जाकी रही भावना जैसी ( आठवां सुर ) डॉ लोक सेतिया
इक अपना पक्ष है इक उनका पक्ष भी है। अपने को अपना सही लगता है उनका गलत लगता है , उनको खुद उनका सही लगता है और जो अपना है उनका नहीं हो सकता है गलत लगता है। तर्क दोनों के पास हैं निष्पक्षता से दोनों को आपत्ति है। सत्ता पक्ष का गठबंधन सफल होता है क्योंकि उसी में सब का पेट घर और तिजोरी भरती है। विपक्षी एकता हमेशा अधर में लटकती रहती है कभी सफल नहीं होती। जनता हमेशा टुकड़ों में बंटी रहती है और उसके टुकड़ों के भी टुकड़े होते रहते हैं। राजनेताओं में अपने अधिकारों पर अपने वेतन भत्तों पर और अपने लिए नियम कानून लागू होने पर आम सहमति बनते देर नहीं लगती। बात उनके अपराधों और चुनाव लड़ने की हो या महिला आरक्षण से अपने वर्चस्व की उनकी एकता देखते ही बनती है। वो आपस में विरोधी और दुश्मन लगते हैं मगर होते नहीं हैं वास्तव में इनमें गज़ब का भाईचारा है। अपने विरोधी को भी गले इस तरह मिलते हैं जैसे बिछुड़े हुए भाई और बचपन के दोस्त मिलते हैं। एकता की इस से अच्छी मिसाल कोई नहीं हो सकती , यही एकता कभी चोरों-डाकुओं में हुआ करती थी। सब अपने अपने इलाके के मालिक होते थे।
आजकल न्याय भी टीवी अख़बार वाले बताते हैं कि किस किस तरह का है , उनको ऐसा ज्ञान राजनेताओं से मिलता है। अगड़ों से अन्याय अलग है पिछड़ों से अलग। हिंसा भी दो तरह की है सरकारी हिंसा कानूनी है और आतकंवादी और उपदर्वी हिंसा और है। तर्क भी हैं टीवी चैनल पर बताते हैं अलगाववादी नेता आंतकवादी हिंसा पर खामोश रहते हैं और सेना और सुरक्षाबल आंतकवादी को मारते हैं तो वो बिलबिलाते हैं। इधर धर्म वाले दंगे करवाते हैं और गुनहगार भी सद्गुरु कहलाते हैं। सब लोग भीड़ बनकर कहर ढाते हैं और आगजनी और गुंडागर्दी को अपनी बात मनवाने का हथियार बनाते हैं। देश को आग लगा कर भी देशवासी कहलाते हैं अपने अपराध करने पर इतराते हैं। ये महान देश है जिस में कोई भारतवासी नहीं रहता है हिन्दु मुस्लिम सिख ईसाई रहते हैं। जाट पंजाबी बनिया पंडित तो हैं इक और भी सवर्ण-दलित की दीवार है। किसी का न्याय किसी पर अत्याचार है। ये व्यवस्था किस किस को सही करेगी जो खुद ही बीमार है।
हम सब खुदा के बंदे हैं मगर अपने अपने स्वार्थ में सब के सब ही अंधे हैं। हर कोई अपनी आंखों पर अपने रंग के शीशे वाला चश्मा लगाता है और भीड़ बनते ही इंसान हिंसक जानवर बन जाता है। खुद ज़ालिम की ज़ुल्म ढाता है फिर भी अपने साथ न्याय चाहता है। कोई नेता है जो केवल माफ़ी मांगकर जान बचाता है उसका आरोप लगाने में किसी का क्या जाता है। हर झूठ आजकल अटल सत्य कहलाता है। हम सोचते हैं और कहते हैं आगे बढ़ रहे हैं मगर अभी भी उल्टा सीधा इतिहास गढ़ रहे हैं। तमाम देश अपनी इतिहास की गलतियों को समझ सुधर रहे भविष्य की तरफ कदम धर आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन हम अभी नफतरों की फसल बोने की बातें कर रहे हैं खुद मार रहे खुद ही मर रहे हैं। लाशों पर चढ़कर कुछ लोग सत्ता की बुलंदी पर चढ़ रहे हैं , इंसानियत को बार बार शर्मिंदा कर रहे हैं। आग बुझाने की बात कर हवा देने का काम कर रहे हैं। हमेशा से कोई एक दिन पहली अप्रैल को मूर्खता दिवस कहलाता था , हंसी हंसी में बीत जाता था। अब तो महीना साल लगातार मूर्खताएं करते हैं फिर भी समझदारी का दम भरते हैं। अंत किस बात से करें चलो दो शेर याद करते हैं जाने माने शायरों के।
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