नया इतिहास रचने वाले ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
कभी पढ़ा था आप कुछ लोगों को कुछ समय तक मूर्ख बना सकते हैं मगर सब को हमेशा के लिए मूर्ख नहीं बना सकते। फिर भी इक बात अधूरी रह गई थी कि कौन कितने लोगों को कितने समय तक मूर्ख बनाकर रख सकता है। अधिकतर लोग कहते हैं मैं किसी की बातों पर यकीन करता रहा मगर बहुत बाद में उसकी असलियत सामने आई। उसे क्या समझा और वो क्या निकला। नेता बदनाम हैं जनता को मूर्ख बनाते हैं मगर बार बार जनता चुनाव में साबित करती आई है कि उसने भी नेताओं से मूर्ख बनाने का बदला ले लिया है। उसको जितवाया भी था उसकी बातों में आकर और इस बार उसकी ज़मानत भी नहीं बचने दी है। अभी तक नेता चालाकी से दोबारा भी जनता को बहला फुसला कर सत्ता हासिल करते आये हैं और दोबारा भी वही दोहराते आये हैं। मगर अभी तक देश की आधी से अधिक अर्थात पचास फीसदी जनता को कोई मूर्ख नहीं बना पाया। और जनता का बहुमत यही सोचकर खुश होता रहा कि हमने इस सरकार को वोट नहीं दिया था इसलिए हम गलत लोगों को चुनने के अपराधी नहीं हैं। देश में कहने को लोकतंत्र है मगर कभी किसी को भी डाले गए वोटों का पचास प्रतिशत मिला हो ऐसा देखा नहीं है। अर्थात देश की जनता का बहुमत उन सभी को चुनने का दोषी नहीं जिन्होंने देश को बदहाली तक पहुंचाया है। मगर फिर इस युग का अपना नया इतिहास रचने को इक कलयुगी अवतार आ गया जो सूरज नाम रखकर आकाश में धुंआ बन छा गया। झूठ और सच के अंतर सभी मिटा गया , उसके सामने कोई भी रह नहीं पाया खड़ा , भूखा था कई जन्मों का वो और भूख बढ़ती ही गई। सब का साथ देने के लिए हर किसी को खा गया। हर तरफ इक शोर सा होने लगा भागो भागो , बचना नहीं उस सर देखो देखो वो आ गया। लेकिन बड़ी ही मधुर उसकी कटु मुस्कान थी , दिल लुट गया अपना भी क्या क्या हुआ बतला गया।
संविधान की किताब को धर्म वालों की तरह , बस सर झुकाने की औपचारिकता निभा गया। मतलूब लोगों के शासन का ज़माना आ गया , अपने चाटुकार लोगों को हर जगह बिठा गया। तालिब कोई भी नहीं ये कैसा जनतंतर आ गया। तिनका भी नहीं था वजूद जो आसमान पर छा गया। देखे नहीं थे जो कभी ऐसे भयानक दिन लाकर , लो अच्छे दिन हैं यही सब को यही समझा गया। दिल में थी छुपी नफरत जाने किस किस बात की , आओ गले लग जाओ मेरे दोस्त बनकर इक मुहब्बत का नग्मा सुना , दुश्मनों को ही नहीं नाम तक को उनके मिटा गया। आधार कोई भी न था पास उसके कभी , नींव नहीं रखी कोई दीवार ऊंची बनवा गया। क्या क्या किया क्या नहीं किया कोई भी नहीं जानता , इक राज़ की तरह दिल दुनिया का दहला गया। तय कर लिया उसने यही बस एक सच्चा है वही , हर झूठ को अपने सच से वो जितवा गया। राजा नंगा था मगर कोई भी न कह सका , कैसी कैसी पोशाक हर दिन पहनकर आ गया। देश क्या समाज क्या कोई नहीं उसके सिवा , आंधी की तरह , तूफ़ान की तरह , बाढ़ की तरह। उड़ा दिया , मिटा दिया , डुबा दिया क्या क्या नहीं समझा गया। बस इक वही सब से भला हर दीवार पर इश्तिहार है , जितने लगे थे दाग़ खुद पर वो सभी को छुपा गया। सिकंदर हूं मैं मुझे राज करना विश्व पर , कैसे है कैसे नहीं कोई नहीं ये सोचना , खाली हाथ आया मगर सब कुछ अपना ठहरा गया। त्राहिमाम त्राहिमाम की खामोश इक आवाज़ है , डरते हो क्यों मुझसे तुम कह और दहशत दिखला गया। हर तरह विनाश ही विनाश आता है नज़र विकास जिसको आकर है वो बतला गया। फिर वही पुरानी कहानी को दोहरा रहा है , देश है बदहाल नीरो बंसी बजा रहा है।
चोरों को सज़ा देनी थी जिसे खुद चोर सभी हैं बन गये। जितने भी थे कातिल सभी उसकी शरण में आ गए और इल्ज़ाम कोई नहीं उनपर अब सब मसीहा बन गए। इक आग का है खेल जिसमें बचेगा कोई नहीं , किसको बुझानी आग है आये कोई तो नज़र कहीं। घर को जलाकर लोग बाहर खड़े हैं देखते , ज़िंदा भी कोई जल गया होगा नहीं अब सोचते। सोने की लंका जली रावण की लगाई आग से , राम और हनुमान तो हैं दूर ही से देखते। विनाश काले विपरीत बुद्धि का युग फिर आया है। हर पाप को पुण्य नाम से मिलवाया है। फिर से लिखो भाषा भी तुम बलिदान की , मिट गई किताबों से कहानी देश इक महान की।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें