आप अपनी आज़ादी कितने में बेचोगे ( बिगबॉस ) डॉ लोक सेतिया
मुझे आज तक ये समझ नहीं आया कि कोई भी कितने भी लालच से ऐसे समझौते कर किसी के घर में गुलामों की तरह रहना क्यों मंज़ूर करता है। मगर लोग हैं कि ऐसी गुलामी को भी खुशनसीबी समझते हैं। डॉ बशीर बद्र जी की ग़ज़ल का इक शेर है कुछ ऐसा मगर आपको पूरी ग़ज़ल ही सुना देते हैं।
खुदा हमको ऐसी खुदाई न दे , कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे।
गुलामी की बरकत समझने लगे , असीरों को ऐसी रिहाई न दे। ( असीरों : बन्दियों )
हंसो आज इतना कि इस शोर में , सदा सिसकियों की सुनाई न दे।
खतावार समझेगी दुनिया तुझे , अब इतनी ज़ियादा सफ़ाई न दे।
खुदा ऐसे एहसास का नाम है , रहे सामने और दिखाई न दे।
सोचता हूं इस टीवी फ़िल्मी दुनिया पर देश का संविधान लागू है या नहीं। कोई किसी को ऐसे बंधक बना कर रख सकता है अपनी शर्तों पर अपने नियम बनाकर। आपकी निगरानी है चौबीस घंटे कोई निजता नहीं बचती। तथाकथित बिगबॉस आपको लताड़ता है उसकी बात नहीं मानने पर मगर खुद जो मनमर्ज़ी करता है आपसे करवाता है। आपको लड़वाता है और गंदगी फैलाता है उसको इसी में मज़ा आता है मुनाफा कौन कौन कमाता है ये सब पाप का बही खाता है , देखने वालों को जाने क्या भाता है। किसका घर है जिसका कहलाता है खुद वही आग लगाता है। अच्छी बातें कहने को एंकर कहता है समझाता है मगर क्या सच उसे अच्छी बातों से लुत्फ़ आता है , हर किसी को डर उसी से लगता है। घर से बेघर करने की धमकी जो सुनाता है। आदमी क्या इस तरह कठपुतली बन जाता है। बदनाम होने वाला शोहरत पाता है , पॉपुलर होने की कीमत बड़ी चुकाता है। सच्चाई से इस घर का कोई भी नहीं नाता है।
आपको कोई और इस तरह से बंद दीवारों में रहने को कहे जिस में आपको किसी से बाहर वाले से सम्पर्क करने की इजाज़त नहीं होगी , उसकी हर बात स्वीकार करनी होगी। कोई सीमा नहीं होगी आपको किसी भी तरह दंडित किया जाये या खिलाया पिलाया जाये अथवा भूखा रहना पड़े। आपकी हर बात ही नहीं आपके शरीर और रहने तक को जैसे मर्ज़ी बदलने को कहे , आपकी दाढ़ी मूंछ से सर के बाल तक उसको जो पसंद करवा सकता हो। ये शो है क्या और इसका मकसद क्या घर में साथ साथ रहना नहीं लड़वाना भिड़वाना है। बिगबॉस की आंख किसी सत्ताधारी नेता की आंख तो नहीं जिसे भाईचारा अमन चैन बिल्कुल नहीं भाता है , तभी वोट का डर सबको सताता है। वोट शरीफ लोगों के हिस्से कब आता है। ये कोई स्कूल है जो नफरत का सबक पढ़ाता है। कोई इसके खिलाफ अदालत भी नहीं जाता है , आज़ादी बेचने खरीदने का बाजार कोई लगाता है। सुना करते थे गुलामों की कोई मंडी लगती थी और बोली लगाई जाती थी , आजकल गुलाम खुद चलकर आते हैं। आज़ादी की कीमत नहीं जानते तभी बिगबॉस की गुलामी को बरकत समझते हैं। मुंबई की रौशनियों में अंधेरे घने हैं।
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