सितंबर 05, 2018

मुजरिम ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

                मुजरिम ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

मैं इक ऐसा गुनहगार हूं ,
खुद अपने से शर्मसार हूं ।

अपने ही घर में चोर हूं ,
मैं हूं मैं कि कोई और हूं ।

कैसा अजब किरदार हूं ,
हर सज़ा का हकदार हूं ।

झूठ है मैं भी अमीर हूं ,
सच तो है इक फकीर हूं ।

जाने कौन क्या पहचान हूं ,
अपने से भी अनजान हूं ।

किसलिए अभी ज़िंदा हूं ,
इस बात पे शर्मिन्दा हूं ।

अब हो चुका चूर-चूर हूं ,
हां हां मैं वही मगरूर हूं ।

आशिक़ हूं पर अजीब हूं ,
आप अपना ही रकीब हूं ।

शहर नहीं न कोई गांव है ,
नहीं धूप भी न ही छांव है ।

हर कारवां से बिछुड़ गया ,
हर आशियां बिखर गया ।

हंसता नहीं रोता भी नहीं ,
बेजान कुछ होता ही नहीं ।

ख़ामोशी की आवाज़ हूं ,
बिना पर की परवाज़ हूं ।
 

 

1 टिप्पणी: