जुलाई 19, 2017

मैं साकी भी मैं सागर भी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

        मैं साकी भी , मैं सागर भी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

साकी ने प्यासे से नहीं पूछा मयकदे में
धर्म जाति या किस देश के वासी हो
सुराही ने पैमाने को भरते नहीं सोचा
मैं सोने की पीतल की जाम है कांच का।

किसी पीने वाले ने समझी नहीं प्यास
कितनी है साकी के मन की सुराही की
भीतर कितनी रही है अधूरी हमेशा ही
जाम भी नहीं बुझा सके अपनी प्यास।

नदी से नहीं पूछा सागर ने नाम पता
मैली है या साफ़ है नहीं डाली नज़र
बाहें फैला कर सब नदियों को अपनाया
लेकिन सागर का खारापन कहां मिट पाया।

मेरा नाम मुहब्बत है ईमान है इश्क़
हर आशिक़ मेरे पास चाहत ही लाया
कब कौन किस मोड़ तक साथ रहा है
जब रात अंधेरी थी नहीं पास रहा साया।

मैं फूल हूं खुशबू ही लुटाता मैं रहा हूं
हर हुस्न को हर दिन सजाता मई रहा हूं
मैं बारिश नहीं बस ओस की बूंद हूं मैं
सर्दियों को तुम धूप बुलाता मैं रहा हूं।

परिंदा बैठा कभी मंदिर मस्जिद कभी
इंसानों को रास्ता भी दिखाया है मैंने
मुझको पिंजरे में कैद नहीं करना तुम
आज़ादी का परचम लहराना है मैंने।

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