हास्य कवि की चाहत ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
मैं अपनी ये रचना फेसबुक और व्हाट्सएप्प के नाम करता हूं। जब तक मैं इन दोनों को नहीं समझा था बेचैन रहता था। सोचता था लोग दोस्त बनते हैं बस नाम को ही , इक संख्या हैं हम सभी , भारत सरकार के किसी विभाग के झूठे आंकड़ों की तरह। सैकड़ों नहीं हज़ारों दोस्त फिर भी बातें दोस्ती की कम दुश्मनी की अधिक लगती , या कभी लगता इक लेन देन है। बाजार में आप जेब खाली कर पसंद का कुछ खरीदते हो , फेसबुक पर जेब भी भरी रहती और जो आपको पसंद वो भी मिल जाता। आपको लाइक्स के बदले लाइक्स ही करनी है और कमैंट्स में वाह क्या खूब लिखना है , बस थोड़ा झूठ बोलकर किसी को ख़ुशी देना इस में गलत क्या है। आप किसी को गलती से भी सलाह मत देना कि आपकी कविता में कोई कमी है , हर कविता नाम की लड़की नाराज़ हो जाएगी , खुशबू रानी को भी बुरा लगेगा , और ग़ज़ल तो रूठ ही जाएगी। मुझे ये सब इक साथी हास्य कवि से समझ आया है। उसकी बात आखिर में , पहले अपनी भड़ास निकालनी है। काफी चिंतन करने के बाद मैंने इक फेसबुक और बना डाली व्यंग्य साहित्य नाम से ये सोचकर कि अब इस पर कौन क्या है बिना सोचे दोस्त बना लेना और फिर ये चिंता नहीं करनी उसकी पोस्ट पर क्या लिखा है या मेरी पोस्ट कोई पढ़ता भी है कि नहीं। सब ज्ञानी लोग ज्ञान बांट रहे हैं अपना ज्ञान खुद पास नहीं रखते औरों को देते हैं अव्यवहारिक ज्ञान। मुझे अपनी मूर्खता को ज्ञान नहीं समझना ये हमेशा से सोचा हुआ है , मुझे समझदारी और अक्लमंदी से फासला रखना पसंद है। समझदार लोग जो करते हैं सब जानते हैं , औरों को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करना। आप ये मत पूछना उल्टा और सीधा उल्लू होता क्या है , मैं उल्लू नहीं न किसी को बनाता ही हूं। अब वापस असली बात पर उस हास्य कवि की कविता से बात करते हैं।
देख कर सब कवि हैरान थे , सब से बढ़कर छा गया था , इक प्रेम की कविता सुनाकर , जो कवि उसको मिली थी सभी , महिला श्रोताओं की तालियां , जैसे सभा में बैठी उसकी सालियां। मगर बताया था बाद में राज़ , फैला दी थी उसने सभा में बात , जिसको चाहता है उसी पर लिखी , आज आया है खुद उसे सुनाने को , और जाने किस किस को लगा था , ज़रूर मुझी से हुई है मुहब्बत , सब , समझ रही थी है वही उसकी चाहत। इक कवि भाई ने अकेले में पूछा , दिखला दो मिलवा दो भाई हमें भी , देखी अभी तक कोई कविता सी नहीं , हंसकर बोला कोई हो तो मिलवाऊं , ख्वाब की मेहबूबा को हकीकत बनाऊं , मुझे तो सब की सब लगती हैं आफत , मेरी रचना ही है केवल मेरी मुहब्बत।
बस मुझे इक गुरुमंत्र मिल गया था , मुझे दूसरों की नकल करना पसंद नहीं है इसलिए मैंने अपना वास्तविक तरीका अपनाया। मैंने भी अपना इक फेसबुक और इक व्हाट्सएप्प का ग्रुप बनाया जिसका एडमिन खुद को बनाया , अपनी मर्ज़ी से धूप की अपनी मर्ज़ी से छाया। मगर अपनी सच बोलने की बुरी आदत फिर भी नहीं छोड़ पाया। मैंने संबंध बनाने का अलग अपना नुस्खा अपनाया , खुले में लिखकर नहीं किसी को गलत को गलत बताया। उस लिखने वाले को या लिखने वाली को इनबॉक्स समझाया , इस तरह बहुत को अपना चाहने वाला बनाया। लोग ग्रुप में महिला दोस्तों की बेकार कविताओं को पसंद कर रहे थे , इधर हम दो कदम और आगे बढ़ रहे थे। उनकी रचनाओं को सही करने का काम कर रहे थे , वो समझती थी हम उन पर मर रहे थे। सर जी सर जी सुनकर मज़ा आ रहा था , कोई अनपढ़ गुरु बन गया था , दसवीं फेल टीचर नहीं बन पाया अब योग सिखला रहा था। मैं देख कर चुपके चुपके मुस्कुरा रहा था। मुझे इक पुराने दोस्त की बात जो कभी नहीं समझ आई थी समझ आई थी , जब उस से अपनी कुट्टी है बिना बात हुई लड़ाई थी। आज होने लगी बात तो वो भी बताता हूं , इक सच्ची बात पर आज तलक पछताता हूं। दोस्त अखबारी छपास का मारा है उसको लगता अपना छपा नाम सब से न्यारा प्यारा था। इक दिन उसने अख़बार में समाचार लिख भेजा , किसी को नहीं खबर थी किस किस को किस ने देखा। जो लोग उस दिन शहर में नहीं थे खबर में उस कवि गोष्ठी में उपस्थित थे। मैंने किया फोन और बोला मेरे भाई , जो नहीं आया उसकी भी बधाई , इतना सितम नहीं करो मेरे यार। बुरा मान गया था , वो समझाता था भगवान को भी तूती पसंद है , हम तो आदमी हैं तारीफ के भूखे हैं। बस मुझे इसीलिए भगवान को मनाना आया नहीं , झूठी बातों का भोग मैंने लगाया नहीं। अब काम की बातें लिखना छोड़ बेकार की अनाप शनाप लिखता हूं और अपनी लिखी पोस्ट को जब भी खुद पढ़ता हूं खुद ही लाइक भी और कमेंट भी करता हूं। बस मुझे सोशल मीडिया की समझ आई है , खुद अपनी पीठ सब से थपथपाई है। टीवी हो अख़बार हो या फिर अपनी सरकार हो , सब खुद अपनी आरती गए रहे हैं , कोई नहीं सुने फिर भी दोहरा रहे हैं। जो कहते थे न खाएंगे न खाने ही देंगे आजकल मौज मना रहे हैं।
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