कविता लापता है या मर गई है ( व्यंग्य कथा ) डॉ लोक सेतिया
कोई तो बताये , देखी है सुनी है कविता। कोई सुनाये मुझे कविता की प्यास है। यू ट्यूब पर टीवी पर या किसी शहर के सभा हाल में। क्या ज़माना था खुले आसमान तले कविता का जलवा दिखाई देता था। क्या कहा यही है जो कोई महान कवि सुना रहा है और हज़ारों लोग तालियां बजा रहे हैं। इसे कविता कहते हैं , मंच पर आपस में बातचीत को , इधर उधर की बातों को जोड़कर। अकविता की कविता है , कवि हैं काव्य नहीं है। सुनने वालो क्या सुनी है कभी कविता। चलो इनकी बात को छोड़ो ग़ज़ल की बात ही करते हैं , बेहद नाज़ुक होती है और लयात्मक भी फूलों सी रेशमी एहसास लिए। ये कैसी ग़ज़ल कहने लगे जैसे तलवार लेकर घायल करना चाहते मगर किसको , लहू लुहान हो गई ग़ज़ल आपकी। इतना ज़ुल्म तो कोई नारी भी नहीं सहती आजकल। कविता ग़ज़ल माना फीमेल नाम हैं मगर डरती नहीं घबराती नहीं। आपने उनका बुरा हाल किया है कविता का सवभाव नहीं ग़ज़ल का मिजाज़ नहीं।
ये कोई सोशल मीडिया और टीवी चैनल वालों का कसूर नहीं है , किसी ने जो कहा आपने वही मान लिया तो फिर काहे को कवि शायर होने का दम भरते हो। कितने पैसे मिले होंगे , क्या इतने कि उसकी खातिर किसी को घायल कर दो। ये क्या है किसने कविता और ग़ज़ल की सुपारी ली है दी है। ऊंचे ऊंचे हाथ उठाकर ज़ोर ज़ोर से खड़े होकर वाह वाह करने वालो कविता से कभी जान पहचान की है। आपकी आवाज़ से डर गई कांपती थरथराती छुपी खड़ी होगी मंच के पीछे शायद। एफआईआर दर्ज कौन करवाए किसी की संतान है जो दुनिया में नहीं रहे। लावारिस है बिना माता पिता के बेबस है। घर बार नहीं ठौर ठिकाना नहीं , क्या हालत बना दी सभी ने। इस से तो अच्छा था किसी अख़बार के पन्नों में कहीं छपी रहना , कोई पढ़ लेता था तलाश कर के। ये मंच पर चढ़ने का चाव बहुत महंगा पड़ा है , जाने किस किस की कैसी निगाह है। सजी धजी बन संवर कर आई थी और दुप्पटा खो गया , लाज के मारे घर भी नहीं जा सकती।
जो लोग बेटियों का नाम कविता ग़ज़ल रखते थे शायद आजकल पछताते हों , नहीं ऐसा तो नहीं सोचा था। दो बहनों की दर्द भरी दास्तां है , कौन किसे तसल्ली दे ऐसे में। आयोजक अपना हिसाब लगाते हैं कविता ग़ज़ल कोई हिसाब किताब की बात नहीं हैं। भीड़ जमा होती है उनके नाम से मगर नाम जिस कारण हुआ जब वही नहीं बचा तो कवि शायर नहीं बिकाऊ सामान बन गए हैं। ये शोहरत भी बड़ी बुरी चीज़ है , सोचने ही नहीं देती सच और झूठ को। दरबार में बादशाहों का गुणगान करने वाले भी कविता की लाज रखते थे , अकविता नहीं करते थे। कविता के अस्तित्व का सवाल होने लगा है , छंद , दोहे , गीत , मुक्त छंद तक भी ठीक ही था मगर अकविता की कविता नहीं उचित। थोड़ा तो रहम करो बेचारी कविता और ग़ज़ल वास्तव में रोने लगी हैं लोग हंसते है जिसे सुनकर वो ये नहीं हैं कोई और है।
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