विकास की नहीं , धर्म की राजनीति ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
जब आप इधर आ गए , देश के सब से बड़े पद को भी दलित राजनीति का ज़रिया बनाकर , अपनी ही बातों को भुलाकर कि सब ने अपने अपने घर भर लिए इसी राह पर चलकर अब इसकी नहीं विकास की , वो भी सब के विकास की बात होनी चाहिए तब जो इधर खड़े थे वो भी क्या करते। और इस तरह आपने तीन सौ साठ डिग्री का रास्ता कब तय कर लिया कोई नहीं समझ पाया। दोनों पक्ष ने दलित अपना अपना चुना और उम्मीदवार बना दिया। वास्तव में इन में दलित कोई भी नहीं माना जा सकता , एक राज्यपाल जैसे पद और एक लोकसभा अध्यक्ष जैसे पद पर रह चुके हैं। दलित लोग अलग होते हैं और दलित राजनीति करने वाले अलग। दलित लेखन दलित चिंतन भी कुछ ऐसे ही होते हैं। समझ नहीं आता देश की राजनीति किस कदर दिशाहीन कैसे होती गई है कि देश का राष्ट्र्पति भी उसी दलगत राजनीति के तराज़ू पर तोला जा सकता है। अब जो कल एक दलित का समर्थन करते कह रहे थे जो उनके उम्मीदवार होने का समर्थन नहीं करेगा वो दलित विरोधी समझा जायेगा। लो अब दोनों ही दलित हैं और आप चाहे किसी का भी साथ देते हैं आप दलित विरोधी ही बन जाओगे। क्योंकि आपने दूसरी तरफ के दलित का विरोध तो किया ही है , कितनी अजीब स्थिति है अब दलित का समर्थन करेंगे मगर होंगे दलित विरोधी ही। यही वास्तविकता है , ये सभी दल दलित शोषित ही नहीं गरीब मज़दूर किसान सभी के विरोधी ही हैं , इनकी सत्ता की राजनीती की केवल एक सीढ़ी भर। देशहित की संविधान की वास्तव में अनुपालना की राजनीति क्या कोई कभी नहीं करेगा। काश कोई होता जो ऐसी ओछी राजनीति का माध्यम बनने से इनकार करता। साहस करता इस गलत विचारधारा का विरोध करने का और कहता नहीं मुझे केवल किसी जाति में जन्म लेने के कारण नहीं पाना कोई पद। मुझे आप अगर दलित वर्ग से नहीं होने पर भी इस पद के काबिल समझते तब ही इसे मंज़ूर करता या करती। देश के सब से बड़े पद पर आसीन होने वाले को इतना बड़ा तो होना ही चाहिए कि वो असूल की खातिर सब कुछ त्याग कर सके। मगर जब आप जानते हैं कि आपको इतने बड़े देश के सर्वोच्च पद पर दो कारण से उम्मीदवार बना रहे हैं , आपकी किसी के लिए निष्ठा और उनके लिए दलित होने से वोट पाने का इक माध्यम होने से। सवाल इस से अधिक महत्व का है , क्या उस पद की गरिमा प्रतिष्ठा बढ़ती है या कम होती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें