हिंदी का गाना , हिंदी का रोना ( निट्ठला चिंतन ) डॉ लोक सेतिया
आज 12 तारीख है 14 सितंबर को है हिंदी दिवस , हमने 10 तारीख को ही हिंदी दिवस मना भी लिया। मैं भी बुलाया गया था , शामिल भी हुआ था , मगर दो दिन बाद भी मुझे समझ नहीं आ रहा उसका मकसद क्या था। जाकर देखते ही समझ आया मंच सजा हुआ है मगर वातावरण में शोक सभा जैसी ख़ामोशी है , आधा हाल खाली है , केवल वही लोग आये हुए हैं जिनको आना ही है अपने अपने मकसद से। लोग आपस में अपनी खुद की बात कर रहे हैं बाकी सब से नमस्कार की औपचारिकता निभा कर। दिवार पर संस्था का बड़ा सा पोस्टर चिपका है जिस पर बहुत नाम हैं और कुछ किताबों की तस्वीर हैं जिनका विमोचन किया जाना है। विचार विमर्श और कविता पाठ की भी बात लिखी गई है। जैसा कि परंपरा है एक घंटा देर से मुख्य अतिथि आये तभी कार्यकर्म शुरू हुआ है। साहित्य के आयोजन में राजनेता मुख्य महमान हैं ताकि दो पांच हज़ार दे कर हिंदी पर उपकार कर जाएं। बताया गया आज केवल हिंदी के बारे लिखी रचनाएं ही पढ़नी हैं , हिंदी को जैसे बांध दिया गया हो ऐसा लगा। सब से पहले शुरुआत की किसी ने और कई देशों में लोग हिंदी में बात करते हैं ये समझाया कि उन्होंने किस किस देश की यात्रा की है और बाज़ार में खरीदार से सब उनकी भाषा में औपचारिक बात करते है बताकर साबित किया कि हिंदी का परचम लहरा रहा है। विचार की बात थी मगर विचार नहीं किया गया कि इस में शुद्ध कारोबार है भाषा से अनुराग नहीं। हिंदी बोलना उनकी ज़रूरत है मज़बूरी है पसंद नहीं है। मैंने देखा लोग उनकी बात पर ध्यान नहीं दे रहे थे , श्र्द्धांजलि सभा में दिंवगत आत्मा की सद्गति की बात की तरह। इस तरह सब बारी बारी आते रहे और हिंदी हिंदी दोहराते रहे। स्कूलों दफ्तरों में बच्चे लाते हैं लिखकर उस तरह की रचनाएं हिंदी है माथे की बिंदी , हिंदी का आकाश , हिंदी से हर काम , हिंदी तुझे सलाम , कौन क्या पढ़ रहा कोई नहीं सुन रहा था। इक बोझिल सा समां लगा मुझे जैसे किसी बच्चे को अध्यापक ने आदेश दिया हो और उसे खड़े होकर लिखी नोटबुक से पाठ पढ़ना है चाहे क्लास में बाकी बच्चे अपनी बातों में व्यस्त हों। मुझे किसी की भी रचना में कुछ भी नया और सार्थक नहीं मिला , यही लगा कहां आ गया क्यों आ गया। बीच बीच में किसी लेखक की किताब का विमोचन होता और उस के बाद उस के किसी अपने से उस की समीक्षा पढ़ने की बात होती रही। बिना सुने सब समझ रहे थे अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग है। इक समीक्षक को लिखने वाले की कहानी मुंशी प्रेमचंद जैसी और उन से बेहतर लगी। अब इस में किसी को क्यों आपत्ति हो , जिस को जो पसंद हो। मैं भी अपनी पत्नी की पसंद को अपनी पसंद बताता हूं हमेशा। सभा के अंत से पहले मुख्य अतिथि को किसी और सभा में जाना था भोग की बात थी अर्थात कोई शोक सभा होगी। मैं भी चला आया था अपनी दो ग़ज़ल पढ़कर जो हिंदी में लिखी थी पर हिंदी पर नहीं थीं , ये अपराध करना ही पड़ा क्योंकि मुझे आज के हालात पर समाज की वास्तविकता पर बोलना था , तोता रटंत नहीं करता मैं कभी भी। मगर मुझे मालूम है उस के बाद जो जो हुआ होगा। कुछ लोगों को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया होगा और सफल आयोजन की बधाई भी दी गई होगी। बस इक बात खो गई होगी कि इस से हिंदी की क्या भलाई हुई है। मुझे ख़ुशी है बहुत लोगों से मिलना हुआ इसी बहाने , मगर समझा नहीं आयोजन का हासिल क्या है। शायद चार दिन पहले अपनी सुविधा से हिंदी दिवस मनाने की बात से ही मुझे समझ लेना था ये इक आडंबर है जो साल दर साल दोहराना पड़ता है ये बताने को कि हम हिंदी वाले हैं।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन फिरोज गाँधी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंहिंदी दिवस की औपचारिकेताओं पर बात करता उत्तम लेख👍
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