ गलती पुरुषों की गंदी मनसिकता की थी कुछ हमारी कायरता की भी थी बोलना है तो क्यों शर्माती हैं। अभी चार दिन लोग सहानुभूति जताएंगे फिर हर किसी को कुल्टा बताएंगे , जो ये करते रहे सीना तान बतलाएंगे किस किस का नाम नहीं सामने लाएंगे।  गड़े मुर्दे जो उखाड़े जाएंगे कितने लोग फिर बच पाएंगे। सच और झूठ आपस में जो मिल जाएंगे इक नया इतिहास बनाएंगे। हमारी तर्ज़ पर पुरुष भी कोई गीत गाएंगे। वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है इल्ज़ाम किसी और के सर जाये तो अच्छा।  कितनी कहानियां ऊंची ऊंची दीवारों में कैद हैं किस किस को सुनाओगी खुद रोओगी उनको नहीं रुला पाओगी। आज चुप रहने पर पछताती हो कल शायद बोलने पर पछताओगी , बदनाम किसी पुरुष को करोगी बदनामी अपने घर लाओगी। ये जो सच है दोधारी तलवार है कोई कत्ल होगा या बचेगा तुम खुद ज़रूर ज़ख़्मी औरत बन जाओगी। क्या ब्यानबाज़ी से आगे जाओगी अपने पर अत्याचार का हिसाब बराबर कर आओगी। या इसी तरह ख़ामोशी से अपनी बात कहोगी औरों की सुनोगी तालियां बजाओगी , जब घर जाओगी तो सोचोगी कौन है जिस को घायल नहीं किया समाज में मैं अकेली ही तो न थी। यही समझ तसल्ली पाओगी।

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